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अध्याय ६४

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ६४

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीभरद्वाजजी बोले - सूतजी ! कुछ लोग ' सत्य ' को ही पुरुषार्थका साधक बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं, दूसरे लोग ' तपस्या ' और ' पवित्रता ' को उत्तम बताते हैं । कुछ लोग ' सांख्य ' और कुछ लोग ' योग ' की प्रशंसा करते हैं । ढेले, पत्थर और सोनेको समान समझनेवाले कुछ अन्य लोग ' ज्ञान ' को ही पुरुषार्थ - साधनके लिये उत्तम मानते हैं । कुछ लोग ' क्षमा ' की प्रशंसा करते हैं तो कुछ लोग ' दया ' को उत्तम बताते हैं, कुछ लोग और ही किसी उपायको शुभ कहते हैं । दूसरे लोग ' सम्यगज्ञान ' को उत्तम मानते हैं । सांख्यतत्त्वका मर्म जाननेवाले कुछ लोग ' आत्माके ध्यान ' को श्रेष्ठ मानते हैं । इस प्रकार यहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरुप चारों पुरुषार्थोंका उपाय ही नाम - भेदसे नाना प्रकारका बताया जाता है । ऐसी स्थितिमें जगतमें पापकर्मसे विमुक्त पुरुष भी कर्तव्याकर्तव्यके विषयमें कुछ निश्चय न हो सकनेके कारण मोहमें ही पड़े रहते हैं । सर्वज्ञ ! इन उपर्युक्त ' सत्य ' आदि उपायोंमें जो सबसे उत्तम उपाय हो और महात्माओंद्वारा अवश्यकर्तव्य हो, सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले उस उपायका आप हमसे वर्णन करें ॥१ - ७॥

सूतजी कहते हैं - संसार - बन्धनसे मुक्त करनेवाले इस अत्यन्त गूढ उपायको लोग सुनें । इस विषयमें महात्माजन देवर्षि नारद और भक्तवर पुण्डरीकके संवादरुप इस प्राचीन इतिहासका वर्णन किया करते हैम ॥८ १/२॥

महामती पुण्डरीकजी एक विद्वान् ब्राह्मण थे । वे सदा गुरुजनोंके वशमें रहते हुए ब्रह्मचर्य आश्रमके नियमोंका पालन करते थे । उन्होंने अपनी इन्द्रियों और क्रोधको जीत लिया था तथा वे नियमानुसार संध्योपासन किया करते थे । वेद और वेदाङ्गोंमें वे निष्णात थे तथा अन्य शास्त्रोंके भी पण्डित थे । वे प्रतिदिन समिधा एकत्रकर सायं और प्रातः काल अत्यन्त यत्नपूर्वक अग्निकी उपासना किया करते थे । साक्षात् ब्रह्मपुत्र नारदजीके समान वे सर्वव्यापी यज्ञपति भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक आराधना करते हुए स्वाध्यायमें ही लगे रहते थे । जल, ईंधन और फूल आदि आवश्यक सामान लाकर वे सदा ही गुरुजनोंको संतुष्ट रखते और उनकी अपने माता - पिताके समान शुश्रूषा किया करते थे । भिक्षा माँगकर भोजन करते थे और अपने सद्व्यवहारोंके कारण लोगोंके परम प्रिय हो गये थे । वे सदा ब्रह्मविद्याका अध्ययन और प्राणायामका अभ्यास करते रहते थे । महाराज ! समस्त पदार्थोंको वे अपना स्वरुप ही समझते थे; अतः संसारके विषयोंमें उनकी बुद्धि अत्यन्त निः स्पृह हो भवसागरसे पार उतारनेवाली हो गयी थी ॥९ - १४ १/२॥

भरद्वाजजी ! उनका वैराग्य यहाँतक बढ़ गया कि वे महान् उदार पुण्डरीकजी पिता, माता, भाई, पितामह, चाचा, मामा, मित्र, सम्बन्धी तथा बान्धवजनोंको तृणके समान त्यागकर, शाक और मूल - फलादिका आहार करते हुए इस पृथ्वीपर आनन्दपूर्वक विचरने लगे । उन्होंने यौवन, रुप, आयु और धन - संग्रहकी अनित्यताका विचार करते समस्त त्रिभुवनको मिट्टीके ढेलेके समान तुच्छ समझ लिया था और अपने मनमें यह निश्चय करके कि ' मैं पुराणोक्त मार्गसे यथासमय सभी तीर्थोंकी यात्रा करुँगा ', वे महाबाहु महातेजस्वी और महाव्रती पुण्डरीकजी गङ्गा, यमुना, गोमती, गण्डकी, शतद्रू, पयोष्णी, सरयू और सरस्वतीके तटपर, प्रयागमें, नर्मदा आदि हिमालयके तीर्थोंमें एवं इनके अतिरिक्त अन्यान्य तीर्थोंमें भी यथासमय विधिपूर्वक भ्रमण करते रहे । इसी तरह घूमते हुए, पुण्यकर्मोंके अधीन हो वे तपस्वी वीर महाभाग पुण्डरीक शालग्रामक्षेत्रमें जा पहुँचे ॥१५ - २२ १/२॥

वह तीर्थ तत्त्वज्ञानी तपस्वी ऋषियोंद्वारा सेवित था । वहाँ मुनियोंके सुरम्य आश्रम थे, जो पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं । वह तीर्थ चक्रनदीसे भूषित है और वहाँके शिलाखण्ड भगवानके चक्रसे चिह्नित हैं । वह तीर्थ जितना ही सुरम्य था, उतना ही एकान्त । उसका विस्तार बड़ा था और वहाँ चित्त स्वतः प्रसन्न रहता था । वहाँपर कुछ चक्रसे चिह्नित प्राणी रहते थे, जिनका दर्शन बहुत ही पावन था । वहाँ पुण्यतीर्थके यात्री यथेष्ट विचरते रहते थे । उस महापवित्र शालग्रामक्षेत्रमें महामति पुण्डरीकजी प्रसन्नचित्त हो तीर्थ - सेवन करने लगे । वे नियमपूर्वक वहाँ देवहद तीर्थमें, पूर्वजन्मकी स्मृति दिलानेवाली सरस्वतीके जलमें, चक्र - कुण्डमें और चक्रनदी ( नारायणी ) - के जलमें भी स्त्रान करके उसी क्षेत्रके अन्तर्गत अन्यान्य तीर्थोंमें भ्रमण करते रहते थे ॥२३ - २८॥

तदनन्तर उस क्षेत्रके प्रभावसे और वहाँके तीर्थोंके तेजसे उन महात्माका चित्त वहाँ बहुत ही शुद्ध एवं प्रसन्न हो गया । इस प्रकार शुद्धचित्त एवं ध्यानयोगमें तत्पर हो, वहाँ ही सिद्धिकी इच्छासे परमभक्तियुक्त हो, वे शास्त्रोक्त विधिसे जगत्पति भगवान् विष्णुकी आराधना करने लगे । अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके निर्दृद्वं रहते हुए उन्होंने अकेले ही बहुत दिनोंतक वहाँ निवास किया । वे शाक और मूलफलादिका आहार करते और सदा संतुष्ट रहते थे । उनकी सर्वत्र समान दृष्टि थी । वे यम, नियम, आसन - बन्ध, तीव्र, प्राणायाम, निरन्तर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधिके द्वारा निरालस्यभावसे भलीभाँति योगाभ्यास करते रहे इस प्रकार समस्तु पुरुषार्थोंके ज्ञाता निष्पाप महामना पुण्डरीकजीने देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुमें चित्त लगाकर उनकी आराधना की और उन्हींमें मन लगाये हुए वे उनके परम अनुग्रहकी आकाङ्क्षासे भजन करने लगे ॥२९ - ३५॥

राजेन्द्र ! महात्मा पुण्डरीकको उस शालग्रामक्षेत्रमें निवास करते बहुत समय बीत गया । तब एक दिन साक्षात् सूर्यके समान महातेजस्वी, वैष्णवहितकारी, परमार्थवेत्ता एवं विष्णुभक्तिपरायण देवर्षि नारदजी तपोनिधि पुण्डरीक मुनिको देखनेकी इच्छासे उक्त क्षेत्रमें गये । समस्त आगमोंके ज्ञाता, महाबुद्धिमान्, महाप्राज्ञ, पूर्णतेजस्वी एवं प्रभापुञ्जसे उपलक्षित नारदजीको वहाँ आया देख पुण्डरीकके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंनें विनीतभावसे हाथ जोड़कर उन्हें अर्घ्य निवेदन किया, फीर यथोचित्तरुपमे उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया । तत्पश्चात् परम कान्तिमान् विप्रवर पुण्डरीकजी मन - ही - मन यह सोचने लगे कि ' ये अद्भुत दिव्य शरीरवाले, मनोरमवेषधारी, तेजस्वी महापुरुष कौन हैं ? अहो ! इनका मुखमण्डल कितना प्रसन्न है ! इनके मस्तकपर जटा - जूट सुशोभित हो रहा है । इन्होंने हाथमें वीणा ले रखी हैं । इस रुपमें ये साक्षात् सूर्य ही तो नहीं है ? अथवा अग्निदेव, इन्द्र और वरुणमेंसे तो कोई नहीं हैं ?' यों सोचते हुए किसी निश्चयपर न पहुँचनेके कारण उन्होंने पूछा ॥३६ - ४२॥

पुण्डरीकजी बोले - परम कान्तिमान् दिव्य पुरुष ! आप कौन है और कहाँसे पधारे हैं ? इस पृथ्वीपर जिन्होंने कभी पुण्य नहीं किया है, ऐसे लोगोंके लिये आपका दर्शन प्रायः दुर्लभ ही है ॥४३॥

नारदजी बोले - पुण्डरीक ! मैं नारद हूँ । तुम्हारे दर्शनकी उत्कण्ठासे ही यहाँ आया हूँ । तुम - जैसा निरन्तर भगवद्भक्तिपरायण पुरुष दुर्लभ है । द्विजोत्तम ! भगवद्भक्त पुरुष यदि जातिका चण्डाल हो तो भी वह स्मरणमात्रसे, वार्तालापसे अथवा सम्मानित होकर, अथवा स्वेच्छासे ही लोगोंको पवित्र कर देता हैं; फिर तुम्हारे - जैसे भक्त ब्राह्मणके सत्सङ्गकी पावनताके विषयमें तो कहना ही क्या है । द्विज ! मैं शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले देवदेव भगवान् वासुदेवका दास हूँ ॥४४ - ४५ १/२॥

नारदजीके इस प्रकार अपना परिचय देनेपर उनके दर्शनसे अत्यन्त विस्मित हुए विप्रवर पुण्डरीकजी प्रेमभक्तीसे विह्वलचित्त होकर मधुर वाणीमें बोले ॥४६ १/२॥

पुण्डरीकजीने कहा - आज मैं समस्त देहधारियोंमें धन्य हूँ, देवताओंद्वारा भी सम्माननीय हूँ । आज मेरे पितर कृतार्थ हो गये । मेरा जन्म सफल हो गया । देवर्षे ! मैं आपका भक्त हूँ; आप मुझपर अब विशेषरुपसे अनुग्रह करें । विद्वन् ! मैं अपने पूर्वजन्मकृत कर्मोंसे प्रेरित हो संसारमें भटक रहा हूँ । बताइये, इससे छुटकारा पानेके लिये मैं क्या - क्या करुँ ? मेरे लिये जो परम कर्तव्य हो, वह गोपनीय हो तो भी आप मुझे उसका उपदेश कीजिये । मुने ! यों तो आप समस्त लोकोंको ही सहारा देनेवाले हैं, परंतु वैष्णवोंके लिये तो आप विशेषरुपसे शरणदाता हैं ॥४७ - ४९ १/२॥

नारदजी बोले - द्विज ! इस जगतमें अनेक शास्त्र और अनेक प्रकारके कर्म हैं । इसी तरह यहाँ अनेको प्राणी हैं और उनके लिये धर्मके मार्ग भी बहुत हैं । द्विजोत्तम ! इसीसे इस जगतमें विचित्रता दिखायी देती हैं ॥५० - ५१॥

कुछ लोगोंका मत है कि यह सम्पूर्ण जगत् सर्वथा अव्यक्तसे उत्पन्न होता है और समय आनेपर उसीसें लीन भी हो जाता है । बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ ! कुछ अन्य तत्त्वदर्शी पुरुष आत्माको अनेक, नित्य एवं सर्वत्र व्यापक मानते हैं । अनघ ! ब्रह्मन् ! इन सब बातोंपर विचार करके नाना मतोंका ज्ञान रखनेवाले समस्त ऋषिगण अपनी बुद्धि और विद्याके अनुसार जिस सिद्धान्तका प्रतिपादन करते हैं, उसे सावधान होकर सुनो; वह सब मैं तुमसे बतलाता हूँ । यह बताया जानेवाला गोप्य परमार्थतत्त्व इस घोरतर संसारसे मुक्ति दिलानेवाला है । मनुष्योंकी दृष्टि प्रायः वर्तमान विषयोंको ही निश्चितरुपसे ग्रहण करती हैं; वह सुदूरवर्ती भूत और भविष्यको नहीं ग्रहण कर सकती । उत्तम व्रतके पालक एवं पापशून्य तात पुण्डरीक ! इस विषयमें श्रीब्रह्माजीने पहले मेरे प्रश्न करनेपर मुझसे जो कुछ कहा था, वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ; तुम ध्यान देकर सुनो । एक समयकी बात है, ब्रह्मलोकमें विराजमान अविनाशी कमलयोनि ब्रह्माजीको प्रणाम करके मैंने उनसे यथोचितरुपसे प्रश्न किया ॥५२ - ५८॥

नारदजी बोले - देव ! लोकपितामह ! सबसे उत्तम ज्ञान और सबसे उत्कृष्ट योग कौन - सा है ? इस विषयमें सारी बातें आप मुझे ठीक - ठीक बतायें ॥५९॥

ब्रह्माजी बोले - जो तेईस विकारोंके कारणभूत चौबीसवें तत्त्व प्रकृतिसे भिन्न पचीसवाँ तत्त्व है, वही सम्पूर्ण प्राणिशरीरोंमें ' नर ' ( पुरुष या आत्मा ) कहलाता है । सम्पूर्ण तत्त्व नरसे उत्पन्न हैं, इसलिये ' नार ' कहलाते हैं । ये नार जिनके अयन ( आश्रय ) हैं, अर्थात् जो इनमें व्यापक हैं, वे भगवान् ' नारायण ' कहे जाते हैं । सृष्टिकालमें सम्पूर्ण जगत् नारायणसे ही प्रकट होता है और प्रलयके समय फिर उन्हींमें लीन हो जाता है । नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तत्त्व हैं, नारायण ही परमज्योति और नारायण ही परम आत्मा हैं । मुने ! वे भगवान् नारायण परसे भी पर हैं । उनसे बढ़कर या उनसे भिन्न कुछ भी नहीं है । इस जगतमें जो कुछ देखा या सुना जाता है, सबको बाहर और भीतरसे व्याप्त करके भगवान् नारायण स्थित हैं । इस प्रकार उन्हें साकार वस्तुओंमें व्यापक जानकर ही देवताओंने बार - बार उनको ' साकार ' कहा है तथा ' ॐ नमो नारायणाय ' - इस मन्त्रका ध्यान ( मानसिक जप ) करते हुए अनन्यभावसे उनमें मन लगाया है । जो अनन्यचित्त हो सदा भगवान् नारायणका ध्यान करता है, उसको दान, तीर्थसेवन, तपस्या और यज्ञोंसे क्या काम है ? भगवान् नारायणका ध्यान ही सर्वोत्तम ज्ञान है तथा इससे बढ़कर दुसरा कोई योग भी नहीं है । परस्परविरुद्ध अर्थको व्यक्त करनेवाले दूसरे - दूसरे शास्त्रोंके विस्तारसे क्या लाभ ? जिस प्रकार एक ही बड़े नगरमें बहुत - से मार्गोंका प्रवेश होता है, उसी प्रकार भिन्न - भिन्न शास्त्रोंके सम्पूर्ण ज्ञान उन परमेश्वर नारायणामें प्रवेश करते हैं ॥६० - ६८ १/२॥

वे भगवान् विष्णु अव्यक्तरुपसे सर्वत्र व्याप्त हैं, सूक्ष्म तत्त्व हैं, सदा रहनेवाले सनातन पुरुष हैं, सम्पूर्ण जगतके आदिकारण हैं; परंतु उनका न तो आदि है न अन्त ही । स्वयं वे किसी दूसरेसे उत्पन्न नहीं हैं, अतएव ' स्वयम्भू ' हैं, किंतु इस सम्पूर्ण भूतप्राणियोंको स्वयं ही प्रकट करते हैं । वे विभु, अचिन्त्य, नित्य और कार्य - कारणस्वरुप हैं । सम्पूर्ण जगतका उनमें ही निवास है, इसलिये वे ' वासुदेव ' कहे गये हैं । वे पुराणपुरुष, त्रिकालदर्शी और अविकारी हैं । यह सम्पूर्ण चराचरमय त्रिभुवन उन्हीं भगवानके द्वारा व्याप्त होनेसे स्थित है, इसलिये वे ' विष्णु ' कहलाते हैं । अथवा युगका क्षय होनेपर महत्तत्व आदि समस्त भूतोंका उन्हीं सृष्टिके आश्रयभूत परमात्मामें निवास होता है, इसलिये वे ' वासुदेव ' कहे गये हैं । कुछ लोग उनको पुरुष ( आत्मा ) कहते हैं और कुछ लोग अविनाशी ईश्वर बताते हैं । कुछ अन्य लोग उन्हें केवल ' विज्ञानस्वरुप ' मानते हैं, कितने ही उन्हें परब्रह्म कहते हैं । कुछ मनुष्य उनको ' सनातन जीव ' मानते हैं । कुछ लोग ' परमात्मा ' कहते हैं, कुछ उन्हें एक ' निरामय तत्त्व ' मानते हैं, कुछ विद्वान् उन्हें ' क्षेत्रज्ञ ' कहते हैं और कुछ उन्हें तेईस विकारोंके कारण चौबीसवें तत्त्व प्रकृति और पचीसवें तत्त्वरुप पुरुषसे भिन्न ' छब्बीसवाँ तत्त्व ' ( पुरुषोत्तम ) मानते हैं । कुछ लोग आत्माको अँगूठेके बराबर बताते हैं और कुछ विद्वान् कमल - पुष्पकी धूलिके एक कणके बराबर ' अणु ' मानते हैं । ऊपर भगवान् विष्णुके जिन नामोंका उल्लेख किया गया है, ये तथा अन्य भी बहुत - से भिन्न - भिन्न नाम मुनियोंद्वारा शास्त्रोंमें कहे गये हैं, जो साधारण लोगोंमें भेद - भ्रमका उत्पादन कर उन्हें मोहमें डालनेवाले हैं । यदि एक ही शास्त्र होता तो सबको संदेहरित निश्चयात्मक ज्ञान होता । किंतु यहाँ तो बहुतेरे शास्त्र हैं और सबका अलग - अलग सिद्धान्त हैं; अतः ज्ञानका तत्त्व बड़ा ही दुर्जेय हो गया है । परंतु मैंने सम्पूर्ण शास्त्रोंका मथन करके विचार किया तो एक यही बात सब सिद्धान्तोंके साररुपसे ज्ञात हुई कि सदा ' भगवान् नारायणका ध्यान करता चाहिये ।' इसलिये मोहमें डालनेवाले सम्पूर्ण शास्त्र - विस्तारोंका त्याग करके एकचित्त होकर उत्साहपूर्वक भगवान् नारायणका ध्यान करो । इस प्रकार सतत चिन्तनके द्वारा उन अविनाशी देवदेव नारायणका तत्त्व जानकर तुम शीघ्र ही उनमें सायुज्यमुक्ति प्राप्त कर लोगे, इसमें संदेह नहीं है ॥६९ - ८० १/२॥

विप्रेन्द्र ! इस प्रकार ब्रह्माजीके कहे हुए इस परम दुर्लभ ज्ञानयोगको सुनकर मैं तभीसे भगवान् नारायणकी परिचर्यामें लग गया । जो लोग ' ॐ नमो नारायणाय ' - इस सनातन ब्रह्मस्वरुप मन्त्रको जानते हैं, वे अन्तकालमें इसका जप करते हुए विष्णुके परमधामको प्राप्त कर लेते हैं । अतः तात ! तत्त्व - विचार करनेवाले पुरुषोंको सदा ही सनातन परमात्मा नारायणका अनन्यचित्तसे ध्यान करना चाहिये । भगवान् नारायणका अनन्यचित्तसे ध्यान करना चाहिये । भगवान नारायण जगदव्यापी सनातन परमेश्वर हैं । ये भिन्न - भिन्न रुपसे सम्पूर्ण लोकोंके सृष्टि, पालन तथा संहार - कार्यमें लगे रहते हैं । इनके नाम, गुण एवं लीलाओंका श्रवण और कीर्तन हुए उनके ध्यानमें संलग्न हो उनकी आराधना करनी चाहिये । ब्रह्मन् ! अपना हित चाहनेवाले पुरुषके लिये सर्वथा भगवान् नारायणकी आराधना ही कर्तव्य है । विप्रवर ! जो लोग निः स्पृह, नित्य - संतुष्ट, ज्ञानी, जितेन्द्रिय और ममता - अहंता, राग - द्वेष आदि विकारोंसे रहित हैं तथा जो पक्षपातशून्य, शान्त एवं सब प्रकारके संकल्पोंसे वर्जित हैं, वे भगवानके ध्यानयोगमें तत्पर हो उन जगदीश्वरका साक्षात्कार कर लेते हैं । जो महात्मा त्रिभुवनसे नाता तोड़कर जगदगुरु जगन्नाथ भगवान् वासुदेवका कीर्तन करते हैं, वे उन जगत्पतिका दर्शन पा जाते हैं । इसलिये विप्रवर ! तुम भी भगवान् नारायणकी समाराधनामें तत्पर हो जाओ ॥८१ - ८९॥

द्विज ! जो अवहेलनापूर्वक नाम लेनेपर भी भक्तको अपना परमधाम दे देते हैं, उन भगवान् नारायणके सिवा दूसरा कौन ऐसा महान् उदार है, जो माँगी हुई वस्तुको देनेमें समर्थ हो ? तुम्हे जप अथवा स्वाध्याय - जो कुछ भी करना हो, उसे उन देवेश्वर भगवान् नारायणके उद्देश्यसे ही सदा आलस्य त्यागकर करते रहो । बहुतसे मन्त्र और व्रतोंसे क्या काम ? ' ॐ नमो नारायणाय ' - यह मन्त्र ही सब मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है । द्विजश्रेष्ठ ! कोई चीर वस्त्र पहननेवाला, जटा धारण करनेवाला, त्रिदण्डी, सदा माथा मुँड़ाये रहनेवाला अथवा तरह - तरहके उपकरणोंसे विभूषित ही क्यों न हो, उसके ये बाह्य चिह्न धर्मके कारण नहीं हो सकते; किंतु जो मनुष्य भगवान् नारायणकी शरणमें जा चुके हैं, वे पहले निर्दयी, दुष्ट और सदा पापरत रहे हों तो बी भगवाबके परमधामको पधारते हैं । हजारों जन्मोंमें भी जिसकी ऐसी बुद्धि हो जाय कि ' मैं देवदेव, शाङ्गधनुषधारी भगवान् वासुदेवका दास हूँ ' , वह मनुष्य निः संदेह भगवान् विष्णुके सालोक्यको प्राप्त होता है; फिर जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर सदा भगवानमें ही अपने प्राणोंको लगाये रहता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है ॥९० - ९६॥

सूतजी कहते हैं - सदा दूसर्रोंके ही उपकारमें लगे रहनेवाले त्रिभुवनभूषण देवर्षि नारदजी उपर्युक्त बातें बताकर वहीपर अन्तर्धान हो गये । अब धर्मात्मा पुण्डरीक भी एकमात्र भगवान् नारायणके भजनमें तत्पर हो बार - बार इस प्रकार उच्चारण करने लगे - ' भगवान् केशवको नमस्कर है; हे महायोगिन् ! आप मुझपर प्रसन्न हों ।' निरन्तर यों कहते हुए पुरुषार्थ - साधनमें कुशल वे तपस्वी पुण्डरीकजी अपने हदय कमलके आसनपर जनार्दन भगवान् गोविन्दको स्थापितकर तपस्याकी सिद्धि करनेवाले उस ' शालग्राम ' नामक तपोवनमें बहुत कालतक अकेले ही रहे । महातपस्वी पुण्डरीक स्वप्नमें भी भगवान् केशवके सिवा दूसरा कुछ नहीं देखते थे । उनकी नींद भी उन्हें पुरुषार्थ - साधनमें बाधा नहीं देती थी । उन पापरहित द्विजवर पुण्डरीकने तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा विशेषतः शौचाचारके पालनसे और जन्म - जन्मान्तरोंकी साधनासे सुदृढ हुए भगवद्भक्तिसाधक संस्कारसे सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र साक्षी देवदेव भगवान् विष्णुकी कृपाद्वारा परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि प्राप्त कर ली । उनके निकट सिंह, व्याघ्र तथा दूसरे - दुसरे हिंस क जीव आपसके स्वाभाविक वैर - विरोधको त्याग एक साथ मिलकर रहते थे । द्विजवर भरद्वाजजी ! उनके समीप उन हिंसक जन्तुओंकी इन्द्रियवृत्तियाँ अत्यन्त शान्त रहती थीं ॥९७ - १०४॥

तत्पश्चात् एक दिन बुद्धिमान् पुण्डरीकजीके समक्ष जगदीश्वर भगवान् नारायण प्रकट हुए । उनके नेत्र कमलदलके समान विशाल थे । उनके हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा सुशोभित थी । उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा था । दिव्य पुष्पोंकी माला उनकी शोभा बढ़ा रही थी । उनके वक्षः स्थलमें श्रीवत्स - चिह्न और लक्ष्मीका निवास था । वे कौस्तुभमणिसे विभूषित थे । कज्जलगिरिके समान श्यामवर्ण एवं पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु सुनहली कान्तिवाले गरुडपर आरुढ़ हो इस प्रकार सुशोभित होते थे, मानो मेरुगिरिके शिखरपर बिजलीकी कान्तिसे युक्त श्याममेघ शोभा पा रहा हो । भगवानके ऊपर रजतमय श्वेत छत्र तना था, जिसमें मोतियोंकी झालरें लगी थीं । उस समय उस छत्रसे तथा चँवर - व्यजन आदिसे उन देवेश्वरकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥१०५ - १०८॥

उन देवदेवेश्वर भगवान् नारायणका प्रत्यक्ष दर्शन पाकर पुण्डरीकने दोनों हाथ जोड़ लिये । आदरमिश्रित भयसे उनका मस्तक झुक गया । उन्होंने धरतीपर माथा टेक दिया - साष्टाङ्ग प्रणाम किया । वे विह्वल होकर उन भगवान् हषीकेशकी ओर आँखें फाड़ - फाड़कर इस प्रकार देखने लगे, मानो उन्हें पी जायँगे । जिनके दर्शनके लिये वे चिरकालसे प्रार्थना कर रहे थे, उन भगवानको आज सामने पाकर उन्हींकी ओर निर्निमेष नयनोंसे देखते हुए पापरहित धीरचित पुण्डरीकजीको आज बड़ी ही तृप्ति हुई । तब तीन पगोंसे त्रिलोकीको नाप लेनेवाले भगवान् पद्मनाभने पुण्डरीकसे कहा - ॥१०९ - १११॥

' वत्स पुण्डरीक ! तुम्हारा कल्याण हो । महामते ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो, उसीको वरके रुपमें माँग लो; उसे मैं अवश्य दूँगा ' ॥११२॥

सूतजी कहते हैं - देवदेव नारायणके कहे हुए इस वचनको सुनकर महामति पुण्डरीकने उनसे यों निवेदन किया ॥११३॥

पुण्डरीक बोले - देवेश्वर ! कहाँ मुझ - जैसा अत्यन्त दुर्बुद्धि पुरुष और कहाँ अपने वास्तविक हितको देखनेका कार्य ? अतः माधव ! मेरे लिये जो हितकर हो, उसके लिये आप ही कृपापूर्वक आज्ञा करें ॥११४॥

उनके यों कहनेपर भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए और अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए महाभाग पुण्डरीकसे बोले ॥११५॥

श्रीभगवानने कहा - सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो; तुम मेरे साथ ही आ जाओ और मेरे ही समान रुप धारणकर मेरे नित्य - पार्षद हो जाओ ॥११६॥

सूतजी कहते हैं - भक्तवत्सल भगवान् श्रीधरके प्रेमपूर्वक यों कहनेपर देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उथीं और वहाँ आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी । उस समय इन्द्र आदि सभी देवता और सिद्धगण ' यह बहुत अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ ' - इस प्रकार कहकर साधुवाद देने लगे । सिद्ध, गन्धर्व और किंनरगण विशेषरुपसे यशोगान करने लगे । इधर सर्वदेववन्दित जगदीश्वर भगवान् वासुदेव पुण्डरीकको साथ ले, गरुडपर आरुढ़ हो, वैकुण्ठधामको चले गये । इसलिये विप्रवर भरद्वाज ! आप भी विष्णुभक्तिसे युक्त हो, अपने मन और प्राणोंको भगवानमें ही लगाकर उनके भक्तोंके हित - साधनमें तत्पर रहिये और यथाशक्ति सदा सुनते रहिये । विप्रवर ! अधिक क्या कहें, सर्वेश्वरेश्वर विश्वात्मा भगवान् विष्णु जिस उपायसे प्रसन्न हों, उसीको आप विस्तारपूर्वक करे । भगवान् नारायणसे विमुख हुए पुरुष हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय करनेसे भी पावन गतिको नहीं प्राप्त कर सकते ॥११७ - १२३॥

( भगवानसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये ) ' भगवान् विष्णो ! आप अजर, अमर, अद्वितीय, सबके ध्यान करनेयोग्य, आदि - अन्तसे रहित, सगुण - निर्गुण, स्थूलसूक्ष्म और अनुपम होकर भी उपमेय हैं । योगियोंको ज्ञानके द्वारा आपके स्वरुपका अनुभव होता है तथा आप इस त्रिभुवनके गुरु और परमेश्वर हैं; अतः मैं आपकी शरणमें आया हूँ ' ॥१२४॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' पुण्डरीक - नारद - संवाद ' विषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६४॥

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Last Updated : October 02, 2009

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