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अध्याय ५५

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ५५

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


राजा बोले - मार्कण्डेयजी ! पूर्वकालमें राजा बलिके यज्ञमें भगवान् वामनने जो दैत्यगुरु शुक्राचार्यकी आँख छेद डाली थी, उसे उन्होंने पुनः भगवानकी स्तुतिद्वारा किस प्रकार प्राप्त किया ? ॥१॥

मार्कण्डेयजी बोले - वामनजीके द्वारा जब आँख छेद दी गयी, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्यजीने बहुत तीर्थोंमें भ्रमण किया । फिर एक जगह गङ्गाजीके जलमें खड़े हो भगवान् वामनकी पूजा की और अपनी बाँह ऊपर उठाकर शङ्ख - चक्र - गदाधारी सनातन देवेश्वर भगवान् नरसिंहका मन - ही - मन ध्यान करते हुए वे उनकी स्तुति करने लगे ॥२ - ३॥

शुक्राचार्यजी बोले - मैं सम्पूर्ण विश्वके स्वामी और श्रीविष्णुके अवतार उन देवदेव वामनजीको नमस्कार करता हूँ, जो बलिका अभिमान चूर्ण करनेवाले, परम शान्त, सनातन पुरुषोत्तम हैं । जो धीर हैं, शूर हैं, सबसे बड़े देवता हैं, शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले हैं, उन विशुद्ध एवं ज्ञानसम्पन्न भगवान् अच्युतको मैं नमस्कार करता हूँ । जो सर्वशक्तिमान् ,सर्वव्यापक और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, उन जरारहित, अनादिदेव भगवान् गरुडध्वजको मैं प्रणाम करता हूँ । देवता और असुर सदा ही जिन नारायणकी भक्तिपूर्वक स्तुति किया करते हैं, उन सर्वपूजित जगदगुरु भगवान् हषीकेशको मैं नमस्कार करता हूँ । यतिजन अपने अन्तः करणमें भावनाद्वारा स्थापित करके जिनके स्वरुपका सदा ध्यान करते रहते हैं, उन अतुलनीय एवं ज्योतिर्मय भगवान् नृसिंहको मैं प्रणाम करता हूँ । ब्रह्मा आदि देवतागण जिनके परमार्थ स्वरुपको भलीभाँति नहीं जानते, अतः जिनके अवताररुपोंका ही वे सदा पूजन किया करते हैं, उन भगवनको मैं नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने दुष्टोंका वध करके इसकी रक्षा की है तथा जिनमें ही यह सारा जगत् लीन हो जाता है, उन भगवान् जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ । भक्तजन जिनका सदा अर्चन करते हैं तथा जो भक्तोंके प्रेमी हैं, उन परम निर्मल, दिव्य कान्तिमय जगदीश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ । जो प्रसन्न होनेपर अपने भक्तोंको दुर्लभ वस्तु भी प्रदान करते हैं, उन सर्वसाक्षी सनातन विष्णुभगवानको मैं प्रणाम करता हूँ ॥४ - १२॥

श्रीमार्कण्डेयजी कहते हैं - राजन् ! पूर्वकालमें शुक्राचार्यजीके द्वारा इस प्रकर स्तुति की जानेपर शङ्ख - चक्र - गदाधारी भगवान् जगन्नाथ उनके समक्ष प्रकट हो गये । उस समय भगवान् नारायणने एक आँखवाले शुक्राचार्यजीसे कहा - ' ब्रह्मन् ! तुमने गङ्गातटपर किसलिये मेरा स्तवन किया है ? यह मुझसे बताओ ' ॥१३ - १४॥

शुक्राचार्यजी बोले - देवदेव ! मैंने पहले ( बलिके यज्ञमें ) आपका बहुत बड़ा अपराध किया है; उसी दोषको दूर करनेके लिये इस समय आपका स्तवन किया है ॥१५॥

श्रीभगवान् बोले - मुने ! मेरे प्रति किये गये अपराधसे ही तुम्हारा एक नेत्र नष्ट हो गया था । शुक्र ! इस समय तुम्हारे इस स्तवनसे मैं तुमपर संतुष्ट हूँ ॥१६॥

यह कहकर देवदेवेश्वर जनार्दनने हँसते हुए - से अपने पाञ्चजन्य शङ्खसे शुक्राचार्यके फूटे हुए नेत्रका स्पर्श किया । नृपश्रेष्ठ ! शाङ्गधन्वा देवदेव विष्णुके द्वारा शङ्खका स्पर्श कराये जाते ही शुक्राचार्यका वह नेत्र पहलेकी भाँति ही निर्मल हो गया । इस प्रकार शुक्राचार्यको नेत्र देकर और उनसे पूजित होकर भगवान् लक्ष्मीपति तुरंत अन्तर्धान हो गये और पूर्वकालमें मुनिवर महात्मा शुक्राचार्यने देवेश्वर भगवान् विष्णुकी कृपासे अपना नेत्र प्राप्त कर लिया - यह प्रसङ्ग तुम्हारे प्रश्नानुसार मैंने सुना दिया । अब तुम्हें मैं और क्या सुनाऊँ ? तुम्हारे मनमें और भी यदि कुछ पूछनेकी इच्छा हो तो मुझसे प्रश्न करो ॥१७ - २०॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' शुक्राचार्यको वरप्रदान ' नामक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५५॥

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Last Updated : October 02, 2009

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