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अध्याय ६३

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ६३

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


सहस्त्रानीक बोले - ब्रह्मन् ! इस समय आपने देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुके पूजनकी यह उत्तम वैदिक विधि बतायी, वह बिलकुल ठीक है; परंतु ब्रह्मन् ! इस विधिसे तो केवल वेदज्ञ पुरुष ही मधुसूदनकी पूजा कर सकते हैं, दूसरे लोग नहीं; इसलिये आप ऐसी कोई विधि बताइये, जो सबके लिये उपयोगी हो ॥१ - २॥

श्रीमार्कण्डेयजी बोले - मनुष्यको चाहिये कि वह अष्टाक्षर मन्त्रसे निरामय देवेश्वर भगवान् नरसिंहका गन्ध पुष्प आदि उपचारोंद्वारा प्रतिदिन पूजन करे । राजन् ! यह अष्टाक्षर मन्त्र समस्त पापोंको हर लेनेवाला, समस्त यज्ञोंका फल देनेवाला, सब प्रकारकी शान्ति प्रदान करनेवाला एवं परम शुभ है । मन्त्र यों हैं - ' ॐ नमो नारायणाय ।' इसी मन्त्रसे गन्ध आदि समस्त सामग्रियोंको अर्पित करे । इस मन्त्रसे पूजा करनेपर भगवान् विष्णु तत्काल प्रसन्न होते हैं । मनुष्यके लिये अन्य बहुत - से मन्त्रों और व्रतोंकी क्या आवश्यकता है । केवल ' ॐ नमो नारायणाय ' - यह मन्त्र ही समस्त मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है । जो स्त्रानादिसे पवित्र होकर एकाग्रचितसे इस मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है ॥३ - ७॥

नरेश्वर ! शान्तभावसे भगवान् विष्णुका पूजन करना ही सब तीर्थों और यज्ञोंका फल हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थोंसे बढ़कर पवित्र है । अतः नरेश्वर ! तुम प्रतिमा आदिमें विधिपूर्वक भगवानका पूजन करो और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान दो । नृपश्रेष्ठ ! यों करनेसे भक्त पुरुष उस तेजोमय वैष्णवधामको प्राप्त होते है, जिसकी मुमुक्षुलोग सदा अभिलाषा किया करते हैं । राजन् ! पूर्वकालमें इन्द्र धर्मके विपरीत आच रण करके तृणबिन्दु मुनिके शापसे स्त्री - योनिको प्राप्त हो गये थे; परंतु इस अष्टाधर मन्त्रका जप करनेसे वे पुनः उस योनिसे मुक्त हो गये ॥८ - १०॥

सहस्त्रानीक बोले - भूमिदेव ! देवराज इन्द्रको जो पाप एवं शापसे छुटकारा मिला, उस प्रसङ्गका वर्णन कीजिये । उन्होंने कौन - सा अधर्म किया था और किस कारण स्त्रीयोनिको प्राप्त हुए - वह भी बताइये ॥११॥

श्रीमार्कण्डेयजीने कहा - राजेन्द्र ! सुनो, यह उपाख्यात बहुत बड़ा तथा कौतूहलसे भरा हुआ है । जो लोग इसे सुनते और पढ़ते हैं उनके हदयमें यह आख्यान विष्णुभक्ति उत्पन्न करता है ॥१२॥

पूर्वकालकी बात है, एक समय देवलोकका राज्य भोगते हुए इन्द्रके लिये उनका वह राज्य ही ब्राह्म वस्तुओंमें वैराग्यका कारण बन गया । उस समय इन्द्रका स्वभाव राज्य - कार्यो और भोगोंके प्रति विषम ( वैराग्यपूर्ण ) हो गया । वै सोचने लगे - ' यह निश्चित हैं कि विरक्त हदयवाले पुरुषोंकी दृष्टिमें स्वर्गका राज्य कुछ भी महत्त्व नहीं रखता । राज्यका सार है - विषयोंका भोग तथा भोगके अन्तमें कुछ भी नहीं रह जाता । यही सोचकर मुनिगण सदा ही मोक्षघिकारके विषयमें ही विचार करते हैं । लोगोंकी सदा भोगके लिये ही तपमें प्रवृत्ति हुआ करती है और भोगके अन्तमें तप नष्ट हो जाता है । परंतु जो लोग मैत्री आदिके द्वरा विषय - सम्पर्कसे विमुख हो गये हैं, उन मोक्षभागी पुरुषोंको न तपकी आवश्यकता होती है न योगकी ।' इन सब बातोंका विचार करके देवराज इन्द्र क्षुद्रघण्टिकाओंकी ध्वनिसे युक्त विमानपर आरुढ़ हो भगवान् शंकरही आराधनाके लिये कैलासपर्वतपर चले आये । उस समय उनके मनमें एकमात्र मोक्षकी कामना रह गयी थी ॥१३ - १७॥

कैलासपर रहते समय इन्द्र एक दिन घूमते हुए मानससरोवरके तटपर आये । वहाँ उन्होंने पार्वतीजिके युगलचरणारविन्दोंका पूजन करती हुई यक्षराज कुबेरकी प्राणवल्लभा चित्रसेनाको देखा । जो कामदेवके महान् रथकी ध्वजा - सी जान पड़ती थी । उत्तम ' जाम्बूनद ' नामक सुवर्णके समान उसके अङ्गोंकी दिव्य कान्ति थी । आँखें बड़ी - बड़ी और मनोहर थीं, जो कानके पासतक पहुँच गयी थीं । महीन साड़ीके भीतरसे उसके मनोहर अङ्ग इस प्रकार झलक रहे थे, मानो कुहासेके भीतरसे चन्द्रलेखा दृष्टिगोचर हो रही हो । अपने हजार नेत्रोंसे उस देवीको इच्छानुसार निहारते ही इन्द्रका हदय कामसे मोहित हो गया । उस समय वे दूरके रास्तेपर स्थित अपने आश्रमपर नहीं गये और सम्पूर्ण मनोरथोंको मनमें लिये देवराज इन्द्र विषयाभिलाषी हो खड़े हो गये । वे सोचने लगे - ' पहले तो उत्तम कुलमें जन्म पा जाना ही बहुत बड़ी बात है, उसके बाद सर्वाङ्ग - सौन्दर्य और उसपर भी धन तो सर्वथा ही दुर्लभ है । इन सबके बाद धनाधिप ( कुबेर ) होना तो पुण्यसे ही सम्भव हैं । मैंने इन सबसे बड़े स्वर्गके आधिपत्यको प्राप्त किया है, फिर भी मेरे भाग्यमें भोग भोगना नहीं बदा है । मेरे चित्तन्में ऐसी दुर्बुद्धि आ गयी है कि मैं स्वर्गका सुखभोग छोड़कर यहाँ मुक्तीकी इच्छासे आ पड़ा हूँ । मोक्ष - सुख तो इस राज्य - भोगद्वारा मोह लिया जा सकता है, परंतु क्या मोक्ष भी राज्य - प्राप्तिका कारण हो सकता है ? भला, अपने द्वारपर पके अन्नसे युक्त खेतको छोड़कर कोई जंगलमें खेती करने क्यों जायगा जो सांसारिक दुःखसे मारे - मारे फिरते हैं और कुछ भी करनेकी शक्ति नहीं रखते, वे ही अकर्मण्य, भाग्यहीन एवं मूढजन मोक्षमार्गकी इच्छा करते हैं ' ॥१८ - २४॥

इन सब बातोंपर बारंबार विचार करके देवेश्वरोंके चक्रवर्ती सम्राट बुद्धिमान् वीरवर इन्द्र कुबेरपत्नी चित्रसेनाके रुपपर मोहित हो गये । समस्त मानसिक वेदनाओंसे व्याकुल हो, धैर्य खोकर वे कामदेवका स्मरण करने लगे । इन्द्रके स्मरण करनेपर अत्यन्त कामनाओंसे व्याप्त चित्तवृत्तिवाला कामदेव बहुत धीरे - धीरे डरता हुआ वहाँ आया; क्योंकि वही पूर्वकालमें शंकरजीने उसके शरीरको जलाकर भस्म कर दिया था । क्यों न हो, प्राणसंकटके स्थानपर धीरतापूर्वक और निर्भय होकर कौन जा सकता है ? कामदेवने आकर कहा - ' नाथ ! मुझसे जो कार्य लेना हो, आज्ञा कीजिये; बताइये तो सही, इस समय कौन आपका शत्रु बना हुआ है ? शीघ्र बताइये, विलम्ब न कीजिये; मैं अभी उसे आपत्तिमें डालता हूँ ' ॥२५ - २७॥

उस समय कामदेवके उस मनोभिराम वचनको सुनकर मन - ही - मन उसपर विचार करके इन्द्र बहुत संतुष्ट हुए । अपने मनोरथको सहसा सिद्ध होते जान वीरवर इन्द्रने हँसकर कहा - ' कामदेव ! अनङ्ग बन जानेपर भी तुमने जब शंकरजीको भी आधे शरीरका बना दिया, तब संसारमें दूसरा कौन तुम्हारे उस शराघातकी सह सकता है ? अनङ्ग ! जो गिरिजापूजनमें एकाग्रचित्त होनेपर भी मेरे मनको निश्चय ही मोहे लेती है, उस विशाल नयनोंवाली सुन्दरीको तुम एकमात्र मेरे अङ्ग - सङ्गकी सरस भावनासे युक्त कर दो ' ॥२८ - ३०॥

अपने कार्यको अधिक महत्त्व देनेवाले सुरराज इन्द्रके यों कहनेपर उत्तम बुद्धिवाले कामदेवने भी अपने पुष्पमय धनुषपर बाण रखकर मोहन - मन्त्रका स्मरण किया । तब कामदेवद्वारा पुष्पबाणसे मोहित की हुई वह बाला अपने सम्पूर्ण अङ्गमें मदके उद्रेकसे विह्वल हो गयी और पूजा छोड़ इन्द्रकी ओर देखकर मुस्काने लगी । भला, कामदेवके धनुषकी टंकार कौन सह सकता है ॥३१ - ३२॥

इन्द्र उसको अपनी ओर निहारते देखकर यह वचन बोले - ' चञ्चल नेत्रोंवाली बाले ! तुम कौन हो, जो पुरुषोंके मनको इस प्रकार मोहे लेती हो ? बताओ तो, तुम किस पुण्यात्माकी पत्नी हो ? ' इन्द्रके इस प्रकार पूछनेपर उसके अङ्ग मदसे विह्वल हो उठे । शरीरमें रोमाञ्च, स्वेद और कम्प होने लगे । वह कामबाणसे व्याकुल हो गदगदकण्ठसे धीरे - धीरे इस प्रकार बोली - ' नाथ ! मैं धनाधिप कुबेरकी पत्नी एक यक्षकन्या हूँ । पार्वतीजीके चरणोंकी पूजा करनेके लिये यहाँ आयी थी । आप अपना कार्य बताइये; आप कौन हैं ? जो साक्षात् कामदेवके समान रुप धारण किये यहाँ खड़े हैं ?' ॥३३ - ३५॥

इन्द्र बोले - प्रिये ! मैं स्वर्गका राजा इन्द्र हूँ । तुम मेरे पास आओ और मुझे अपनाओ तथा चिरकालतक मेरे अङ्ग - सङ्गके लिये शीघ्र ही उत्सुकता धारण करो । देखो, तुम्हारे बिना मेरा यह जीवन और स्वर्गका विशाल राज्य भी व्यर्थ हो जायगा ॥३६॥

इन्द्रने मधुर वाणीमें जब इस प्रकार कहा, तब उसका सुन्दर शरीर कामवेदनासे पीड़ित होने लगा और वह फहराती हुई पताकाओंसे सुशोभित विमानपर आरुढ हो देवराजके कण्ठसे लग गयी । तब स्वर्गके राजा इन्द्र शीघ्र ही उसके साथ मन्दराचलकी उन कन्दराओंमें चले गये, जहाँका मार्ग देवता और असुर - दोनोंकी ही दृष्टिमें नहीं आया था और जो विचित्र रत्नोंकी प्रभासे प्रकाशित थीं । आश्चर्य है कि देवताओंके राज्यके प्रति आदर न रखते हुए भी वे उदारपराक्रमी इन्द्र उस सुन्दरी यक्ष - बालाके साथ वहाँ रमण करने लगे तथा कामके वशीभूत हो परम चतुर इन्द्रने अपने हाथों चित्रसेनाके लिये शीघ्रतापूर्वक छोटीसी पुष्पशय्या तैयार की । कामोपभोगमें परम चतुर देवराज इन्द्र चित्रसेनाके समागमसे कृतार्थताका अनुभव करने लगे । स्त्रेहरससे अत्यन्त मधुर प्रतीत होनेवाला वह परस्त्रीके आलिङ्गन और समागमका सुख उन्हें मोक्षसे भी बढ़कर जान पड़ा ॥३७ - ४०॥

इधर, इन्द्र जब चित्रसेनाको लेकर मन्दराचलपर चले आये, तब उसकी सङ्गिनी स्त्रियाँ उसे साथ लिये बिना ही यक्षराज कुबेरके समीप वेगपूर्वक आयीं । वे दुस्साहससे अनभिज्ञ थीं, अतः घबराहटके कारण उनके सारे शरीरमें व्यथा हो रही थी । वे गद्गद कण्ठसे बोलीं - ' यक्षपते ! निश्चय ही आप हमारी यह बात सुनें - आपकी भार्या चित्रसेनाको किसी अज्ञात पुरुषने पकड़कर विमानपर बिठा लिया और चारों ओर सशङ्कदृष्टिसे देखता हुआ वह चोर बड़े वेगसे कहीं चला गया हैं ॥४१ - ४२॥

विषके समान दुस्सह प्रतीत होनेवाली इस बातको सुननेसे धनाधिप कुबेरका मुँह काला पड़ गया । वे अग्निसे जले हुए वृक्षके समान हो गये । उस समय उनके मुखसे कोई बात नहीं निकली । इसी समय चित्रसेनाकी सहचरी श्रेष्ठ यक्ष - कन्याओंसे यह समाचार जानकर कुबेरका मन्त्री कण्ठकुब्ज भी अपने स्वामीका मोह दूर करनेके विचारसे वहाँ आया । उसका आगमन सुन राजराज कुबेरने आँखें खोलकर उसकी ओर देखा और लंबी साँस खींचते हुए अपने चित्तको यथासम्भव शीघ्र सँभालकर वे दीनभावसे बोले । उस समय उनका शरीर अत्यन्त कम्पित हो रहा था ॥४३ - ४५॥

वे कहने लगे - ' वही यौवन सफल है, जिससे युवतीका मनोरञ्जन हो सके; धन भी वही सार्थक है, जो आत्मीय जनोंके उपयोगमें आ सके । जीवन वह सफल है, जिससे सद्धर्म किया जाय और प्रभुत्व वही सार्थक है, जिसमें युद्ध और कलहके मूल नष्ट हो गये हों । इस समय मेरे इस विपुल धनको, गुह्यकोंके इस विशाल राज्यको और मेरे इस जीवनको भी धिक्कार है ! अभीतक मेरे इस अपमानको कोई नहीं जानता; अतः इसी समय अग्निमें जल मरुँगा । पीछे यदि इस समाचारको लोग जान भी लें ते क्या ? मृत पुरुषोंका क्या अपमान होगा ? हा ! वह मानससरोवरके तटपर गिरिजा - पूजनके लिये गयी थी । यहाँ निकट ही था और जीवित भी रहा; तो भी किसीने उसे हर लिया । हम नहीं जानते वह कौन है । मैं समझता हूँ, अवश्य हे उस दुष्टको मृत्युका भय नही हैं ' ॥४६ - ४८॥

स्वामीकी यह बात सुनकर उनका मोह दूर करनेके लिये कुबेरके उस मन्त्री कण्ठकुब्जने यह वचन कहा - ' नाथ ! सुनिये, स्त्रीके वियोगमें शरीर - त्याग करना आपके लिये उचित नहीं है । पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी एकमात्र पत्नी सीताको भी निशाचर रावणने हर लिया था, परंतु श्रीरामचन्द्रजीने प्राण नहीं त्यागा । आपके यहाँ तो अनेक स्त्रियाँ हैं, फिर आप मनमें यह कैसा विषाद ला रहे हैं ? यक्षराज ! शोक त्यागकर पराक्रममें मन लगाइये; धैर्य धारण कीजिये । साधु पुरुष बहुत बातें नहीं बनाते और न बैठकर रोते ही हैं; वे दूसरोंके द्वारा परोक्षमें किये हुए अपने अपमानको उस समय चुपचाप सह लेते हैं । वित्तपते ! महापुरुष समय आनेपर महान् कार्य कर दिखाते हैं । आपके तो अनेक सहायक हैं, आप क्यों कातर हो रहे हैं ? इस समय तो आपके छोटे भाई विभीषण स्वयं ही आपकी सहायता कर रहे हैं ॥४९ - ५२॥

कुबेर बोले - विभीषण तो मेरे विपक्षी ही बने हुए हैं, वे अब भी मेरे साथ कौटुम्बिक विरोधका त्याग नहीं करते । यह निश्चित बात है कि दुर्जन पुरुष उपकार करनेपर भी प्रसन्न नहीं होते, वे इन्द्रके वज्रके सदृश कठोर होते हैं । सगोत्रका मन उपकारोंसे, गुणोंसे अथवा मैत्रीसे भी प्रायः प्रसन्न नहीं होता ॥५३ १/२॥

यह सुनकर कण्ठकुब्जने कहा - ' धनाधिनाथ ! आपने ठीक कहा है । विरोध होनेपर सगोत्र पुरुष अवश्य ही परस्पर घात - प्रतिघात करते हैं, तथापि लोकमें उनका पराभव नहीं देखा जाता; क्योंकि कुटुम्बीजन दूसरेके द्वारा किये हुए अपने बन्धुजनके अपमानको नहीं सह सकते । जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे तप्त हुआ जल अपने भीतरके तृणोंको नहीं जलाता, उसी प्रकार दूसरोंसे अपमानित कुटुम्बी जन अपने पार्श्ववती बन्धुओंको नहीं सताते । इसलिये धनाधिप ! आप बहुत शीघ्र विभीषणके पास चलिये । जो लोग अपने बाहुबलसे उपार्जित धनका उपभोग करते हैं, उन्हें भाई - बन्धुओंके साथ क्या विरोध हो सकता है ' ॥५४ - ५६॥

अपने मन्त्री कण्ठकुब्जके इस प्रकार कहनेपर कुबेर मन - ही - मन उसपर विचार करते हुए शीघ्र ही विभीषणके पास गये । लङ्कापति विभीषणने जब अपने ज्येष्ठ भ्राताका आगमन सुना, तब उन्होंने बड़ी विनयके साथ उनकी अगवानी की । राजन् ! फिर विभीषणने अपने भाईको जब दीनदशामें देखा, तब उन्होंने मन - ही - मन दुःखी होकर उनसे यह महत्त्वपूर्ण बात कही ॥५७ - ५९॥

विभीषण बोले - ' यक्षराज ! आप दीन क्यों हो रहे हैं ? आपके मनमें क्या कष्ट है ? इस समय आप उस कष्टको मुझे बताइये । मैं निश्चय ही उसका मार्जन करुँगा ' तब कुबेरने एकान्तमें जाकर विभीषणसे अपनी मनोवेदना बतलायी ॥६० १/२॥

कुबेर बोले - भाई ! कुछ दिनोंसे मैं अपनी मनोरमा भार्या चित्रसेनाको नहीं देख रहा हूँ । न जाने उसे किसीने पकड़ लिया वह स्वयं किसीके साथ चली गयी अथवा किसी शत्रुने उसे मार डाला । बन्धो ! मुझे अपनी स्त्रीके वियोगका महान् कष्ट हो रहा है । यदि वह प्राणवल्लभा न मिली तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा ॥६१ - ६२ १/२॥

विभीषण बोले - ' प्रभो ! आपकी भार्या जहाँ कहीं भी होगी, मैं उसे ला दूँगा । नाथ ! इस समय संसारमें किसकी सामर्थ्य है जो हमारा तृण भी चुरा सके ।' यह कहकर विभीषणने नाना प्रकारकी मायाके ज्ञानमें बढ़ी - चढ़ी ' नाडीजङ्घा ' नामकी निशाचरीसे बहुत कुछ कहा और बताया - '' कुबेरकी जो ' चित्रसेना ' नामकी पत्नी है, वह एक दिन जब मानससरोवरके तटपर थी, तभी वहाँसे किसीने उसे हर लिया । तुम इन्द्र आदि लोकपालोंके भवनोंमें देखकर उसका पता लगाओ '' ॥६३ - ६६॥

भूप ! तब वह निशाचरी मायामय शरीर धारणकर इन्द्रादि देवताओंके भवनोंमें खोज करनेके लिये शीघ्र ही स्वर्गलोकमें गयी । उस निशाचरीने ऐसा सुन्दर रुप बनाया था, जिसकी एक ही दृष्टि पड़नेसे पत्थर भी मोहित हो सकता था । अवश्य ही उस समय वैसा मोहन रुप चराचर जगतमें कहीं नहीं था । भूपते ! इसी समय देवराज इन्द्र भी चित्रसेनाके भेजनेसे उतावलीके साथ नन्दनवनके दिव्य पुष्प लेनेके लिये मन्दराचलसे स्वर्गलोकमें आये थे । वहाँ अपने स्थानपर आयी हुई देख देवराज भी कामके वशीभूत हो गये । तब देवे न्द्रने उसे जैसे भी हो, अपने अन्तः पुरमें बुला लानेके लिये देववैद्य अश्विनीकुमारोंको उसके पास भेजा । दोनों अश्विनीकुमार उसके सामने जाकर खड़े हुए और कहने लगे - '' कृशाङ्गि ! आओ, देवराज इन्द्रके निकट चलो ।'' उन दोनोंके द्वारा यों कही जानेपर उस सुन्दरीने मधुर वाणीमें उत्तर दिया ॥६७ - ७३ १/२॥

नाडीजङ्घा बोली - यदि देवराज इन्द्र स्वयं ही मेरे पास आयेंगे तो मैं उनकी बात मान सकती हूँ; अन्यथा बिलकुल नहीं ॥७४ १/२॥

तब अश्विनीकुमारोंने इन्द्रके पास जाकर उसका शुभ संदेश कहा ॥७५॥

तब इन्द्र स्वयं आकर बोले - कृशाङ्गि ! आज्ञा दो, मैं इस समय तुम्हारा कौन - सा कार्य करुँ ? मैं सदाके लिये तुम्हारा दास हो गया हूँ; तुम जो कुछ माँगोगी, वह सब दूँगा ॥७६॥

कृशाङ्गीने कहा - नाथ ! यदि आप मेरी माँगी हुई वस्तु अवश्य दे देंगे, तो निः संदेह मैं आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी । आज आप अपनी समस्त भार्याओंको मुझे दिखाइये; देखूँ आपकी कोई भी स्त्री मेरे रुपके सदृश है या नहीं ? ॥७७ - ७८॥

उसके यों कहनेपर इन्द्रने पुनः कहा - '' देवि ! चलो, मैं तुम्हें अपनी समस्त भार्याओंको दिखाऊँगा ।'' यह कहकर इन्द्रने उसी समय उसे अपना सारा अन्तः पुर दिखाया । तब उस सुन्दरीने पुनः कहा - ' अभी मुझसे कुछ छिपाया गया है । केवल एक युवतीको छोड़कर और सब कुछ आपने दिखा दिया ' ॥७९ - ८० १/२॥

इन्द्रने कहा - '' वह रमणी मन्दराचलपर है । देवता और असुर - किसीको भी उसका पता नहीं है । मैं उसे भी तुम्हें दिखा दूँगा, परंतु यह रहस्य किसीपर प्रकट न करना ।'' भूपाल ! यह कहकर देवराज इन्द्र इन्द्र उसके साथ आकाशमार्गसे मन्दराचलकी ओर चले । जिस समय वे सूर्यके समान कान्तिमान् विमानसे चले जा रहे थे, उसी समय उन्हें आकाशमें देवर्षि नारदका दर्शन हुआ । नारदजीको देखकर वीरवर इन्द्र यद्यपि लज्जित हुए, तथापि उन्हें नमस्कार करके पूछा - ' महामुने ! आप कहाँ जायँगे ?' ॥८१ - ८४ १/२॥

तब मुनिवर नारदजीने आशीर्वाद देते हुए स्वर्गाधिपति इन्द्रसे कहा - ' देवराज ! आप सुखी हों, मैं इस समय मानससरोवरपर स्त्रान करने जा रहा हूँ ।' [ फिर उन्होंने नाडीजङ्घाको पहचानकर कहा - ] ' नाडीजङ्घे ! कहो तो महात्मा राक्षसोंका कुशल तो है न ? तुम्हारे भाई विभीषण तो सुखपूर्वक हैं न ?' नारदजीकी यह बात सुनते ही उसका मुख भयसे काला पड़ गया । देवराज इन्द्र भी बहुत आश्चर्यमें पड़े और मन - ही - मन कहने लगे - ' इस दुष्टाने मुझे छल लिया ।' नारदजी भी वहाँसे कैलास पर्वतके निकट मानससरोवरमें स्त्रान करनेके लिये चले गये । तब इन्द्र भी उस राक्षसीका वध करनेके लिये मन्दराचलपर, जहाँ महात्मा तृणबिन्दुका आश्रम था, आये और वहाँ थोड़ी देरतक विश्राम करके वे उस नाडीजङ्घा राक्षसीके केश पकड़कर उसे मारना ही चाहते थे कि इतनेमें महात्मा तृणबिन्दु अपने आश्रमसे निकलकर वहाँ आ गये ॥८५ - ९० १/२॥

राजन् ! इधर इन्द्रके द्वारा पकड़ी जानेपर वह राक्षसी भी करुण विलाप करने लगी - ' हा ! मैं मारी जा रही हूँ; इस समय कोई भी पुण्यात्मा पुरुष मुझ दीनाको नहीं बचा रहा हैं ' ॥९१ १/२॥

उसी समय महातपस्वी तृणबिन्दु मुनि वहाँ आ पहुँचे और इन्द्रके सामने खड़े हो बोले - ' हमारे तपोवनमें इस महिलाको न मारो, छोड़ दो ' ॥९२ १/२॥

भूप ! तृणबिन्दु मुनि यों कह ही रहे थे कि महेन्द्रने क्रुद्ध होकर वज्रसे उस राक्षसीको मार ही तो डाला । तब वे मुनिवर इन्द्रकी ओर बार - बार देखते हुए बहुत ही कुपित हुए और बोले - ' रे दुष्ट ! तूने मेरे तपोवनमें इस युवतीका वध किया है, इसलिये तू मेरे शापसे निश्चय ही स्त्री हो जायगा ' ॥९३ - ९५॥

इन्द्र बोले - नाथ ! मैं देवताओंका स्वामी इन्द्र हूँ और यह स्त्री महादुष्टा राक्षसी थी; इसलिये मैंने इसका वध किया है । आप इस समय मुझे शाप न दें ॥९६॥

मुनि बोले - अवश्य ही मेरे तपोवनमें भी दुष्ट और साधु पुरुष भी रहते हैं, परंतु वे मेरी तपस्याके प्रभावसे परस्पर किसीका वध नहीं करते । ( तूने मेरे तपोवनकी मर्यादा भङ्ग की है, अतः तू शापके ही योग्य है । ) ॥९७॥

भूप ! मुनिके यों कहनेपर इन्द्र निः संदेह स्त्रीयोनिको प्राप्त हो गये और पराक्रम तथा शक्ति खोकर स्वर्गको लौट आये उन्होंने सदा ही लज्जा और दुःखसे खिन्न रहनेके कारण देवताओंकी सभामें बैठना ही छोड़ दिया । इधर देवता भी इन्द्रको स्त्रीके रुपमें परिवर्तित हुआ देखकर बहुत दुःखी हुए । तत्पशात् सभी देवता और दीना शची इन्द्रको साथ लेकर ब्रह्माजीके धामको गये । तबतक ब्रह्माजी समाधिसे विरत हुए, तबतक वे सभी वहीं ठहरे रहे और इन्द्रके साथ ही सब देवता ब्रह्माजीसे बोले ॥९८ - १०१॥

' ब्रह्मन् ! सुरराज इन्द्र तृणबिन्दु मुनिके शापसे स्त्रींयोनिको प्राप्त हो गये हैं; वे मुनि बड़े क्रोधी हैं, किसी प्रकार अनुग्रह नहीं करते ' ॥१०२॥

ब्रह्माजी बोले - इसमें उन महात्मा तृणबिन्दु मुनिका कोई अपराध नहीं है । इन्द्र स्त्रीवधरुपी अपने ही कर्मसे स्त्रीभावको प्राप्त हुए हैं । देवताओ ! देवराज इन्द्रने भी महमत्त होकर बड़ा ही अन्याय किया है, जो कुबेरकी पत्नी चित्रसेनाका गुप्तरुपसे अपहरण कर लिया । यही नहीं, इन्होंने तृणबिन्दुके तपोवनमें एक युवतीका वध ही ये इन्द्र स्त्रीभावको प्राप्त हुए हैं ॥१०३ - १०५॥

देवगण बोले - नाथ इन्होंने दुर्बुद्धिसे प्रेरित होकर जो शंकरप्रिय कुबेरका अपमान किया है, उसके लिये हम सब लोग शचीके साथ कुबेरको प्रसन्न करनेका यत्न करेंगे । विभो ! कुबेरकी पत्नी चित्रसेना मन्दराचलपर गुप्तरुपसे रहती हैं, हम सभी लोग सम्मति करके उसे कुबेरको अर्पित कर देंगे । देवराज इन्द्र भी प्राति त्रयो दशी और राक्षसोंकी पूजा करेंगे ॥१०६ - १०८॥

तत्पश्चात् शची अपने प्रियमतको कष्टमें डालनेवाली चित्रसेनाको गुप्तरुपसे ले जाकर यक्षराज कुबेरके भवनमें छोड़ आयीं । इसी समय कुबेरका दूत असमयमें ही लङ्कामें पहुँचा ओर कुबेरसे चित्रसेनाके लौट आनेका समाचार सुनाया - ' हे धनाधिप ! आपकी प्रिय पत्नी चित्रसेना शचीके साथ घर लौट आयी है । वह शची - जैसी अनुपम सखीको पाकर कृतार्थ हो चुकी है । ' तब कुबेर भी कृतकृत्य होकर अपने घरको लौट आये । इसके बाद देवगण पुनः ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीसे प्रार्थना करने लगे ॥१०९ - १११ १/२॥

देवगण बोले - ब्रह्मन् ! आपकी कृपासे यह सारा काम तो हो गया - इसमें संदेह नहीं । परंतु अब जैसे पतिके बिना नारी, सेनापतिके बिना सेना और श्रीकृष्णके बिना व्रजकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार इन्द्रके बिना अमरावती सुशोभित नहीं होती । प्रभो ! अब इन्द्रके लिये कोई जप, क्रिया, तप, दान, ज्ञान और तीर्थ - सेवन आदि उपाय बताइये, जिससे स्त्रीभावसे इनका उद्धार हो सके ॥११२ - ११४॥

ब्रह्माजी बोले - उस मुनिके शापको अन्यथा करनेमें न तो मैं समर्थ हूँ और न भगवान् शङ्कर ही । इसके लिये एकमात्र भगवान् विष्णुके पूजनको छोड़कर दूसरा कोई उपाय भी सफल नहीं दीख पड़ता । बस, इन्द्र अष्टाक्षरमन्त्रके द्वारा भगवान् विष्णुका विधिपूर्वक पूजन करें और उस मन्त्रका जप करते रहें; इससे वे स्त्रीभावसे मुक्त हो सकते हैं । इन्द्र ! स्त्रान करके, श्रद्धायुक्त हो, आत्मशुद्धिके लिये एकाग्रचित्तसे ' ॐ नमो नारायणाय ' - इस मन्त्रका जप करो । देवेन्द्र ! इस मन्त्रका दो लाख जप हो जानेपर तुम स्त्री - योनिसे मुक्त हो सकते हो । यह सुनकर इन्द्रने ब्रह्माजीकी आज्ञाका यथावत् पालन किया, तब वे भगवान् विष्णुकी कृपासे स्त्रीभावसे छुटकारा पा गये ॥११५ - ११८॥

मार्कण्डेयजी कहते हैं - राजन् ! इस प्रकार मैंने भृगुजीकी आज्ञासे तुम्हारे समक्ष परम उत्तम भगवान् विष्णुके माहात्म्यको पूर्णरुपसे सुना दिया । अब तुम आलस्य त्यागकर भगवान् विष्णुकी आराधना करो । जो लोग अखिल जगतके कारणभूत भगवान् विष्णुके पराक्रमसे सम्बन्ध रखनेवाली उनकी कथाको सुनते हैं, वे यदि परस्त्रीगामी रहे हों तो भी पापहीन एवं कल्मषरहित होकर निश्चय ही भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त करते हैं ॥११९ - १२०॥

सूतजी कहते हैं - मुनिवर मार्कण्डेयजीके द्वारा इस तरह सम्यक् प्रकारसे उपदिष्ट होकर राजा सहस्त्रानीक भगवान् नृसिंहकी आराधना करके विष्णुके अविनाशी पदको प्राप्त हो गये । भरद्वाज मुने ! इस प्रकार मैंने आपको यह सम्पूर्ण सहस्त्रानीक - चरित्र सुनाया; इसके बाद आपसे और क्या कहूँ ? ॥१२१ - १२२॥

जो मानव सब प्रकारसे मोक्ष देनेवाली इस प्राचीन कथाका श्रवण करता है, वह अत्यन्त निर्मल ज्ञान प्राप्त करके उसीके द्वारा भगवान् विष्णुको प्राप्त कर लेता है ॥१२३॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणके अन्तर्गत सहस्त्रानीक - चरित्रके अन्तर्गत ' अष्टाक्षर - मन्त्रकी महिमाका कथन ' नामक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६३॥

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Last Updated : October 02, 2009

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