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अध्याय ६०

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ६०

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीहारीत मुनि कहते हैं - इसके बाद अब मैं संन्यासियोंका सर्वोत्तम धर्म बताऊँगा, जिसका श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करके संन्यासी भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है । द्विजको चाहिये कि पूर्वोक्त रीतिसे वानप्रस्थ - आश्रममें रहते हुए तपस्याद्वारा पापोंको रीतिसे वानप्रस्थ - आश्रममें रहते हुए तपस्याद्वारा पापोंको भस्म करके, विधिपूर्वक संन्यास ले चौथे आश्रममें प्रवेश करे । पहले यत्नपूर्वक देवताओं, ऋषियों और अपने पितरोंके लिये दिव्य श्राद्ध - सामग्रीका दान करे; इसी प्रकार ऋषियों, मनुष्यों तथा अपने लिये भी श्राद्धीय वस्तुका दान करे । फीर वैश्वानर अथवा प्राजापत्य याग करके, मन्त्रपाठपूर्वक अपने अन्तः करणमें अग्निस्थापन करके संन्यासी हो, वहाँसे चला जाय । उस दिनसे पुत्र आदिके प्रति आसक्तिको और सुख - लोभ आदिको त्याग दे । पृथ्वीपर समस्त प्राणियोंको अभय देनेके निमित्त जलकी अञ्जलि दे । वेणु ( बाँस ) - का बना हुआ त्रिदण्ड धारण करे ,जो सुन्दर और त्वचायुक्त हो, उसके पोर बराबर हों, काली गौके बालोंकी रस्सीसे वह चार अमगुलतक लपेटा गया हो । अथवा वह दण्ड तीन गाँठोंसे युक्त हो, उसे जलसे पवित्र करके धारण करे । मन्त्रवेत्ता पुरुषको चाहिये कि वह मन्त्रपाठपूर्वक ही उस दण्डको दायें हाथमें ग्रहण करे ॥१ - ७॥

कौपीन ( लँगोटी ), चादर, जाड़ा दूर करनेवाली एक गुदड़ी तथा खड़ाऊँ - इन्हीं वस्तुओंको अपने पास रखे, अन्य वस्तुओंका संग्रह न करे । संन्यासीके ये ही चिह्न बताये गये हैं । इन वस्तुओंका धर्मतः संग्रह करके संन्यासी पुरुष उत्तम तीर्थमें जा, स्नान करके विधिवत् आचमन करे । स्त्रानके बाद भीगे वस्त्रके जलसे सूर्यदेवका मन्त्रपाठपूर्वक तर्पण करके उन्हें प्रणाम करे । फिर पूर्वाभिमुख बैठकर, मौन हो, तीन प्राणायाम - पूरक, कुम्भक और रेचक करे तथा यथाशक्ति गायत्रीका जप्त करके परब्रह्मका ध्यान करे । शरीरकी स्थिति ( रक्षा ) - के लिये प्रतिदिन भिक्षाटन करे । यतिको चाहिये कि संध्याके समय ब्राह्मणोंके घरोंपर भिक्षाके लिये भ्रमण करे ॥८ - १२॥

जितने अन्नकी उसे उस समय आवश्यकता हो, उतनी ही भिक्षा माँगे । फिर लौटकर उस भिक्षापात्रपर जलके छीटे देकर संयमी यति स्वयं भी आचमन करे । इसके बाद उस अन्नपर भी जलके छीटे देकर, उसे सूर्य आदि देवताओंको निवेदन कर, पत्तेके दोने या पत्तलमें रखकर, वह संन्यासी पुरुष मौनभावसे भोजन करे । वट, पीपल, जलकुम्भी और तिन्दुकके पत्तोंपर तथा कोविदार और करंजके पत्तोंपर भी कभी भोजन न करे । भोजन समाप्त करके मुँह - हाथ धो, आचमन करके, प्राणवायुको रोक, सूर्यदेवको प्रणाम करे । नैत्यिक नियमोंके बाद जितना दिन शेष रहे, उसे संन्यासी पुरुष जप, ध्यान और इतिहास - पाठ आदिके द्वारा व्यतीत करे । काँसेके पात्रमें भोजन करनेवाले सभी यति ' पलाश ' कहलाते हैं । यदि संन्यासी काँसेका पात्र रखे तो वह गृहस्थके ही समान हैं; क्योंकि गृहस्थका भी तो वैसा ही पात्र होता है । काँसेके पात्रमें भोजन करनेवाला यति समस्त पापोंका भागी होता है । यति जिस काष्ठ या मिट्टी आदिके पात्रमें एक बार भोजन कर चुका है, उसे धोकर पुनः उसमें मन्त्रपाठपूर्वक भोजन कर सकता है; उसका वह पात्र यज्ञ - पात्रोंके समान कभी दूषित नहीं होता । इसके बाद यथासमय संध्याकलिक नियमोंका पालन करके देवमन्दिर आदिमें रात्रि व्यतीत करे और अपने हदय - कमलके आसनपर भगवान् नारायणका ध्यान करे । यों करनेसे वह यति उस परमपदको प्राप्त होता है, जहाँ जाकर पुनः लौटना नहीं पड़ता ॥१३ - १७॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' यतिधर्मका वर्णन ' नामक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६०॥

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Last Updated : October 02, 2009

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