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अध्याय ९०

श्रीवामनपुराण - अध्याय ९०

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - महर्षे ! उसके बाद वामनका रुप धारण करनेवाले वासुदेवके आनेपर पृथ्वी काँपने लगी, पर्वत अपने स्थानसे डिग गये, समुद्रमें जोरसे लहरें उठने लगीं और आकाशमें तारासमूहकी गति अव्यवस्थित हो गयी । यज्ञ भी अत्यन्त व्याकुल हो गया और सोचने लगा - न जाने मधुसूदन भगवान् वासुदेव आकर मेरी क्या गति करेंगे ? जैसे महेश्वरने मुझे दग्ध कर दिया था, क्या वासुदेव भी मुझे वैसे ही दग्ध ( ध्वस्त ) तो नहीं कर देंगे ? अग्नि विष्णुके भयसे श्रेष्ठ द्विजोंके द्वारा श्रद्धापूर्वक ऋग्वेद एवं सामवेदके मन्त्रोंकी आहुतियोंसे हवन किये गये यज्ञीय भागोंको ग्रहण नहीं कर रहे थे । उन घोर उत्पातोंको देखकर दानवेश्वर ( बलि ) - ने उशना शुक्राचार्यको प्रणाम किया तथा हाथ जोड़कर उनसे पूछा - आचार्यजी ! पर्वतोंके साथ पृथ्वी वायुके झोंकेसे केलेके वृक्षके समान क्यों काँप रही है और अग्निदेव भी विधिपूर्वक हवन किये गये आसुरीय भागोंको क्यों नहीं स्वीकार कर रहे हैं ? समुद्रमें भयंकर लहरें क्यों उठ रही हैं ? आकाशमें नक्षत्र पहलेकी भाँति क्यों नहीं सुव्यवस्थित रुपसे स्थित हैं और दिशाएँ क्यों अन्धकारसे भर गयी हैं ? गुरो ! मुझे आप कृपया यह बतलायें कि किसके अपराधसे यह सब हो रहा हैं ? ॥१ - ६॥

पुलस्त्यजी बोले - विरोचनपुत्रके द्वारा कहे गये उस वाक्यको सुननेके बाद पूछे गये प्रश्नके कारणको जानकर शुक्राचार्यने बलिसे कहा ॥७॥

शुक्राचार्यने कहा - दैत्येश्वर ! सुनो । निश्चय ही वासुदेव आ रहे हैं । इसीलिये अग्निदेव मन्त्रके द्वारा आहुति देनेपर भी आसुरीय भागोंको नहीं ग्रहण कर रहे हैं । दितीश ! उनके चरण रखनेके भारको सहन न कर सकनेके कारण पर्वतोंसहित पृथ्वी काँप रही है । दितिज ! पृथ्वीके कम्पनसे ये समुद्र आज तटका उल्लड्घन कर गये हैं ॥८ - ९॥

पुलस्त्यजी बोले - शुक्राचार्यका वचन सुनकर बलिने उनसे धर्मसे युक्त, सत्य, कल्याणप्रद और सभी प्रकारके उत्साहसे भरा वचन कहा ॥१०॥

बलिने कहा - भगवन् ! वासुदेवके आनेपर मेरे करने योग्य धर्म, काम एवं अर्थके तत्त्वको बतलायें । मैं उन्हें मणि, स्वर्ण, पृथ्वी, हाथी अथवा अश्वमेंसे क्या दान करुँ ? मैं मुरारिसे क्या कहूँ ? अपना अथवा उनका क्या कल्याण सिद्ध करुँ ? आप मुझे कल्याणकारी, मङ्गलमय तथा प्रिय तथ्य बतलायें । मैं वही करुँगा, अन्य कुछ नहीं करुँगा ॥११॥

पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! दैत्यपतिद्वारा कहे गये उस उत्तम वचनको सुननेके पश्चात् भूत एवं भविष्यके जाननेवाले भार्गवने विचार कर कहा - तुमने श्रुतिद्वारा प्रतिपादित मार्गमें अनाधिकृत असुरेन्द्रों ( दैत्यों ) - को यज्ञभागका भोक्ता बनाया है एवं वेदप्रमाणके अनुसार यज्ञभोक्ता देवोंको अधिकाररहित कर दिया है । इसी कारण हरि आ रहे हैं । दैत्य ! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया कि यज्ञमें उनके आनेपर क्या करना चाहिये, तो ( उसके विषयमें मेरा यह कहना है कि ) यज्ञमें तिनकेके नोकके बराबर भी पृथ्वी या सुवर्ण आदि ( कुछ भी ) उन्हें नहीं देना चाहिये । इस तरहका अर्तहीन और सामयुक्त वचन उनसे कहना चाहिये कि विभो ! जिसके पेटमें भूलोक, भुवर्लोक एवं स्वर्लोकके स्वामी तथा रसातलके शासक सदा निवास करते हैं ऐसे आपको दान देनेमें कौन समर्थ हो सकता हैं ? ॥१२ - १५॥

बलिने कहा - भार्गव ! मैंने निम्नकोटिकी वृत्तिवाले याचकके आनेपर भी यह बात नहीं कही कि मेरे पास कुछ नहीं है और मैं देना नहीं चाहता तो लोकपति जनार्दनके याचक बनकर आनेपर मैं इस प्रकार कैसे कह सकता हूँ । विभो ! सज्जनोंके द्वारा कही गयी इस तरहकी पवित्र सुनी जाती है कि ऐश्वर्य चाहनेवाले मनुष्यको ब्राह्मणोंके प्रति अच्छे भाव रखने चाहिये । ब्राह्मणश्रेष्ठ ! यह सत्य भी मालूम होता है कि वचन, शरीर एवं मनके द्वारा किये गये मनुष्योंके कर्म दूसरी योनियोंमें भी पहलेके अभ्याससे स्पष्टरुपसे प्रकट होते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! प्राचीन कालमें मलयपर्वतपर घटित हुई कोशकारके पुत्रकी प्राचीन कथाको क्या आपने नहीं सुना है ॥१६ - १९॥

शुक्राचार्यने कहा - महाबाहो ! कोशकारकी पुत्रसम्बन्धिनी पवित्र प्राचीन कथाको मुझसे कहो । उसे सुननेके लिये मुझे महान् कौतूहल हो रहा है ॥२०॥

बलिने कहा - भृगुकुलश्रेष्ठ ! पूर्वके अभ्याससे सम्बद्ध इस सत्य कथाको मैं यज्ञमें कह रहा हूँ; आप सुनें । ब्रह्मन् ! महर्षि मुद्गलका कोशकार नामसे प्रसिद्ध एवं ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न एक तपस्वी पुत्र था । उसकी पत्नीका नाम था धर्मिष्ठा । वह वात्स्यायनकी कन्या पतिव्रता, साध्वी, धर्मका आचरण करनेवाली तथा पतिकी सेवा करनेमें निष्ठा रखनेवाली थी । उस स्त्रीके गर्भसे एक पुत्र हुआ, जो स्वभावसे ही मूढ़ था । वह गूँगे मनुष्यकी तरह न बोलता और अन्धेकी भाँति वह देखता भी नहीं था । अपने उस जन्मे हुए पुत्रको मूर्ख, गूँगा और अंधा समझकर ब्राह्मणीने छठे दिन उसे घरके द्वारपर फेंक दिया । उसके बाद सूर्पाक्षी नामकी एक दुराचारिणी एवं नवजात बालकोंको चुरा लेनेवाली राक्षसी अपने दुबले - पतले पुत्रको लेकर वहाँ आयी और अपने पुत्रको वहाँ छोड़कर उसने ब्राह्मणपुत्रको उठा लिया । उसे लेकर खानेके लिये शालोदर नामक पर्वतपर चली गयी । उसके बाद उसे आयी हुई जानकर घटोदर नामके उसके अंधे पतिने पूछा - प्रिये ! तुम क्या लायी हो ? ॥२१ - २८॥

उसने कहा - राक्षसपते ! प्रभो ! मैं अपने बच्चेको कोशकार मुनिके घरमें रखकर उनके पुत्रको लायी हूँ । राक्षसने कहा - भद्रे ! तुमने यह ठीक नहीं किया । वह श्रेष्ठ ब्राह्मण महाज्ञानी तो है; किंतु वह ( इस कार्यसे ) कुपित होकर ( तुम्हें ) शाप दे देगा । सुन्दरि ! इसलिये शीघ्र इस रौद्र रुपवाले मनुष्यको छोड़कर तुम किसी दूसरेके पुत्रको ले आओ । ऐसा कहनेपर वह स्वच्छन्दचारिणी डरावनी राक्षसी आकाशमें उड़ती हुई शीघ्र ( वहाँ ) चली गयी । ब्रह्मन् ! घरके बाहर छोड़ा गया वह राक्षस - पुत्र भी मुखमें अँगूठा डालकर उच्च स्वरसे रोने लगा । उस धर्मिष्ठाने अधिक समयके बाद रुलाई सुनकर पतिसे कहा - मुनिश्रेष्ठ ! पुत्रको स्वयं देखिये, आपका यह पुत्र शब्द करने लगा । डरकर वह तपस्विनी गृहके भीतरसे बाहर निकली । उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने भी उस शिशुको देखा । अपने पुत्रके ही समान रंग और रुप आदिसे युक्त उस बालकको देखकर कोशकार मुनिने हँसकर अपनी पत्नीसे कहा ॥२९ - ३६॥

धर्मिष्ठे ! इस बालकके अंदर अवश्य कोई भूत प्रवेश कर गया है । हमलोगोंको धोखा देनेके लिये सुन्दर रुपवाला कोई ( भूत ) इस स्थानपर विद्यमान है । ऐसा कहकर उस मन्त्रवेत्ताने हाथमें कुशा लेकर मन्त्रोंके द्वारा भूमिको रेखासे अड्कितकर राक्षसपुत्रको बाँध दिया । इसी बीच सूर्पाक्षी वहाँ पहुँची और अदृश्यरुपमें ( छिपकर ) घरसे दूर स्थित होकर उसने ब्राह्मणके बालकको फेंका । फेंकते ही कोशकारने अपने उस पुत्रको पकड़ लिया । परंतु वह राक्षसी वहाँ जाकर अपने पुत्रको नहीं पकड़ सकी । दोनों ओरसे हाथ धोकर वह अपने पतिके पास गयी और अपने पुत्र तथा ब्राह्मणपुत्र दोनोंके खोनेकी घटना कह सुनायी । ब्रह्मन् ! इस प्रकार राक्षसीके चले जानेपर महात्मा ब्राह्मणने अपनी पत्नीको उस राक्षस - पुत्रको दे दिया । पिताने अपने पुत्रको सवत्सा कपिला गायके दूध, दही और ईखके रससे पालापोसा । दोनों ही बालक बढ़कर सात वर्षके हो गये । पिताने उन दोनोंका नाम निशाकर और दिवाकर रखा ॥३७ - ४४॥

राक्षसके बालकका नाम दिवाकीर्ति ( दिवाकर ) और ब्राह्मणके बालकका नाम निशाकीर्ति ( निशाकर ) था । ब्राह्मणने क्रमशः दोनोंका उपनयन - संस्कार किया । उपनयन ( जनेऊ ) हो जानेपर दिवाकर वेदपाठ करने लगा । किंतु निशाकर जड़ताके कारण वेदाध्ययन नहीं करता था - ऐसा हमलोगोंने सुना है । माता, पिता, भाई, बन्धुजन, गुरु और दूसरे मलयके निवासी उसकी निन्दा करने लगे । उसके बाद पिताने कुपित होकर उसे जलरहित कुएँमें फेंक दिया और ऊपरसे एक बड़ी शिलासे ढँक दिया । इस प्रकार कुएँमें फेंक दिये जानेपर वह बालक बहुत दिनोंतक वहाँ पड़ा रहा । उस कुएँमें एक आँवलेका छोटा वृक्ष ( क्षुप ) था । उस बालकके लालन - पालनके लिये उसमें फल लग गये । भार्गव ! उसके बाद दस वर्ष बीत जानेपर उसकी माँ अन्धकार भरे तथा पत्थरसे ढके हुए उस कुएँके पास गयी । उस कुएँको पर्वतके सदृश शिलासे ढके हुए देखकर उसने ऊँचे स्वरसे कहा - कुएँके ऊपर इस पत्थरको किसने रखा है ? कुएँके अंदर पड़े हुए पुत्र निशाकरने माताकी वाणी सुनकर कहा - मेरे पिताजीने कुएँपर इस शिलाको रखा है । इस वाणीको सुनकर वह अत्यन्त डर गयी और बोली - कुएँके भीतर इस अपूर्व स्वरवाले तुम कौन हो ? उसने भी कहा - मैं तुम्हारा पुत्र हूँ । मेरा नाम निशाकर है ॥४५ - ५३॥

उसने कहा - मेरे पुत्रका नाम तो दिवाकर है । निशाकर नामक मेरा कोई पुत्र नहीं है । उस बालकने मातासे अपनी पहलेकी घटित सारी घटना कह सुनायी । उसे सुननेके बाद माताने उस शिलाको उठाकर दूसरी ओर फेंक दिया । भगवन् ! उस बालकने कुएँसे ऊपर आकर माताके चरणोंकी वन्दना की । उसने अपनेसे उत्पन्न हुए और अपनेसे मिलते - जुलते रुपवाले बालकको सामने देखा । उसके बाद उस बालकको लेकर वह धर्मिष्ठा पतिके पास गयी और अपने पुत्रके सारे चरितको उससे कह सुनायी । उसके बाद उस ब्राह्मणने पूछा - पुत्र ! तुम पहले नहीं बोले, इसका क्या कारण है ? मुझे बहुत कुतूहल हो रहा है । उस बातको सुनकर बुद्धिमान् पुत्रने ब्राह्मणश्रेष्ठ कोशकार तथा मातासे अद्भुत वचन कहा ॥५४ - ५९॥

निशाकरने कहा - निष्पाप पिताजी ! मेरे द्वारा मूकता, जड़ता एवं अपने नेत्रोंके अन्धत्व ग्रहण करनेका कारण सुनिये । विप्र ! मैं पहले वृन्दारक ( सम्मानित देव ) - वंशमें मालाके गर्भसे उत्पन्न हुआ वृषाकपिका पुत्र था । तात ! पिताने मुझे धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धि देनेवाले शास्त्र तथा इतिहास और वेदसहित मुक्तिदायक ( दर्शन ) शास्त्रको पढ़ाया । तात ! मैं महाज्ञानी एवं लोक - ज्ञान और परलोक - ज्ञानमें कुशल था । उससे मैं अहंकारसे अन्धा होकर बुरे कर्ममें लग गया । मदसे मुझे लोभ हुआ । उससे मेरी वाक्पुटता नष्ट हो गयी । विवेकशक्तिके नष्ट हो जानेसे मैं विवेकहीन हो गया । मूढ़ताके कारण मैं पापी बन गया । मेरा मन दसरेकी स्त्री एवं धनमें आसक्त हो गया ।

परस्त्रीके साथ संसर्ग करने एवं दूसरोंके धनका हरण करनेके कारण कर्मफलके बन्धनसे ग्रस्त होनेपर मैं मरकर ( विवशतया ) रौरव नरकमें गया । एक हजार वर्षके बाद नरक - भोगसे बचे उस पापके कारण मैं पशुओंकी हत्या करनेवाला पापी बाघ होकर जंगलमें उत्पन्न हुआ ॥६० - ६७॥

तात ! एक प्रभावशाली राजाने व्याघ्रयोनिमें उत्पन्न हुए मुझको बाँधकर पिंजड़ेमें डाल दिया और अपने नगरमें ले गया । व्याघ्रकी योनिको प्राप्त हुए बन्धनसे ग्रस्त और पिंजड़ेमें पड़े हुए मुझे धर्म, अर्थ एवं कामसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी शास्त्र मनमें स्फुरित हो रहे थे । उसके कुछ समय बाद वह श्रेष्ठ राजा हाथमें गदा लिये एक वस्त्र धारणकर नगरसे बाहर चला गया । उसकी जिता नामकी भार्या मृत्युलोकमें अनुपम सुन्दरी थी । पतिके बाहर जानेपर वह मेरे पास आयी । उसे देखकर पूर्व अभ्यासके कारण धर्मशास्त्रोंके ज्ञानकी वृद्धिकी तरह मेरे मनमें कामना बढ़ने लगी । उसके बाद मैंने उससे कहा - हे नवयौवनशालिनी सुकल्याणी ! राजपुत्री ! तुम मेरा मन उसी प्रकार हरण करती हो जिस प्रकार कोयल अपनी कूकसे लोगोंके चित्तको । उस सुन्दरीने मेरा वचन सुनकर कहा - व्याघ्र ! हम दोनोंका सम्भोग कैसे सम्भव है ? तात ! उसके बाद मैंने उस सुन्दरी राजपुत्रीसे कहा - तुम अभी पिंजड़ेका द्वार खोलो, मैं शीघ्र बाहर निकल आऊँगा ॥६५ - ७५॥

उसने कहा - व्याघ्र ! दिनमें लोग देखेंगे । रात्रिमें खोलूँगी, तब इच्छानुकूल हम दोनों विहार करेंगे । मैंने पुनः उससे कहा - देर करनेमें मैं असमर्थ हूँ । इसलिये द्वार खोलो और मुझे बन्धनसे मुक्त करो । उसके बाद उस सुन्दरीने द्वार खोल दिया । द्वार खुलनेपर मैं क्षणमात्रमें बाहर निकला । मैंने बलपूर्वक बेड़ी आदि बन्धनोंको तोड़ डाला और उस राजाकी पत्नीको रमण करनेकी कामनासे पकड़ लिया । उसके बाद राजाके अतुल पराक्रमी अनुचरोंने मुझे देखा और हाथमें शस्त्र लेकर उन लोगोंने मुझे चारों ओरसे घेर लिया । मोटी रस्सियों और जंजीरोंसे बाँधकर उन लोगोंने मुझे मुदगरोंसे बहुत मारा । मारे जाते समय मैंने उनसे कहा - तुमलोग मुझे मत मारो । तपोधन ! मेरा वचन सुनकर उन लोगोंने मुझे राक्षस समझा और वृक्षमें कसकर बाँधकर मार डाला । परस्त्री - सेवनके कारण फिर मैं नरकमें गया और हजारों वर्षोंके बाद वहाँसे छुटकारा होनेपर मैं सफेद गदहेकी योनिमें जनमा ॥७६ - ८३॥

उस योनिमें मैं अनेक स्त्रियोंवाले अग्निवेश्य नामके ब्राह्मणके घरमें रहता था । वहाँ भी पूर्वजन्ममें अर्जित सारे ज्ञानोंका आभास मुझे हो रहा था । ब्राह्मणके घरकी स्त्रियोंने मुझे प्रेमसे सवारीके काममें लगाया । एक समय उस ब्राह्मणकी नवराष्ट्रदेशकी विमति नामक पत्नी अपने पिताके घर जानेके लिये उत्सुक हुई । उसके पतिने उससे कहा - इस सफेद गदहेपर सवार होकर चली जाओ और एक महीनेके भीतर च\ली आना । उससे अधिक समयतक न रहना । मुने ! पतिके इस प्रकार कहनेपर वह सुन्दरी मेरा बन्धन खोल तत्कालमेरे ऊपर सवार हुई और चल पड़ी । उसके बाद आधे मार्गमें वह सुन्दरी मेरी पीठसे उतरकर नदीमें नहानेके लिये उतरी । भींगे वस्त्र होनेसे उसका अड्ग स्पष्ट दिखायी पड़ा । उस सर्वाङ्गसुन्दरीको देखकर मैं उसकी ओर झपटा । मेरे झपटनेपर वह तत्काल पृथ्वीपर गिर पड़ी । तात ! मैं अत्यन्त आतुर होकर उसके ऊपर गिर गया । ब्रह्मन् ! स्वामीके आदेशसे उस स्त्रीके पीछे - पीछे आनेवाले अनुचरने मुझे देख लिया और डंडा उठाकर वह वेगसे मेरी ओर दौड़ पड़ा ॥८४ - ९१॥

उसके आतड्कसे उस स्त्रीको छोड़कर मैं उसी समय दक्षिण दिशाकी ओर भागा । मुने ! बहुत शीघ्रतासे दौड़ते हुए मेरी लगामकी रस्सी प्राणघातिनी बाँसकी विकट झाड़ीमें फँस गयी । वहाँ फँसा हुआ मैं छः रातके बाद मर गया । उसके बाद मुझे फिर नरकमें जाना पड़ा । वहाँसे छुटकारा पानेके बाद मैं शुक पक्षीकी योनिमें उत्पन्न हुआ । उस योनिमें विशाल वनमें दुष्टात्मा शबरने मुझे बाँध लिया । पिंजड़ेमें रखकर ( उसने मुझे ) एक गृहस्थ वणिक्पुत्रके हाथ बेच दिया । उसने भी उत्तम महलमें युवतियोंके पास मुझे सम्पूर्ण शास्त्रका जाननेवाला तथा दोषोंको दूर करनेवाला समझकर रख दिया । पिताजी ! वहाँ रहते समय वे युवतियाँ प्रतिदिन मुझे भात, जल, अनारके फल तथा अन्य भक्ष्य पदार्थ खिलाकर पालने लगीं । एक समय वणिक्पुत्रकी कमलदलके समान नेत्रोंवाली श्यामा, विशाल स्तनों तथा सुन्दर जंघाओं एवं सूक्ष्न कटिवाली कल्याणी चन्द्रावली नामकी प्रियाने पिंजड़ेको खोला । मधुर मुसकानवाली सुन्दरीने मुझे दोनों हाथोंमें पकड़ लिया और अपने दोनों स्तनोंपर रख लिया ॥९२ - ९९॥

उसके बाद मैंने चन्द्रावलीके साथ विहार करनेका आशय प्रकट किया । तब पापमें आसक्त होकर घूमता हुआ मैं उसके हारमें बंदरके बन्धनकी भाँति बँधकर मर गया । मैं पुनः अत्यन्त पापमय बुद्धि होनेके कारण भयंकर नरकमें पड़ गया । उसके बाद मैं बैल होकर चाण्डालके घरमें पहुँचा । उसने एक दिन मुझे गाड़ीमें जोतकर उस गाड़ीपर अपनी स्त्रीको चढ़ाया । इस प्रकार वनमें जानेकी इच्छासे वह महातेजस्वी चाण्डाल आगे चला और उसके पीछे वह गाती हुई चली । उसका गान सुनकर मेरी इन्द्रियाँ विकल हो उठीं । मैंने पीछे घूमकर देखा और कूदा तथा उलट गया । क्षणमात्रके विपरीत गतिके कारण मैं मैं भूमिपर गिर पड़ा और रस्सीमें अत्यन्त बँध जानेसे मृत्युको प्राप्त हो गया । मैं फिर हजार वर्षतक नरकमें पड़ा रहा । वहाँसे अपने पूर्व जन्मका स्मरण करता हुआ मैं आपके गृहमें उत्पन्न हुआ हूँ । मैं आज उन्हीं जन्मोंका क्रमशः स्मरण कर रहा हूँ । पूर्व अभ्याससे मुझे शास्त्रोंका ज्ञान तथा बन्धन मिला है । अतः ज्ञानी होकर मैं मन, कर्म और वाणीसे कभी घोर पापकर्मोंका आचरण नहीं करुँगा ॥१०० - १०८॥

मङ्गल, अमङ्गल, स्वाध्याय, शास्त्रजीविका, बन्धन या वध पूर्व अभ्यासवश ही होते हैं । तात ! मनुष्यको जब अपने पूर्व - जन्मका स्मरण होता है तब वह उन पापोंसे दूर रहता है । अतः मुने ! शुभकी वृद्धि और पापके क्षयके लिये मैं वनमें जाऊँगा । आप इस सुपुत्र दिवाकीर्तिको गृहस्थधर्ममें लगायें ॥१०९ - १११॥

बलिने कहा - महर्षे ! इस प्रकार कहनेके बाद माता - पिताको प्रणाम कर वह निशाकर भगवान् नारायणके श्रेष्ठ सुप्रसिद्ध पवित्र निवास बदरिकाश्रममें चला गया । इसी प्रकार पूर्वके अभ्यासवश मनुष्यके दान एवं अध्ययन आदि कार्य होते हैं । द्विजवर ! इसीसे निश्चय हूँ । महर्षे ! नाथ ! दान, तप, अध्ययन, चोरी, महापातक, अग्निदाह, ज्ञान, धर्म, अर्थ एवं यश आदि सभी पूर्वजन्मोंके अभ्याससे उत्पन्न होते हैं ॥११२ - ११४॥

पुलस्त्यजी बोले - दैत्येश्वर बलवान् बलि अपने गुरु और नियमन करनेवाले शुक्राचार्यसे इस प्रकार कहकर मधुकैटभके संहारकारी चक्र - गदा तथा खड्ग धारण करनेवाले नारायणका ध्यान करने लगा ॥११५॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें नब्बेवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥९०॥

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Last Updated : January 24, 2012

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