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अध्याय ४४

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ४४

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


मार्कण्डेयजी बोले - तदनन्तर प्रह्लादको [ कुशलपूर्वक समुद्रसे ] लौटा देखकर, जिन्होंने उन्हें महासागरसे डाला था, वे दैत्य बड़े विस्मित हुए और उन्होंने तुरंत यह समाचार दैत्यराज हिरण्यकशिपुको दिया । उन्हें स्वस्थ लौटा सुन दैत्यराज विस्मयसे व्याकुल हो उठा और क्रोधवश मृत्युके अधीन होकर बोला - ' उसे यहाँ बुला लाओ ।' असुरोंके द्वारा बुरी तरहसे पकड़कर लाये जानेपर दिव्यदृष्टिवाले प्रह्लादने सिंहासनपर बैठे हुए दैत्यराज हिरण्यकशिपुको देखा । उसकी मृत्यु निकट थी, उसका तेज बहुत बढ़ा हुआ था । उसके मृत्यु निकट थी, उसका तेज बहुत बढ़ा हुआ था । उसके आभूषण नीलप्रभायुक्त माणिक्योंकी कान्तिसे आच्छन्न थे, अतएव वह धूमयुक्त फैली हुई अग्निके समान शोभित हो रहा था । वह ऊँचे सिंहासन - मञ्चपर विराजमान था और उसे मेघके समान काले दाढ़ोंके कारण विकराल, अत्यन्त भयानक, कुमार्गदर्शी एवं यमदूतोंके समान क्रूर दैत्य घेरे हुए थे ॥१ - ५॥

प्रह्लादजीने दूरसे ही हाथ जोड़कर पिताको प्रणाम किया और खड़े हो गये । तब मृत्युके निकट पहुँचनेवालेकी भाँति अकारण ही क्रोध करनेवाले उस दुष्टने भगवद्भक्त पुत्रको उच्चस्वरसे डाँटते हुए कहा - ' अरे मूर्ख ! तू मेरा यह अन्तिम और अटल वचन सुन; इसके बाद मैं तुझस्से कुछ न कहूँगा; इसे सुनकर तेरी जैसी इच्छा हो, वही करना ।' यह कहकर उसने शीघ्र ही चन्द्रहास नामक अपनी अद्भुत तलवार खींच ली । उस समय सब लोग उसकी ओर आश्चर्यपूर्वक देखने लगे । उसने तलवार चलाते हुए पुनः प्रह्लादसे कहा - ' रे मूढ़ ! तेरा विष्णु कहाँ है ? आज वह तेरी रक्षा करे ! तूने कहा था कि वह सर्वत्र है । फिर इस खंभेमें क्यों नहीं दिखायी देता ? यदि तेरे विष्णुको इस खंभेके भीतर देख लूँगा, तब तो तुझे नहीं मारुँगा; यदि ऐसा न हुआ तो इस तलवारसे तेरे दो टुकड़े कर दिये जायँगे ' ॥६ - १० १/२॥

प्रह्लादने भी ऐसी बात देखकर उन परमेश्वरका ध्यान किया और पहले कहे हुए वचनको याद करके हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम किया । इतनेमें ही दैत्यनन्दन प्रह्लादने देखा कि वह दर्पणके समान स्वच्छ खंभा, जो अभीतक खड़ा था, दैत्यराजकी तलवारके आघातसे फट पड़ा तथा उसके भीतर अनेक योजन विस्तारवाला, अत्यन्त रौद्र एवं महाकाय नरसिंहरुप दिखायी दिया, जो दानवोंको भयभीत करनेवाला था । उसके बड़े - बड़े नेत्र, विशाल मुख, बड़ी - बड़ी दाढ़ें और लंबी - लंबी भुजाएँ थीं । उसके नख बहुत बड़े और पैर विशाल थे । उसका मुख कालाग्निके समान देदीप्यमान था, जबड़े कानतक फैले हुए थे और वह बहुत भयानक दिखायी देता था ॥११ - १५॥

इस प्रकार नरसिंहरुप धारणकर त्रिविक्रम भगवान् विष्णु खंभेके भीतरसे निकल पड़े और लगे बड़े जोर जोरसे दहाड़ने । नरेश्वर ! यह गर्जना सुनकर दैत्योंने भगवान् नरसिंहको घेर लिया । तब उन्होंने अपने पौरुष एवं पराक्रमसे उन सबको मौतके घाट उतारकर हिरण्यकशिपुका दिव्य सभाभवन नष्ट कर दिया । राजन् ! उस समय जिन महाभटोंने निकट आकर नृसिंहजीको रोका, उन सबको उन्होंने क्षणभरमें मार डाला । तत्पश्चात् प्रतापी नरसिंहभगवानपर असुर सैनिक अस्त्र - शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे ॥१६ - १९॥

भगवान् नृसिंहने क्षणभरमें ही अपने तेजसे समस्त दैत्यसेनाका संहार कर दिया और दिशाओंको अपनी गर्जनासे गुँजाते हुए वे भयंकर सिंहनाद करने लगे । उपर्युक्त दैत्योंको मरा जान महासुर हिरण्यकशिपुने पुनः हाथमें शस्त्र लिये हुए अट्ठासी हजार असुर सैनिकोंको नृसिंहदेवसे लड़नेकी आज्ञा दी । उन असुरोंने भी आकर भगवानको सब ओरसे घेर लिया । तब युद्धमें लड़ते हुए भगवान् उन सभीका वध करके पुनः सिंहनाद करने लगे । उन्होंने हिरण्यकशिपुके दूसरे सुन्दर सभा भवनको भी पुनः नष्ट कर दिया । राजन् ! अपने भेजे हुए इन असुरोंको भी मारा गया जान क्रोधसे लाल - लाल आँखें करके महाबली हिरण्यकशिपु स्वयं बाहर निकला और बलाभिमानी दानवोंसे बोला - ' अरे, इसे पकड़ो - पकड़ो; मार डालो, मार डालो । इस प्रकार कहते हुए हिरण्यकशिपुके सामने ही युद्ध करनेवाले नृसिंह गर्जने लगे । तब मरनेसे बचे हुए दैत्य दसों दिशाओंमें वेगपूर्वक भाग चले ॥२० - २६॥

जबतक सूर्यदेव अस्ताचलको नहीं चले गये, तबतक भगवान् नृसिंह अपने साथ युद्ध करनेवाले हजारों करोड़ दैत्योंका संहार करते रहे । राजन् ! किंतु जब सूर्य डूबने लगे, तब महाबली भगवान् नृसिंहने अस्त्र - शस्त्रोंकी वर्षा करनेमें कुशल हिरण्यकशिपुको बड़े वेगसे बलपूर्वक पकड़ लिया । फिर संध्याके समय घरके दरवाजेपर बैठकर, उस वज्रके समान कठोर विशाल वक्षवाले शत्रु हिरण्यकशिपुको अपनी जाँघोंपर गिराकर जब भगवान् नृसिंह रोषपूर्वक नखोंसे पत्तेकी भाँति उसे विदीर्ण करने लगे, तब उस महान् असुरने जीवनसे निराश होकर कहा - ॥२६ - २९॥

' हाय ! युद्धके समय देवराज इन्द्रके वाहन गजराज ऐरावतके मूसल - जैसे दाँत जहाँ टकराकर टुकड़े - टुकड़े हो गये थे, जहाँ पिनाकपाणि महादेवके फरसेकी तीखी धार भी कुण्ठित हो गयी थी, वही मेरा वक्षःस्थल इस समय नृसिंहके नखोंद्वारा फाड़ा जा रहा है । सच है, जब भाग्य खोटा हो जाता है, तब तिनका भी प्रायः अनादर करने लगता है ' ॥३०॥

दैत्यराज हिरण्यकशिपु इस प्रकार कह ही रहा था कि भगवान् नृसिंहने उसका हदयदेश विदीर्ण कर दिया - ठीक उसी तरह, जैसे हाथी कमलके पत्तेको अनायास ही छिन्न - भिन्न कर देता है । उसके शरीरके दोनों टुकड़े महात्मा नृसिंहके नखोंके छेदमें घुसकर छिप गये । राजन् ! तब भगवान् सब ओर देखकर अत्यन्त विस्मित हो सोचने लगे - 'अहो ! वह दुष्ट कहाँ चला गया ? जान पड़ता है, मेरा यह सारा उद्योग ही व्यर्थ हो गया ' ॥३१ - ३२ १/२॥

राजेन्द्र ! महाबली नृसिंह इस प्रकार चिन्तामें पड़कर अपने दोनों हाथोंको बड़े जोरसे झाड़ने लगे । राजन् ! फिर तो वे दोनों टुकड़े उन भगवानके नख - छिद्रसे निकलकर भूमिपर गिर पड़े, वे कुचलकर धूलिकणके समान हो गये थे । यह देख रोषहीन हो वे परमेश्वर हँसने लगे । इसी समय ब्रह्मादि सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हो वहाँ आये और भगवन् नरसिंहके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे । पास आकर उन सबने उन परम प्रभु नरसिंहदेवका पूजन किया ॥३३ - ३६॥

तदनन्तर ब्रह्माजीने प्रह्लादको दैत्योंके राजाके पदपर अभिषिक्त किया । उस समय समस्त प्राणियोंका धर्ममें अनुराग हो गया । सम्पूर्ण देवताओंसहित भगवान् विष्णुने इन्द्रको स्वर्गके राज्यपर स्थापित किया । भगवान् नृसिंह भी सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये श्रीशैलके शिखरपस जा पहुँचे । वहाँ देवताओंसे पूजित हो वे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए । वे भक्तोंका हित और अभक्तोंका नाश करनेके लिये वहीं रहने लगे ॥३७ - ३९॥

नृपश्रेष्ठ ! जो मनुष्य भगवान् नरसिंहके इस माहात्म्याको पढ़ता अथवा सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । नर हो या नारी - जो भी इस उत्तम आख्यानको सुनता है, वह दुष्टोंका सङ्ग करनेके दोषसे, दुःखसे, शोकसे एवं वैधव्यके कष्टसे छुटकारा पा जाता है । जो दुष्ट स्वभाववाला, दुराचारी, दुष्ट संतानवाला, दूषित कर्मोंका आचरण करनेवाला, अधर्मात्मा और विषयभोगी हो, वह मनुष्य भी इसका श्रवण करनेसे शुद्ध हो जाता है ॥४० - ४२॥

मनुष्यलोकपूजित देवेश्वर भगवान् हरिने पूर्वकालमें चराचर जगतके हितके लिये अपनी मायासे भयानक आकारवाला नरसिंहरुप धारण करके दुःखदायी दैत्य हिरण्यकशिपुको नखोंद्वारा नष्ट कर दिया था ॥४३॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' नरसिंहका प्रादुर्भाव ' नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४४॥

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Last Updated : September 22, 2009

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