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अध्याय ८

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ८

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीव्यासजी बोले - विष्णुदूतोंके द्वारा अत्यन्त पीड़ित हुए मृत्युदेव और यमदूत अपने राजा यमके भवनमें जाकर बहुत रोने - कलपने लगे ॥१॥

मृत्यु और यम्कदूत बोले - राजन् । आपके आगे हम जो कुछ कह रहे है, हमारी इन बातोंको आप सुनें । हमलोगोंने आपकी आज्ञाके अनुसार यहाँसे जाकर मृत्युको तो दूर ठहरा दिया और स्वयं भृगुके पौत्र ब्राह्मण मार्कण्डेयके समीप गये । परंतु सत्पुरुषशिरोमणे ! वह उस समय एकाग्रचित होकर किसी देवताका ध्यान कर रहा था । महामते ! हम सभी लोग उसके पासतक पहुँचने भी नहीं पाये थे कि बहुत - से महाकाय पुरुष मूसलसे हमें मारने लगे । तब हमलोग तो लौट पड़े, परंतु यह देखकर मृत्युदेव वहाँ फिर पधारे । तब हमें डाँट - फटकारकर उन लोगोंने इन्हे भी मूसलोंसे मारा । प्रभो ! इस प्रकार तपस्यामें स्थित हुए उस ब्राह्मणको यहाँतक लानेमें मृत्युसहित हम सब लोग समर्थ न हो सके । महाभाग ! उस ब्राह्मणका जो तप है, उसे आप बतलाइये, वह किस देवताका ध्यान कर रहा था और जिन लोगोंनें हमें मारा, वे कौन थे ? ॥२ - ७॥

व्यासजी कहते हैं - महामते ! मृत्यु तथा समस्त दूतोंके इस प्रकार कहनेपर महाबुद्धि सूर्यकुमार यमने क्षणभर ध्यान करके कहा ॥८॥

यम बोले - मृत्यु तथा मेरे अन्य सभी किंकर आज मेरी बात सुनें - योगमार्ग ( समाधि ) - के द्वारा मैंने इस समय जो कुछ जाना है, वही सच - सच बतला रहा हूँ । भृगुके पौत्र महाबुद्धिमान् महाभाग मार्कण्डेयजी आजके दिन अपनी मृत्यु जानकर मृत्युको जीतनेकी इच्छासे तपोवनमें गये थे । वहाँ उन बुद्धिमानने भृगुजीके बतलाये हुए मार्गके अनुसार भगवान् विष्णुकी आराधना एवं द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करते हुए उत्कृष्ट तपस्या की है । दूतो ! वे मुनि निरन्तर योगयुक्त होकर वहाँ एकाग्रचित्तसे अपने हदयमें केशवका ध्यान कर रहे हैं । किंकरो ! उस महामुनिको भगवान विष्णुके ध्यानकी महादीक्षाका ही बल प्राप्त हैं; क्योंकि जिसका मरणकाल प्राप्त हो गया है, उसके लिये मैं दूसरा कोई बल नहीं देखता । भक्तवत्सल, कमललोचन भगवान् विष्णुके निरन्तर हदयस्थ हो जानेपर उस विष्णुस्वरुप भगवच्छरणागत पुरुषकी ओर कौन देख सकता है ? ॥९ - १४॥

वे पुरुष भी, जिन्होंने तुम्हें बहुत मारा है, भगवान् विष्णुके ही दूत हैं । आजसे जहाँ वैष्णव हों, वहाँ तुमलोग न जाना । उन महात्माओंके द्वारा तुम्हारा मारा जाना आश्चर्यकी बात नहीं है । आश्चर्य तो यह है कि उन दयालु महापुरुषोंने तुम्हें जीवित रहने दिया है । भला, नारायणके ध्यानमें तत्पर हुए उस ब्राह्मणको देखनेका भी साहस कौन कर सकता है ? तुम महापापियोंने भगवानके प्रिय भक्त मार्कण्डेयजीको जो यहाँ लानेका प्रयत्न किया है, यह अच्छा नहीं किया । आजसे तुमलोग मेरी आज्ञा मानकर उन महात्माओंके पास न जाना, जो महादेव भगवान् नृसिंहकी उपासना करते हों ॥१५ - १८॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! यमने अपने सामने खड़े हुए मृत्युदेव और दूतोंसे इस प्रकार कहकर नरकमें पड़े हुए पीडित मनुष्योंकी ओर देखा तथा अत्यन्त कृपा एवं विशेषतः विष्णुभक्तिसे युक्त होकर नारकीय जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये जो बातें कहीं, उन्हें तुम सुनो । नरकमें यातना सहते हुए जीवोंसे यमने कहा - ' पापसे कष्ट पानेवाले जीव ! तुमने क्लेशनाशक भगवान् केशवकी पूजा क्यों नहीं की ? पूजन - सम्बन्धी द्रव्योंके न मिलनेपर केवल जलमात्रसे भी पूजित होनेपर जो भगवान् पूजकको अपना लोकतक दे डालते हैं, उनकी पूजा तुमने क्यों नहीं की ? क्रमलके समान लोचनोंवाले, नरसिंहरुपधारी जो भगवान् हषीकेश स्मरणमात्रसे ही मनुष्योंको मुक्ति देनेवाले हैं, उनकी पूजा तुमने क्यों नहीं की ? ' ॥१९ - २३॥

नरकमें पड़े हुए जीवोंके प्रति यों कहकर विष्णुभक्तिसे युक्त सूर्यनन्दन यमने अपने किंकरोंसे पुनः कहा - ' किंकरो ! अविनाशी विश्वात्मा भगवान् विष्णुने नारदजीसे जैसा कहा था और अन्य वैष्णवों तथा सिद्धोंसे जैसा सदा ही सुना गया है, वह अत्यन्त उत्तम भगवद्वाक्य मैं प्रसन्न होकर तुम लोगोंसे शिक्षाके लिये कह रहा हूँ । तुम सभी भगवानके शरणागत होकर सुनो ॥२४ - २६॥

भगवान् कहते हैं - ' हे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! ' - इस प्रकार जो मेरा नित्य स्मरण करता है, उसको मैं उसी प्रकार नरकसे निकाल लेता हूँ, जैसे जलको भेदकर कमल बाहर निकल आता है । ' पुण्डरीकाक्ष ! देवेश्वर नरसिंह ! त्रिविक्रम ! मैं आपकी शरणमें पड़ा हूँ ' - यों जो कहता है, उसका मैं उद्धार कर देता हूँ ' - इस प्रकार जो मेरा शरणागत होता है, उसे मैं क्लेशसे मुक्त कर देता हूँ ॥२७ - २९॥

व्यासजी कहते हैं - वत्स ! यमराजके कहे हुए इस भगद्वाक्यको सुनकर नरकमें पड़े हुए जीव ' कृष्ण ! कृष्ण ! नरसिंह !' इत्यादि भगवन्नामोंका जोरसे उच्चारण करने लगे । नारकीय जीव वहाँ ज्यों - ज्यों भगवन्नामका कीर्तन करते थे, त्यों - ही - त्यों भगवदेभक्तिसे युक्त होते जाते थे । इस तरह भक्तिभावसे पूर्ण हो वे इस प्रकार कहने लगे ॥३० - ३१॥

नरकस्थ जीव बोले - ' ॐ ' जिनका नाम कीर्तन करनेसे नरककी ज्वाला तत्काल शान्त हो जाती है, उन महात्मा भगवान् केशवको नमस्कार है । जो यज्ञोंके ईश्वर, आदिमूर्ति, शान्तस्वरुप और संसारके स्वामी हैं, उन भक्तप्रिय, विश्वपालक भगवान् विष्णुको नमस्कार है । अनन्त, अप्रमेय नरसिंहस्वरुप, शङ्ख - चक्र - गदा धारण करनेवाले, लोकगुरु आप श्रीनारायणको नमस्कार है । वेदोंके प्रिय, महान् एवं विशिष्ट गतिवाले भगवानको नमस्कार है । तर्कके अविषय, वेदस्वरुप, पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवान् वाराहको प्रणाम है । ब्राह्मणकुलमें अवतीर्ण, वेद - वेदाङ्गोंके ज्ञाता और अनेक विषयोंका ज्ञान रखनेवाले कान्तिमान् भगवान् वामनको नमस्कार है । बलिको बाँधनेवाले, वेदके पालक, देवताओंके स्वामी, व्यापक, परमात्मा आप वामनरुपधारी विष्णुभगवानको प्रणाम है । शुद्ध द्रव्यमय, शुद्धस्वरुप भगवान् चतुर्भुजको नमस्कार है । दुष्ट क्षत्रियोंका अन्त करनेवाले जमदग्रिनन्दन भगवान् परशुरामको प्रणाम है । रावणका वध करनेवाले आप महात्मा श्रीरामको नमस्कार है । गोविन्द ! आपको बारंबार प्रणाम है । आप इस दुर्गन्धपूर्ण नरकसे हमारा उद्धार करें ॥३२ - ३९॥

व्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! इस प्रकार नरकर्मे पड़े हुए जीवोंने जब भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका कीर्तन किया, तब उन महात्माओंकी नरक - पीड़ा तत्काल दूर हो गयी । वे सभी अपने अङ्गोंमें दिव्य गन्धका अनुलेप लगाये, दिव्य वस्त्र और भूषणोंसे विभूषित हो, श्रीकृष्णस्वरुप हो गये । फिर भगवान् विष्णुके किंकर यमदूतोंकी भर्त्सना करके उन्हें दिव्य विमानोंपर बिठाकर विष्णुधामको ले गये । विष्णुदूतोंद्वारा सभी नरकस्थ जीवोंके विष्णुलोकमें ले जाये जानेपर यमराजने पुनः भगवान् विष्णुको प्रणाम किया । ' जिनके नामकीर्तनसे नरकमें पड़े हुए जीव विष्णुधामको चले गये, उन गुरुदेव नरसिंहभगवानको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । उन अमित तेजस्वी नरसिंहस्वरुप भगवान् विष्णुको जो प्रणाम करते हैं, उन्हें भी मेरा बार - बार नमस्कार हैं ' ॥४० - ४५॥

उग्र नरकाग्रिको शान्त और सभी यन्त्र आदिको विपरीत दशामें पड़े देखकर यमराजने स्वयं ही पुनः अपने दूतोंको शिक्षा देनेके लिये मनमें विचार किया ॥४६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' यमगीता ' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥८॥

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Last Updated : July 25, 2009

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