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अध्याय ३३

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ३३

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


राजा बोले - भगवन् ! मैं आपके प्रसादसे भगवानके पूजनकी पावन विधिको विशेषरुपसे यथावत् सुनना चाहता हूँ; कृपया आप मुझे विस्तारसे बतायें । भगवान् नृसिंहके मन्दिरमें जो झाडू देता है वह, तथा जो उसे लीपता - पोतता है, ह पुरुष किस पुण्यको प्राप्त करता है ? केशवको शुद्ध जलसे स्नान करानेपर कौन - सा पुण्य प्राप्त होता है तथा दूध, दही, मधु, घी एवं पञ्चगव्यद्वारा स्नान करानेसे क्या पुण्य होता है ? भगवानकी प्रतिमाको गर्म जलसे भक्तिपूर्वक स्नान करानेपर तथा कर्पूर और अगुरु मिले हुए जलसे स्नान करानेपर कौन - सा पुण्य प्राप्त होता है ? भगवानको अर्घ्य देनेसे, पाद्य और आचमन अर्पण करनेसे, मन्त्रोच्चारपूर्वक नहलानेसे और वस्त्र - दान करनेसे क्या पुण्य होता है ? ॥१ - ५॥

चन्दन और केसरद्वारा पूजा करनेपर तथा फूलोंसे पूजा करनेपर क्या फल होता है ? तथा धूप और दीप देनेका क्या फल है ? नैवेद्य निवेदन करनेका और प्रदक्षिणा करनेका क्या फल है ? इसी प्रकार नमस्कार करनेसे एवं स्तुति और यशोगान करनेसे कौन - सा फल प्राप्त होता है ? भगवान् विष्णुके लिये पंखा दान करने, चँवर प्रदान करने, ध्वजाका दान करने और शङ्ख - दान करनेसे क्या फल होता है ? ब्रह्मन् ! मैंने जो कुछ पूछा है, वह तथा अज्ञानवश मैंने जो नहीं पूछा है, वह सब भी मुझझे कहिये; क्योंकि भगवान् केशवके प्रति मेरी हार्दिक भक्ति है ॥६ - ९॥

सूतजी बोले - राजाके इस प्रकार पूछनेपर वे ब्रह्मर्षि भृगु मुनि मार्कण्डेयजीको उत्तर देनेके लिये नियुक्त करके स्वयं चले गये । भृगुजीकी प्रेरणासे मुनिवर मार्कण्डेयजीने राजापर उनकी हरिभक्तिसे विशेष प्रसन्न होकर उनके प्रति इस प्रकार कहना आरम्भ किया ॥१० - ११॥

मार्कण्डेयजी बोले - पाण्डुकुलन्दन राजकुमार ! भगवान् विष्णुकी इस पूजा - विधिको क्रमशः सुनो; तुम विष्णुके भक्त हो, अतः मैं तुम्हें यह सब बताऊँगा । जो भगवान् नरसिंहके मन्दिरमें नित्य झाडू लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें आनन्दित होता है । जो गोबर, मिट्टी तथा जलसे वहाँकी भूमि लीपता है, वह अक्षय फल प्राप्त करके विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है । सत्तम ! इस विषयमें एक प्राचीन सत्य इतिहास है, जिसे सुनकर सब पापोंसे मुक्ति मिल जाती है ॥१२ - १५॥

राजेन्द्र ! पूर्वकालमें राजा युधिष्ठिर द्रौपदी तथा अपने पाँच भाइयोंके साथ वनमें विचरते थे । घूमते - घूमते वे पाँचों पाण्डव शूल और कण्टकमय मार्गको पार करके एक उत्तम तीर्थकी ओर प्रस्थित हुए । उसके पहले भगवान् नारदजी भी उस उत्तम तीर्थका सेवन करके स्वर्गलोकको लौट गये थे । क्रोध और पिशुनतासे रहित धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर उस उत्तम तीर्थकी ओर प्रस्थान करके तीर्थधर्मका उपदेश करनेवाले किसी मुनिवरके दर्शनकी बात सोच रहे थे, इसी बीचमें बहुरोमा तथा स्थूलशिरा नामक दानव वहाँ आये । भूपाल ! पाण्डवोंको जाते देख द्रौपदीका अपहरण करनेकी इच्छासे बहुरोमा नामक दानव मुनिका रुप धारण करके वहाँ आया । वह कुशके आसनपर बैठकर ध्यानमग्न हो गया । उसके पार्श्वमें कमण्डलु था और हाथमें उसने कुशकी पवित्री पहन रखी थी । वह नासिकाके अग्रभागका अवलोकन करता हुआ रुद्राक्षकी मालासे मन्त्र - जप कर रहा था । नर्मदा - तटवर्ती वनमें भ्रमण करते हुए पाण्डवोंने वहाँ उसे देखा ॥१६ - २२॥

तदनन्तर उसे देखकर राजा युधिष्ठिरने भाइयोंसहित प्रणाम करके उससे यह बात कही - महामुने ! भाग्यसे आप यहाँ विद्यमान हैं । इस रुद्रदेहा ( रेवा ) - के समीपवर्ती परम गोपनीय तीर्थोंको हमें बताइये । नाथ ! हमने सुना है कि मुनियोंका दर्शन धर्मका उपदेश करनेवाला होता है ॥२३ - २४॥

धर्मपुत्र युधिष्ठिर जबतक उस मायावी मुनिसे बात कर ही रहे थे, तबतक ही स्थूलशिरा नामक दूसरा दानव मुनिरुप धारण किये वहाँ आ पहुँचा । वह बड़े ही आतुरभावसे इस प्रकार पुकार रहा था - अहो ! यहाँ कौन हमारी रक्षा करेगा, उसके पुण्यफलका तो कहना ही क्या है । एक ओर मेरुपर्वतकी दक्षिणापूर्वक सम्पूर्ण पृथिवीका दान और दूसरी ओर पीड़ित प्राणियोंके प्राण - संकटका निवारण - दोनों बराबर हैं । जो पुरुष दुष्टोंद्वारा सताये जाते हुए ब्राह्मण, गौ, स्त्री और बालकोंकी उपेक्षा करता है, वह रौरव नरकमें पड़ता है । मेरा सर्वस्व लूट लिया गया है । मैं दानवोंसे अपमानित होकर प्राण त्याग देनेको उद्यत हूँ । इस समय कौन ऐसा वीर पुरुष है, जो मेरी रक्षा कर सके ? दुष्ट दानवने मेरी स्फटिककी माला, सुन्दर कमण्डलु और मनोहर खाट छीनकर मुझे थप्पड़से मारा है और सर्वस्व लूट लिया है ॥२५ - ३१॥

इस प्रकारके कातर वचन सुनकर पाण्डव हड़बड़ा गये । वे रोमाञ्चित हो, आग जलाकर उस मुनिके पीछे चले । द्रौपदीको उन लोगोंने पहलेवाले महात्मा मुनिके पास ही छोड़ दिया और स्वयं रोषसे भरकर वहाँसे बहुत दूर निकल गये ॥३२ - ३३॥

तदनन्तर युधिष्ठिरने कहा - हमें तो यहाँ कुछ भी दिखायी नहीं देता । अर्जुन ! तुम द्रौपदीकी रक्षाके लिये यहाँसे लौट जाओ । तब भाईके वचनमे प्रेरित होकर अर्जुन वहाँसे चल दिये । राजन् ! फिर राजा युधिष्ठिरने उस गहन वनके भीतर सूर्यमण्डलकी ओर देखकर यह सत्य वचन कहा - मेरी सत्यवादिता, पुण्यकर्म तथा धर्मपूर्वक भाषण करनेसे संतुष्ट होकर देवगण संशयमें पड़े हुए मुझको सत्य बात बतला दें ॥३४ - ३६१/२॥

राजन् ! युधिष्ठिरके यों कहनेपर आकाशमें इस प्रकारका शब्द हुआ, यद्यपि वहाँ बोलनेवाला कोई व्यक्ति नहीं था - महाराज ! यह ( जो आपके पास खड़ा है, वह मुनि नहीं ) दानव हैं । स्थूलशिरा नामक मुनि तो सुखपूर्वक हैं, उनपर किसीके द्वारा कोई उपद्रव नहीं है । यह तो इस दुष्टकी माया है ॥३७ - ३८॥

तब भीमने अत्यन्त क्रोधसे युक्त हो उस भागते हुए दानवके मस्तकपर बड़े वेगसे मुष्टिप्रहार किया । फिर तो दानवने भी अपना रौद्ररुप धारण किया और भीमको मुक्का मारा । इस प्रकार भीम और दानवमें वहाँ दारुण संग्राम छिड़ गया । भीमने उस वनमें बड़े कष्टसे उसके स्थूल मस्तकका छेदन किया ॥३९ - ४०१/२॥

इधर अर्जुन भी जब मुनिके आश्रमपर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें न तो वह मुनि दिखायी दिया और न प्राणप्रिया साध्वी भार्या द्रौपदी ही दीख पड़ी । तब अर्जुनने वृक्षपर चढ़कर ज्यों ही इधर - उधर दृष्टि डाली, त्यों ही देखा कि एक दानव द्रौपदीको अपने कंधेपर बिठाकर बड़ी शीघ्रतासे भागा जा रहा है और उस दुष्टके द्वारा हरी गयी द्रौपदी कुररीकी भाँति ' हा धर्मपुत्र ! हा भीम ! ' इत्यादि रटती हुई विलाप कर रही है । द्रौपदीको उस अवस्थामें देखकर वीर अर्जुन अपनी आवाजसे दिशाओंको गुँजाते हुए चले । उस समय उनके बड़े वेगसे पैर रखनेके कारण अनेकानेक वृक्ष गिर गये । तब वह दैत्य भी उस तन्वङ्गीको छोड़कर अकेला ही वेगसे भागा; तथापि अर्जुनने क्रोधके कारण उस असुरका पीछा न छोड़ा । भागते - भागते वह दानव एक जगह पृथ्वीपर गिर पड़ा और गिरते ही चार भुजाओंसे युक्त हो, शङ्ख तथा चक्र आदि धारण किये पीताम्बरधरी विष्णुके रुपमें दीख पड़ा । तब कुन्तीनन्दन अर्जुन बड़े ही विस्मित हुए और प्रणाम करके बोले ॥४१ - ४७॥

अर्जुनने कहा - भगवन् ! आपने यहाँ वैष्णवी माया क्यों फैला रखी थी ? मैंने भी जो आपका अपकार किया है, उसके लिये हे नाथ ! मेरे अपराधकी क्षमा करें; आपको नमस्कार है । हे जगन्नाथ ! अज्ञानके कारण ही मैंने यह दारुण कर्म किया है; इसलिये इसे क्षमा कर दें । भला, एक साधारण मनुष्यमें इतनी समझ कहाँ हो सकती है, जिससे आपको अन्य वेषमें भी पहचान ले ॥४८ - ४९॥

चतुर्भुज बोला - महाबाहो ! मैं विष्णु नहीं, बहुरोमा नामक दानव हूँ । मैंने अपने पूर्वकर्मके प्रभावसे भगवान् विष्णुका सारुप्य प्राप्त किया है ॥५०॥

अर्जुन बोले - बहुरोमन् ! तुम अपने पूर्वजन्म और कर्मका ठीक - ठीक वर्णन करो । तुमने किस कर्मके परिणामसे विष्णुका सारुप्य प्राप्त किया है ? ॥५१॥

चतुर्भुज बोला - महाभाग अर्जुन ! आप अपने भाइयोंके साथ मेरे अत्यन्त विचित्र चरित्रको सुनिये; यह श्रोताओंके आनन्दको बढ़ानेवाला है । मैं पूर्वजन्ममें चन्द्रवंशमें उत्पन्न जयध्वज नामसे भजनमें लगा रहता और उनके मन्दिरमें झाडू लगाया करता था । प्रतिदिन उस मन्दिरको लीपता और ( रात्रिमें ) वहाँ दीप जलाया करथा था । उन दिनों वीतिहोत्र नामक एक साधु ब्राह्मण मेरे यहाँ पुरोहित थे । प्रभो ! वे मेरे इस कार्यको देखकर बहुत विस्मित हुए ॥५२ - ५५॥

मार्कण्डेयजी बोले - एक दिन वेद - वेदाङ्गोंके पूर्ण विद्वान् पुरोहित वीतिहोत्रजीने बैठे हुए उन विष्णुभक्त राजासे इस प्रकार प्रश्न किया - परम धर्मज्ञ भूपाल ! हरिभक्तिपरायण नरश्रेष्ठ ! आप विष्णुभक्त पुरुषोमें सबसे श्रेष्ठ हैं; क्योंकि आप भगवानके मन्दिरमें प्रतिदिन झाडू तथा लेप दिया करते हैं । अतः महाभाग ! आप मुझे बताइये कि भगवानके मन्दिरमें झाडू देने और वहाँ लीपने - पोतनेका कौन - सा उत्तम फल आप जानते हैं । यद्यपि भगवानको अत्यन्त प्रिय लगनेवाले अन्य कर्म भी हैं ही, तथापि महाभाग ! आप इन्हीं दो कर्मोंमें सदा सर्वथा लगे रहते हैं । नरेश ! यदि आपको इनसे होनेवाला महान् पुण्यरुप फल ज्ञात हो और वह छिपानेयोग्य न हो तथा यदि आपका मुझपर प्रेम हो तो अवश्य ही उस फलको मुझे बताइये ॥५६ - ६०॥

जयध्वज बोले - विप्रवर ! इस विषयमें आप मेरा ही पूर्वजन्मका चरित्र सुनें । मुझे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण है, इसीसे मैं सब जानता हूँ । मेरा चरित्र श्रोताओंको आश्चर्यमें डालनेवाला है । विप्रेन्द ! पूर्वजन्ममें मैं रैवत नामका ब्राह्मण था । जिनको यज्ञ करनेका अधिकार नहीं हैं, उनसे भी मैं सदा ही यज्ञ कराता था और अनेकों गाँवोंका पुरोहित था । इतना ही नहीं, मैं दूसरोंकी चुगली खानेवाला, निर्दय और नहीं बेचने योग्य वस्तुओंका विक्रय करनेवाला था । निषिद्ध कर्मोंका आचरण करनेके कारण मेरे बान्धवोंने मुझे त्याग दिया था । मैं महान् पापी और सदा ही ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेवाला था । परायी स्त्री और पराये धनका लोभी था, प्राणियोंकी हिंसा किया करता था । सदा ही मद्य पीता और ब्राह्मणोसे द्वेष रखता था । इस प्रकार मैं प्रतिदिन पापमें लगा रहता और बहुधा लूटपाट भी करता था ॥६१ - ६५१/२॥

एक दिन रातमें स्वेच्छाचारिताके कारण मैं कुछ ब्राह्मण - पत्नियोंको पकड़कर एक सूने ठाकुर - मन्दिरमें ले गया । उस मन्दिरमें कभी पूजा नहीं होती थी । [ यों ही खण्डहर - सा पड़ा रहता था । ] वहाँ स्त्रियोंके साथ रमण करनेकी इच्छासे मैंने अपने वस्त्रके किनारेसे उस मन्दिरका कुछ भाग बुहारकर साफ किया और हे द्विजोत्तम ! [ प्रकाशके लिये ] दीप जलाकर रख दिया । [ यद्यपि मैंने अपनी पाप - वासना पूर्ण करनेके लिये ही मन्दिरमें झाडू लगायी और दीप जलाया था, तथापि ] उससे भी मेरा सारा पापकर्म नष्ट हो गया । ब्राह्मण ! इस प्रकार जब मैं उस विष्णुमन्दिरमें भोगकी इच्छासे ठहरा हुआ था, उसी समय वहाँ दीपक देखकर नगरके रक्षक आ पहुँचे और यह कहकर कि ' यह किसी शत्रुका दूत है, यहाँ चोरी करने आया है, ' उन्होंने मुझे पृथ्वीपर गिरा दिया तथा तीखी धारवाली तलवारसे मेरा मस्तक काटकर वे चले गये । तब मैं भगवानके पार्षदोंसे युक्त दिव्य विमानपर आरुढ़ हो, गन्धर्वोद्वारा अपना यशोगान सुनता हुआ स्वर्गलोकको चला गया ॥६६ - ७१॥

चतुर्भुज बोला - इस प्रकार मैंने दिव्यरुप धारणकर, दिव्य भोगोंसे सम्पन्न होकर स्वर्गलोकमें सौ कल्पोंसे भी अधिक कालतक निवास किया । फिर उसी पुण्यके भोगसे चन्द्रवंशमें उत्पन्न जयध्वज नामसे विख्यात कमलके समान नेत्रोंवाला राजा हुआ । उस जन्ममें भी कालवश मृत्युको प्राप्त होनेपर मैं स्वर्गलोकमें आया । फिर यहाँसे रुद्रलोकको प्राप्त हुआ । एक बार रुद्रलोकसे ब्रह्मलोकको जाते समय मैंने नारदमुनिको देखा, परंतु देखनेपर भी उन्हें प्रणाम नहीं किया और उनकी हँसी उड़ाने लगा । इससे कुपित होकर उन्होंने शाप दिया - ' राजन् ! तू राक्षस हो जा ।' उन ब्राह्मणके दिये हुए इस शापको सुनकर मैंने क्षमा माँगकर ( किसी तरह ) उन्हें प्रसन्न किया । तब मुनिने मुझपर शापानुग्रहके रुपमें कृपा की । [ उन्होंने कहा - ] राजन् ! जिस समय बुद्धिमान् धर्मपुत्र युधिष्ठिरकी भार्याका हरण करके तुम रेवा - तटवर्ती मठमें चले जाओंगे, उस समय तुम्हें शापसे मुक्ति मिल जायगी ।' भूपाल ! धर्मपुत्र युधिष्ठिर ! अर्जुन ! मैं वही राजा जयध्वज हूँ । इस समय भगवान् विष्णुके सारुप्यको प्राप्त हुआ हूँ । अब मैं निश्चय ही वैकुण्ठधामको जाऊँगा ॥७२ - ७८१/२॥

मार्कण्डेयजी बोले - यह कहकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरके देखते - ही - देखते वे राजा जयध्वज गरुडपर आरुढ हो विष्णुधामको चले गये, जहाँ लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं । इसीसे विष्णुमन्दिरके बुहारने और लीपनेसे बड़ी महत्ता प्राप्त होनेका वर्णन किया गया है । [ राजा जयध्वजने पूर्वजन्ममें ] कामके वशीभूत होकर भी जिस कर्मको करनेसे ऐसी दिव्य सम्पत्ति प्राप्त कर ली, उसीको यदि भक्तिमान् और शान्त पुरुष करे तथा भलीभाँति भगवानका पूजन करे तो उनको प्राप्त होनेवाले फलके विषयमें क्या कहना है ? ॥७९ - ८१॥

सूतजी बोले - मार्कण्डेयजीके उपर्युक्त वचन सुनकर पाण्डुवंशमें उत्पन्न राजा सहस्त्रानीक भगवानके पूजनमें संलग्न हो गये । इसलिये विप्रवृन्द ! आपलोग यह सुन लें कि अविनाशी भगवान् नारायण जानकर अथवा अनजानमें भी पूजा करनेवाले अपने भक्तोंके मुक्ति प्रदान करते हैं । द्विजो ! मैं यह बारंबार कहता हूँ कि यदि आपलोग दुस्तर भवसागरके पार जाना चाहते हैं तो भगवान् जगन्नाथकी पूजा करें । जो भक्त प्रणतजनोंका कष्ट दूर करनेवाले भगवान् विष्णुका पूजन करते हैं, वे वन्दनीय, पूजनीय और विशेषरुपसे नमस्कार करनेयोग्य हैं ॥८२ - ८५॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणके अन्तर्गत सहस्त्रानीक - चरित्रके प्रसङ्गमें मार्कण्डेयमुनिद्वारा उपदिष्ट ' मन्दिरमें झाडू देने और उसके लीपनेकी महिमाका वर्णन ' नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३३॥

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Last Updated : July 27, 2009

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