संस्कृत सूची|संस्कृत साहित्य|व्याकरणः|रसगड्गाधर:| अथाधिकालंकार रसगड्गाधर: उपमालंकारः उपमेयोपमा अलंकारः अनन्वय अलंकारः समालंकारः उदाहरणालंकारः स्मरणालंकार: रूपकालंकारः परिणामालंकारः ससंदेहालंकारः भ्रान्तिमान् अलंकारः उल्लेखालंकारः अपहृति अलंकारः उत्प्रेक्षा अलंकारः अतिशयोक्ति अलंकारः तुल्ययोगिता अलंकारः दीपक अलंकारः प्रतिवस्तूपमा अलंकारः दृष्टान्तालंकार : निदर्शनालंकारः व्यतिरेक अलंकारः सहोक्ति अलंकारः विनोक्ति अलंकारः समासोक्ति अलंकारः परिकर अलंकारः श्लेष अलंकारः अप्रस्तुतप्रशंसालंकारः पर्यायोक्त अलंकारः व्याजस्तुति अलंकारः अक्षेप अलंकारः विरोधमूलालंकाराः विभावना अलंकारः विशेषोक्ति अलंकारः असंगति अलंकारः विषमालंकाराः समालंकार: विचित्रालंकार: अथाधिकालंकार अथान्योन्यालंकार: विशेषालंकार: व्याघात: शृड्खलामूला अलंकारा: कारणमाला अलंकार: एकावली अलंकार: सार अलंकार: काव्यलिंग अलंकार: अर्थान्तरन्यास अलंकार: अनुमानालंकार: यथासंख्य अलंकार: पर्याय अलंकार: परिवृत्ति अलंकार: परिसंख्या अलंकार: अर्थापत्ति अलंकार: विकल्प अलंकार: समुच्चय अलंकार: समाधि अलंकार: प्रत्यनीक अलंकार: प्रतीप अलंकार: प्रौढोक्ति अलंकार: ललित अलंकार: प्रहर्षण अलंकार: विषादन अलंकार: उल्लास अलंकार: अवज्ञा अलंकार: अनुज्ञा अलंकार: तिरस्कार अलंकार: लेश अलंकार: तद्गुण अलंकार: अतद्गुण अलंकार: मीलित अलंकार: सामान्य अलंकार: उत्तरालंकार: रसगंगाधरः - अथाधिकालंकार रसगंगाधर ग्रंथाचे लेखक पंडितराज जगन्नाथ होत. व्याकरण हा भाषेचा पाया आहे. Tags : grammerrasagangadharरसगंगाधरव्याकरणसंस्कृत अथाधिकालंकार Translation - भाषांतर आधाराधेययोरन्यतरस्यातिविस्तृतत्वसिद्धिफलकमितरस्यातिन्यून-त्वकल्पनमधिकम् ॥यथा-‘ लोकानां विपदं धुनोषि, तनुषे संपत्तिमत्युत्कटा-मित्यल्पेतरजल्पितैर्जडधियां भूपाल मा गा मदम् । यत्कीर्तिस्तव वल्लभा लघुतरब्रह्माण्डसद्मोदरे पिण्डीकृत्य महोन्नतामपि तनुं कष्टेन हा वर्तते ॥ ’अत्र ब्रह्माण्डस्यातिसूक्ष्मत्वकल्पनेन कीर्तेराधेयाया: परममहत्त्वं फलितम् तेन च व्याजस्तुति: परिपोष्यते ।‘ गिरामविषयो राजन्विस्तारस्तव चेतस: । सावकाशतया यत्र शेते विश्वाश्रयो हरि: ॥ ’अत्र सावकाशतयेत्यनेन कल्पितया आधेयन्यूनतया आधारस्य महत्त्वं पर्यवस्यति । यदि तु सावकाशतयेति विशेषणं विश्वाश्रय इत्यत्रापि योज्यते, तदा श्रृड्खलारूपस्याधाराधिकालंकारस्येदमेवोदाहरणम् ।‘ ब्रह्माण्डमण्डले भान्ति न ये पिण्डीकृता अपि । परस्परापरिचिता वसन्ति त्वयि ते गुणा: ॥’अत्रोभयविधस्याप्यलंकारस्य सामानाधिकरण्यम् । लक्षणे कल्पनमि-त्यनेन यत्राधाराधेययोरन्यतस्य न्यूनत्वमधिकत्वं च वास्तवं तत्र नाति-प्रसड्र: । एवं च-काहं तमोमहदहंखचराग्निवार्भू-संवेष्टिताण्डघटसप्तवितस्तिकाय: । क्केदृग्विधाविगणिताण्डपराणुचर्या-वाताध्वरोमविवरस्य च ते महित्वम् ॥ ’इति श्रीभागवतदशमस्कन्ध ( १४/११ ) गतं ब्रह्मस्तुतिपद्यमस्यालंका-रस्यानुदाहरणमेव । दिक्कालानवच्छिन्नस्य पारमेश्वरस्य भूम्न: सर्ववेदसि-द्धत्वेन कविप्रतिभानुल्लिखितत्वात् । एतेन-‘ द्यौरत्र क्कचिदाश्रिता, प्रविततं पातालमत्र क्कचि- त्क्काप्यत्रैव धरा धराधरजलाधारावधिर्वर्तते । स्फीतस्फीतमहो नभ: कियदिदं यस्येत्थमेभि: स्थितै-र्दूरे पूरणमस्तु शून्यमिति यन्नामापि नास्तं गतम् ॥ ’इत्यलंकारसर्वस्वकारेण यदुदाह्लतं तदपि प्रत्युक्तम् ।इति रसगंगाधरेऽधिकालंकारप्रकरणम् ॥ N/A References : N/A Last Updated : January 17, 2018 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP