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अध्याय ३९

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ३९

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


मार्कण्डेयजी कहते हैं - नरेश्वर ! इसके बाद मैं भगवान् विष्णुके ' वराह ' नामक पावन अवतारका वर्णन करुँगा - तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥१॥

सत्तम ! ब्रह्माजीका दिन बीत जानेपर जब अवान्तर प्रलय होता है, तब सम्पूर्ण त्रिलोकीको व्याप्त करके केवल जल - ही - जल रह जाता है । राजेन्द्र ! उस समय त्रिभुवनमें जो भी प्राणी हैं, उन सबका ग्रास करके ब्रह्मस्वरुप जगदीश्वर भगवान् विष्णु उस एकार्णव जलके भीतर सहस्त्रों फणोंसे सुशोभित शेषनागकी शय्यापर सहस्त्र युगोंतक चलनेवाली रात्रिमें शयन करते हैं । पूर्वकालमें कश्यपजीसे दितिके पुत्ररुपमें ' हिरण्याक्ष ' नामक महान् दैत्य उत्पन्न हुआ था, ऐसी बात हमने सुनी है । वह महान् बलवान् और पराक्रमी था । वह दैत्य पातालमें निवास करता था और स्वर्गके देवताओंपर आक्रमण करके उनकी पुरीपर घेरा डाल देता था । इतना ही नहीं, वह पृथ्वीपर यज्ञ करनेवाले मनुष्योंका भी अपकार करनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहता था ॥२ - ६॥

एक बार उसने सोचा - ' मर्त्यलोकमें रहनेवाले पुरुष पृथ्वीपर रहकर देवताओंका यजन करेंगे, इससे उनका बल, वीर्य और तेज बढ़ जायगा ।' यह सोचकर महान् असुर हिरण्याक्षने ब्रह्माजीद्वारा सृष्टि - रचना की जानेपर उसे धारण करनेके लिये भूमिकी जो धारणा - शक्ति थी, उसे लेकर जलके भीतर - ही - भीतर रसातलमें चला गया । आधारशक्तिसे रहित होकर यह पृथ्वी भी रसातलमें ही चली गयी ॥७ - ९॥

योगनिद्राका अन्त होनेपर जब सर्वात्मा श्रीहरिने विचार किया कि ' पृथ्वी कहाँ है ?', तब उन्होंने योगबलसे यह जान लिया कि ' वह रसातलको चली गयी है ' । नराधिप ! तब उन्होंने वेदमय लम्बा - चौड़ा दिव्य वराह - शरीर धारण किया, जिसके चारों वेद ही चरण थे, यूप ( पशु - बन्धनके लिये बना हुआ काष्ठस्तम्भ ) ही दाढ़ था और चिति ( श्येनचित् आदि ) मुख । मुखमण्डल स्थूल और छाती चौ़ड़ी थी, भुजाएँ बड़ी - बड़ी थीं, अग्नि ही जिह्वा और स्रुक् ( स्त्रुवा ) ही थूथुन थी । चन्द्रमा और सूर्य विशाल नेत्र थे, पूर्त ( बावली आदि खुदवाना ) और इष्ट - धर्म ( यज्ञ - यागादि ) उनके कान थे, साम ही स्वर था । प्राग्वंश ( पत्नीशाला या यजमान - गृह ) ही शरीर था, हवि ही नासिका था, कुश - दर्भ ही रोमावलियाँ थे । इस प्रकार उनका सम्पूर्ण शरीर वेदमय था, पवित्र वैदिक सूक्त ही उनके बड़े - बड़े अयाल थे । नक्षत्र और तारे उनके हार थे तथा प्रलयकालीन आवर्त ( भँवरें ) ही उनके लिये भूषणका काम दे रहे थे ॥१० - १४१/२॥

नृपश्रेष्ठ ! भगवान् विष्णुने ऐसे वाराहरुपको धारणकर रसातलमें प्रवेश किया । उस समय सनकादि योगीजन उनकी स्तुति करते थे । वहाँ जाकर भगवानने युद्धमें हिरण्याक्षको मारकर उसपर विजय पायी और अपनी दाढ़ोंके अग्रभागसे पृथ्वीको स्थापित किया । पृथ्वीको स्थिर करनेके पश्चात् उसपर यथास्थान पर्वतोंका संनिवेश किया । तदनन्तर वैष्णवोंके हितके लिये कोकामुख तीर्थमें वाराहरुपका त्याग किया । वह वाराह - क्षेत्र उत्तम एवं गुप्त तीर्थ है । फिर ब्रह्माजीका रुप धारणकर उन्होंने सृष्टि - रचना की । इस प्रकार भगवान् विष्णु युग - युगमें अवतार लेकर सम्पूर्ण जगतकी रक्षा करते हैं । फिर वे जनार्दन रुद्ररुप धारणकर अन्तकालमें समस्त लोकोंका संहार करते हैं ॥१५ - १९॥

जो मनुष्य वेदान्तवेद्य भगवान् विष्णुकी इस कथाको श्रवण करता है, वह भगवान् यज्ञमूर्तिमें अपनी सुदृढ़ बुद्धि लगाकर समस्त पापोंसे मुक्त हो, उन भगवान् हरिको ही प्राप्त करता है ॥२०॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' वाराहवतार ' नामक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३९॥

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Last Updated : September 18, 2009

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