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अध्याय ५६

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ५६

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


राजा बोले - ब्रह्मन् ! अब मैं शार्ङ्गधनुषधारी देवदेव नरसिंहके स्थापनकी समस्त उत्तम विधिको सुनना चाहता हूँ ॥१॥

श्रीमार्कण्डेयजी बोले - भूपाल ! देवदेवेश्वर चक्रपाणि भगवान् विष्णुके स्थापनकी पुण्यदायिनी विधि सुनो; मैं शास्त्रके अनुसार उसका वर्णन कर रहा हूँ । पृथिवीपते ! जो भी इस लोकमें भगवान् विष्णुकी स्थापना करना चाहे, उसको चाहिये कि वह पहले स्थिर - संज्ञक नक्षत्रोंमे भूमिशोधनका कार्य प्रारम्भ करे । एक पुरुषके बराबर अर्थात् साढ़े तीन हाथ अथवा दो हाथ नीचेतक नींव खोदकर उसमें जलसे भीगी हुई कंकड़ और बालूसहित शुद्ध मिट्टी भर दे । राजन् ! फिर उसे ही आधार समझकर उसके ऊपर अपनी शक्तिके अनुसार पत्थर, ईंट अथवा मिट्टीसे गृहनिर्माण - विद्यामें कुशल कारीगरोंके द्वारा मन्दिर तैयार कराये । वह मन्दिर चारों ओरसे बराबर और चौकोर हो । उसकी दीवार पत्थरकी हो तो बहुत उत्तम; पत्थर न मिलनेपर ईंटोंकी ही दीवार बनवा ले । यदि ईंटे भी न मिल सकें तो मिट्टीकी ही भींत उठा ले । मन्दिर बहुत ही सुन्दर हो और उसका दरवाजा पूर्वकी ओर होना चाहिये । उस मन्दिरमें अच्छी जातिवाले काठके कंभे लगे हों और उनमें चित्रकला जाननेवाले शिल्पियोंके द्वारा फलयुक्त वृक्ष, कुमुद तथा कमलदल चित्रित कराने चाहिये ॥२ - ७ १/२॥

नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार जिसमें सुन्दर किवाड़ लगे हों और जिसका द्वार पूर्व दिशाकी ओर हो - ऐसा बेल - बूटोंसे भलीभाँति चित्रित भगवानका परम सुहावना मन्दिर बनवाकर बुद्धिमान् एवं हष्टपुष्ट शरीरवाले पुरुषके द्वारा विश्वकर्मकी बतायी हुई पद्धतिके अनुसार पुराणोक्त दिव्य प्रतिमाका निर्माण कराये । जो कारीगर अत्यन्त बूढ़ा या बालक अथवा कोढ़ आदि रोगोंसे दूषित या पुराना रोगी हो, उससे भगवत्प्रतिमाका निर्माण नहीं कराना चाहिये । प्रतिमाका मुख सौम्य ( प्रसन्न ) तथा कान, नाक और नेत्र आदि अङ्ग सुढार होने चाहिये । उसकी दृष्टि न तो बहुत नीची हो, न बहुत ऊँची हो और न तिरछी ही हो । विद्वान् पुरुष ऐसी प्रतिमा बनवाये, जिसकी दृष्टि सम हो और जिसके नेत्र कमलदलके समान विशाल हों । भौंहे, ललाट और कपोल सुन्दर हों, उसका समस्त विग्रह सुडौल और सौम्य हो । उसके दोनों ओठ लाल हों, ठोढ़ी ( अधरके नीचेका भाग ) मनोहर तथा कण्ठ सुन्दर हो । प्रतिमाकी भुजाएँ चार होनी चाहिये - दो भुजाएँ और दो उपभुजाएँ । उनमेंसे दाहिनी उपभुजाके हाथमें सूर्यके समान आकारवाला चक्र धारण कराना चाहिये । चक्रकी नाभिके चारों ओर दिव्य अरे हों और उनके भी ऊपर सब ओरसे नेमि ( हाल ) लगी हो । बायीं उपभुजाके हाथमें चन्द्रमाके समान श्वेत कान्तिमय पाञ्चजन्य नामक शंख देना चाहिये, जो दैत्योंके मदको चूर्ण करनेवाला और कल्याणप्रद है ॥८ - १५॥

उस दिव्य भगवत्प्रतिमाके कण्ठमें सुन्दर हार पहनाया गया हो, गलेमें त्रिवली - चिह्न हो, स्तनभाग सुन्दर, वक्षः स्थल रुचिर और उदर मनोहर होना चाहिये । सम्पूर्ण अङ्ग बराबर और सुन्दर हों । वह प्रतिमा अपना बायाँ हाथ कमरपर रखे हो और दाहिनेमें कमल धारण किये हो । बाहुओंमें एवं दिव्यं जान पड़ती हो । उसका कटिभाग ( निताम्ब ), जाँघें और पिडंलियाँ मनोहर हों, वह क्रमसे मेखला और पीतवस्त्रसे विभूषित हो । नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार भगवत्प्रितामाका निर्मण कराकर उसके बनानेवाले शिल्पियोंको सुवर्ण - दान एवं वत्र - दानके द्वारा सम्मानित क्लरके विद्वान पुरुषं पूर्व पक्षमें शुभ समयपर उस प्रतिमाको स्थपना कओ ॥१६ - १९॥

मन्दिरके सामने एक यज्ञमण्डप बनवाये । उसमें चारों ओर एक - एकके क्रमसे चार दरवाजे हों और सारा मण्डप चार तोरणों ( बड़े - बड़े फाटकों ) - से धिरा हो । उसमें सप्तधान्यके अङ्कुर उगे हों तथा शंख और भेरी आदि बाजे बजते हों । विद्वानोंके द्वारा छत्तीस घड़े जलसे उस प्रतिमाका अभीषेक कराकर उसके साथ वेदोंके पारगामी ब्राह्मणोंको साथमे लिये उक्त मण्डपमें प्रवेश करे और फिर पञ्चगव्योंसे पृथक - पृथक स्त्रान कराये । इसी प्रकार गर्म जलसे नहलाकर फिर ठंडे जलसे स्त्रान कराये । तत्पश्चात्, हल्दी और कुङ्कुम आदिका तथा चन्दनोंका उसपर लेप करे, फिर फूलोंकी मालाओंसे विभूषितकर उसे वस्त्र धारण करा दे और पुण्याहवाचन करके वैदिक ऋचाओंसे उच्चारणपूर्वक जलसे प्रोक्षित कर भक्त ब्राह्मणोद्वारा उस भगवद्विग्रहको नहलाये । तत्पश्चात् शंख, भेरी आदि बाजे बजाते हुए उसे नदी जलमें रखकर सात या तीन दिनोंतक उसे वहाँ रहनेल ए अथवा किसी निर्मल जलाशय या शुद्ध सरोवरमें रखकर उसकी रक्षा करे । नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार भवान् जलाधिवास कराके ब्राह्मणोंद्वारा उनको उठवाये ओरे पालकी आदिम्कें चढ़ाकर पूर्ववत् उन्हें माला आदिसे विभूषित करे । तदनन्यार नगरोंकी ध्वनि और वेदमन्त्रोंके गम्भीर घोषके साथ भगवानको गम्भीर घोषके साथ भगवानको वहाँसे ले आये और कमलाकार बने हुए शुद्ध मण्डपमें रखे । वहाँ पुनः स्त्रान कराके विष्णुभक्तोंद्वारा उसका श्रृङ्गार कराये ॥२० - २८॥

इसके बाद सोलह ऋत्विज ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक भोजन कराये । उनमेंसे चार ब्राह्मणोंको तो वहाँ वेद - पुराणादिका स्वाध्याय ( पाठ ) करना चाहिये, चार विप्रोंको उस भगवद्विग्रहकी रक्षामें संलग्न रहना चाहिये तथा चार विद्वानोंको यज्ञमण्डपके भीतर चारों दिशाओंमें हवन करना चाहिये । राजन् ! फिर एक ब्राह्मणके द्वारा फूल, अक्षत और अन्नसे समस्त दिशाओंमें बलि अर्पित कराये । यह बलि इन्द्रादि देवताओंकी प्रसन्नताके लिये होती है । प्रत्येक दिशाके अधिपतिको ' इन्द्रः प्रीयताम् ' इत्यादि रुपसे उसके नामोच्चारणपूर्वक ही बलि दे । सायंकाल, आधी रात, उषः काल तथा सूर्योदयके समय प्रत्येक दिक्पालको बलि अर्पित करनी चाहिये । इसके बाद मातृकागणोंको बलि और ब्राह्मणोंको उपहार दे । राजन् ! इसके पश्चात यजमानको चाहिये कि भगवान् विष्णुके मन्दिरमें एक ओर बैठकर एकाग्रचित्तसे बार - बार पुरुषसूक्तका जप करे । फिर पूरे एक दिन - रात उपवास करके शुभ लग्नमें वह बुद्धिमान् पुरुष ब्राह्मणोंको साथ ले मण्डपमें, जहाँ प्रतिमा रखी गयी हो, उस द्वारसे मण्डपके भीतर प्रवेश करे और ब्राह्मणोंके साथ देवसूक्तका पाठ करते हुए भगवत्प्रतिमाका उपस्थान करके उसे मन्दिरमें लाये और विष्णुसूक्त अथवा पवमानसूक्तका पाठ करते हुए उसे वहाँ दृढ़तापूर्वक स्थापित करे । तत्पश्चात् आचार्य कुशयुक्त जलसे उन देवदेवेश्वर भगवानका अभिषेक करे ॥२९ - ३५॥

फिर भगवानके सम्मुख अग्निस्थापन करे । अग्निके चारों ओर यत्नपूर्वक कुशास्तरण करके गायत्री और विष्णुमन्त्रोंद्वारा जातकर्मादि संस्कारकी सिद्धिके निमित्त हवन करे । आचार्यको चाहिये कि प्रत्येक क्रियामें चार - चार बार घीकी आहुति दे तथा अस्त्रमन्त्र ( अस्त्राय फट् ) बोलकर दिग्बन्ध कराये । ' ॐ त्रातारमिन्द्रम् ० ' इत्यादि मन्त्र ( शु० यजु० २० / ५० ) - से अग्निवेदीपर पूर्वकी और घीकी आहुति दे । ' परो दिवा० ' इत्यादि मन्त्र ( शु० यजु० १७ / २९ ) - से दक्षिण दिशामें और ' निषसाद० ' इत्यादि मन्त्र ( शु० यजु० १० / २७ ) - से पश्चिममें घृतका हवन करे । हे नृप ! ' या ते रुद्र० ' ( शु० यजु० १६ / २ ) - इस मन्त्रसे उत्तर दिशामें और ' परो मात्रया० ' ( ऋग्वेद ७ / ६ / ९९ ) इत्यादि दो सूक्तोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंमें घीकी आहुति दे । इस प्रकार विधिवत् हवन करके ' यदस्या० ' ( शु० यजु० २३ / २८ ) इस मन्त्रका जप करे घीसे ' स्विष्टकृत् ' संज्ञक होम करे । तदनन्तर ऋत्विजोंको उनके सम्मानके अनुकूल सादर दक्षिणा दे । इसके बाद यजमान आचार्यको दो वस्त्र, दो सुवर्णमय कुण्डल और सोनेकी अंगूठी दे तथा यदि सामर्थ्य हो तो इसके अतिरिक्त भी सुवर्णदान करे ॥३६ - ४१॥

फिर विद्वान् पुरुष यथासम्भव एक हजार आठ या एक सौ आठ अथवा इक्वीस घड़े जलसे भगवानको स्नान कराये । उस समय शंख और दुन्दुभि आदि बाजे बजते रहें, वेदमन्त्रोंका घोष और मङ्गलपाठ होता रहे । अपनी शक्तिके अनुसार जिनपर जौ आदिके अङ्कुर निकले हों, ऐसे जौ और व्रीहि ( चावल ) - से भरे पात्रोंद्वारा तथा दीप, यष्टि ( छड़ी ), पताका, छत्र, चँवर, तोरण आदि सामग्रियोंके साथ स्नान - विधि पूर्ण कराके वहाँ भी ब्राह्मणोंको यथाशक्ति दक्षिणा दे । राजन् ! इस प्रकार जो भगवान् विष्णुकी प्रतिष्ठा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और मृत्युके पश्चात् अपनेसहित इक्वीस पीढ़ीके पितरोंको साथ ले, सब प्रकारके आभूषणोंसे भूषित एवं विचित्र विमानपर आरुढ हो, क्रमशः इन्द्रादि लोकोंमें विशेष सम्मान प्राप्त करता है तथा अपने बन्धुजनोंको उन लोकोंमें रखकर स्वयं विष्णुलोकमें जाकर प्रतिष्ठित होता है । फिर वहाँ ही भगवत्तत्त्वका ज्ञान प्राप्तकर वह विष्णुस्वरुपमें लीन हो जाता है ॥४२ - ४७ १/२॥

राजन् ! इस प्रकार तुमसे मैंने यह प्रतिष्ठा - विधि बतायी । इसका पाठ और श्रवण करनेवाले लोगोंके सब पाप दूर हो जाते हैं । नरनाथ ! जब मनुष्य इस पूर्वोक्त विधिसे पृथ्वीपर भगवान् नृसिंहकी स्थापना कर लेता है तब मृत्युके बाद वह भगवान विष्णुके उस नित्यधामको प्राप्त होता है, जहाँ रहकर वह पुनः संसारमें नहीं लौटता ॥४८ - ५०॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' प्रतिष्ठाविधि ' नामक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५६॥

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Last Updated : October 02, 2009

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