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अध्याय २८

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय २८

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


भरद्वाजजीने पूछा - शांतनुको पहले देवताओंके रथपर चढ़नेकी शक्ति क्यों नहीं थी ? और फिर उनमें वह शक्ति कैसे आ गयी ? इसे आप हमें बतलायें ॥१॥

सूतजी बोले - भरद्वाजजी ! यह पुराना इतिहास है; इसे मैं कहता हूँ, सुनिये । शांतनुका चरित्र मनुष्योंके समस्त पापोंका नाश करनेवाला है । शांतनु पूर्वकालमें नृसिंहरुपधारी भगवान् विष्णुके भक्त थे और नारदजीकी बतायी हुई विधिसे भगवान् लक्ष्मीपतिकी सदा पूजा किया करते थे । विप्रवर ! एक बार राजा शांतनु भूलसे श्रीनृसिंहदेवके निर्माल्यको लाँघ गये, अतः वे उसी क्षण देवताओंके दिये हुए उत्तम रथपर चढ़नेमें असमर्थ हो गये । तब वे सोचने लगे - ' यह क्या बात है ? इस रथपर चढ़नेमें हमारी गति सहसा कुण्ठित क्यों हो गयी ?' कहते हैं, इस प्रकार दुःखी होकर सोचते हुए उन राजाके पास नारदजी आये और उन्होंने राजा शांतनुसे पूछा - ' राजन् ! तुम क्यों विषादमें डूबे हुए हो ? ' ॥२ - ६॥

राजाने कहा - ' नारदजी ! मेरी गति कुण्ठित कैसे हुई, इसका कारण मुझे ज्ञात नहीं हो रहा है, इसीसे मैं चिन्तित हूँ । ' उनके यों कहनेपर नारदजीने ध्यान लगाया और उसका कारण जानकर राजा शांतनुसे, जो विनीतभावसे वहाँ खड़े थे, कहा - ' राजन् ! अवश्य ही तुमने कहीं - न - कहीं भगवान् नृसिंहके निर्माल्यका लङ्घन किया है । इसीसे रथपर चढ़नेमें तुम्हारी गति अवरुद्ध हो गयी है । महाराज ! इसका कारण सुनो ॥७ - ९॥

' राजन् ! पूर्वकालकी बात है, अन्तर्वेदीमें कोई बड़ा बुद्धिमान् माली रहता था । उसका नाम था रवि । उसने तुलसीका बगीचा लगाया था और उसका नाम ' वृन्दावन ' रख दिया था । उसमें फूलोंके लिये सब ओर मल्लिका, मालती, जाती तथा बकुल ( मौलसिरी ) आदि नाना प्रकारके वृक्षोंके बाग सुंदर ढंगसे लगाये थे । उस वनकी चहारदीवारी बहुत ऊँची और चौड़ी बनवाकर, उसे अलङ्घनीय और दुर्गम करके भीतरकी भूमिपर उसने अपने रहनेके लिये घर बताया था । साधुशिरोमणे ! उसने ऐसा प्रबन्ध किया था कि घरमें प्रवेश करनेके बाद ही उस वाटिकाका द्वार प्राप्त हो सकता था, दूसरी ओरसे उसका मार्ग नहीं था ॥१० - १२१/२॥

' ऐसी व्यवस्था करके निवास करते हुए उस मालीका वह वृन्दावन फूलोंसे भरा रहता था और उसकी सुगन्धसे सारी दिशाएँ सुवासित होती रहती थीं । वह प्रतिदिन अपनी पत्नीके साथ फूलोंका संग्रह करके यथोचित मालाएँ तैयार करता था । उनमेंसे कुछ मालाएँ तो वह भगवान् नृसिंहको अर्पण कर देता था, कुछ ब्राह्मणोंको दे डालता था और कुछको बेचकर उससे अपना तथा पत्नी आदिका पालन - पोषण करता था । मालासे जो कुछ प्राप्त होता, उसीके द्वारा वह अपनी जीविका चलाता था ॥१३ / १५१/२॥

' कुछ कालके बाद वहाँ इन्द्रका पुत्र जयन्त प्रतिदिन रातमें स्वर्गसे अप्सराओंके साथ रथपर चढ़कर आने और फूलोंकी चोरी करने लगा । उस वनके पुष्पोंकी सुगन्धके लोभसे वह सारे फूल तोड़ लेता और लेकर चल देता था । जब प्रतिदिन फूलोंकी चोरी होने लगी, तब मालीको बड़ी चिन्ता हुई । उसने मन - ही - मन - सोचा - ' इस वनका कोई दूसरा द्वार तो है नहीं । चहारदीवारी भी इतनी ऊँची है कि वह लाँघी नहीं जा सकती । मनुष्योंकी ऐसी शक्ती मैं नहीं देखता कि इसे लाँघकर वे सारे फूल चुरा ले जानेमें समर्थ हों । फिर इन फूलोंके लुप्त होनेका क्या कारण है, आज अवश्य ही इसका पता लगाऊँगा । ' यह सोचकर वह बुद्धिमान् माली उस रातमें जागता हुआ बगीचेमें ही बैठा रहा । अन्य दीनोंकी भाँति उस दिन भी वह पुरुष आया और फूल लेकर चला गया ॥१६ - २०॥

' उसे देखकर मालाओंसे ही जीविका चलानेवाला वह माली उस उपवनमें बहुत ही दुःखी हुआ । तदनन्तर रातको नींद आनेपर उसने स्वप्नमें साक्षात् भगवान् नृसिंहको देखा तथा उन नृसिंहदेवका यह वचन भी सुना - ' पुत्र ! तुम शीघ्र ही फूलोंके बगीचेके समीप मेरा निर्माल्य लाकर छींट दो । उस दुष्ट इन्द्रपुत्रको रोकनेका कोई दूसरा उपाय नहीं ॥२१ - २२१/२॥

' बुद्धिमान् भगवान नृसिंहका यह वचन सुनकर माली जाग उठा और उसने निर्माल्य लाकर उनके कथनानुसार वहाँ छीट दिया । जयन्त भी पहलेके ही समान अलक्षित रथसे आया और उससे उतरकर फूल तोड़ने लगा । उसी समय अपना अनिष्ट करनेवाला इन्द्रपुत्र वहाँ भूमिपर पड़े हुए निर्माल्यको लाँघ गया । इससे उसमें रथपर चढ़नेकी शक्ति नहीं रह गयी । तब सारथिने उससे कहा - ' नृसिंहका निर्माल्य लाँघ जानेके कारण अब तुममें इस रथपर चढ़नेकी योग्यता नहीं रह गयी है । मैं तो स्वर्गलोकको लौटता हूँ, किंतु तुम यहाँ भूतलपर ही रहो; रथपर न चढ़ो ' ॥२३ - २७॥

' सारथिके इस प्रकार कहनेपर मतिमान् इन्द्रकुमारने उससे कहा - ' सारथे ! जिस कर्मसे यहाँ मेरे पापका निवारण हो, उसे बताकर तुम शीघ्र स्वर्गलोकको जाओ ' ॥२८१/२॥

सारथ बोला - ' कुरुक्षेत्रमें परशुरामजीका एक यज्ञ हो रहा है, जो बारह वर्षोंमे समाप्त होनेवाला है । उसमें जाकर तुम प्रतिदिन ब्राह्मणोंका जूठा साफ करो; इससे तुम्हारी शुद्धि होगी ।' यों कहकर सारथि देवसेवित स्वर्गलोकको चला गया ॥२९ - ३०॥

' इधर इन्द्रपुत्र जयन्त कुरुक्षेत्रमें सरस्वतीके तटपर आया और परशुरामजीके यज्ञमें ब्राह्मणोंकी जूठन साफ करने लगा । जब बारहवाँ वर्ष पूर्ण हुआ, तब ब्राह्मणोंने शङ्कित होकर उससे पूछा - ' महाभाग ! तुम कौन हो ? जो नित्य जूठन साफ करते हुए भी हमारे यज्ञमें भोजन नहीं करते । इससे हमारे मनमें महान् संदेह हो रहा हैं ।' उनके इस प्रकार पूछनेपर इन्द्रकुमार क्रमशः अपना सारा वृत्तान्त ठीक - ठीक बताकर तुरंत रथसे स्वर्गलोकको चला गया ॥३१ - ३३१/२॥

' इसलिये, हे भूपाल ! तुम भी परशुरामजीके द्वादशवार्षिक यज्ञमें आदरपूर्वक ब्राह्मणोंकी जूठन साफ करो । ब्राह्मणोसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो पापोंका अपहरण कर सके । महीपाल ! इस प्रकार प्रायश्चित्त कर लेनेपर तुम्हें देवताओंके दिये हुए रथपर चढ़नेकी शक्ति प्राप्त हो जायगी । महामते ! आजसे तुम भी श्रीनृसिंहदेवका तथा अन्य देवताओंके भी निर्माल्यका उल्लंघन न करना ' ॥३४ - ३७॥

नारदजीके ऐसा कहनेपर शांतनुने बारह वर्षोतक ब्राह्मणोंकी जूठन साफ की । इसके बाद वे शक्ति पाकर उस रथपर चढ़नेमें समर्थ हुए । विप्रवर ! इस प्रकार पूर्वकालमें राजाकी उस रथपर चढ़नेकी शक्ति जाती रही और फिर उक्त उपाय करनेसे उनमें पुनः वह शक्ति आ गयी ॥३८ - ३९॥

ब्रह्मन ! इस प्रकार मैंने निर्माल्य लाँघनेमें जो दोष है, वह बताया तथा ब्राह्मणोंका जूठा साफ करनेमें जो पुण्य है, उसका भी वर्णन किया । जो मनुष्य इस लोकमें पवित्र होकर, अपने चित्तको एकाग्र करके, भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका जूठा साफ करता है, वह पापबन्धनसे मुक्त हो स्वर्गमें निवास करत और गौओंके दानका फल भोगता है ॥४० - ४१॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणे ' शांतनुचरित्र ' नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२८॥

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Last Updated : July 25, 2009

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