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अध्याय ८८

श्रीवामनपुराण - अध्याय ८८

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - दानवेश्वर प्रह्लादके तीर्थयात्राके लिये चले जानेपर विरोचनका पुत्र बलि कुरुक्षेत्रमें यज्ञ करनेके लिये गया । उस महान् धर्मयुक्त तीर्थमें ब्राह्मणश्रेष्ठ शुक्राचार्यने द्विजोंमें अत्यन्त श्रेष्ठ भार्गवोंको आमन्त्रित किया । भृगुवंशीय ब्राह्मणोंका आमन्त्रित किया जाना सुनकर अत्रि, गौतम, कौशिक और अङ्गिरागोत्रीय ब्राह्मणोंने कुरुजाङ्गलका त्याग कर दिया । वे उत्तर दिशामें शतदु नदीके तटपर गये । शतद्रुके जलमें स्त्रान करनेके बाद वे वहाँसे विपाशा नदीके निकट चले गये । वहाँ भी मनके अनुकूल न होनेके कारण वे सब स्त्रान करनेके पश्चात् पितरों एवं देवोंका पूजन कर सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न किरणा नदीके समीप गये । देवर्षे ! उसमें स्त्रान और अर्चन करनेके बाद सभी महर्षि पवित्र जलवाली ऐरावती नदीके निकट गये तथा उसमें स्त्रान करके ईश्वरी नदीके तटपर चले गये । मुने ! देविका और पयोष्णीमें स्त्रान करके आत्रेय आदि तपस्वियोंने शुभा नामकी नदीमें स्त्रान करनेके लिये प्रवेश किया । द्विजश्रेष्ठ ! जलमें गोता लगानेपर उन लोगोंने जलके भीतर महान् आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली अपनी - अपनी परछाईं देखी ॥१ - ८॥

महर्षियोंने डुबकी लगानेके बाद जब सिर ऊपर किया, तब पुन्ह वैसा ही देखा; इससे वे आश्चर्यमें भर गये । उसके बाद स्त्रान करके सभी ऋषि बाहर निकले । ब्रह्मन् ! उसके पश्चात् वे सभी लोग यह क्या है ? - इस विषयमें आश्चर्यपूर्वक आपसमें बातचीत एवं विचारविमर्श करते हुए वहाँसे भी चले गये । उसके बाद उन लोगोंने दूरसे ही अतिविस्तृत, शंकरके कण्ठकी भाँति श्यामवर्णवाले और पक्षियोंकी ध्वनिसे भरा एक वृक्षोंका समूह ( वन ) देखा । नारदजी ! वह वन अत्यन्त ऊँचा होनेके कारण आकाशको घेरे हुए था तथा उसकी नीचेकी भूमि बिखरे हुए फूलोंसे ढकी रहती थी । वह वन तारागणोंसे जगमगाते हुए आकाशके समान खिले हुए पँचरंगे वृक्षोंसे बहुत सुन्दर लग रहा था । कमलवनके समान कमलोंसे व्याप्त, पुण्डरीकोंसे विभूषित एवं कोकनदोंसे भरे उस वनको देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न एवं गदगद हो गये । वे लोग संतुष्ट - चित्तसे उसमें इस प्रकार प्रविष्ट हुए, जिस प्रकार हंस महासरोवरमें प्रवेश करते हैं । मुनिसत्तम ! उन लोगोंने उसके बीचमे लोकपालोंके चार वर्गों ( धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ) - का लोकपूजित पवित्र आश्रम देखा ॥९ - १६॥

ब्रह्मन् ! पूर्व दिशाकी ओर मुखवाला पलाशवृक्षसे घिरा हुआ धर्माश्रम, पश्चिममुख इक्षुवनसे घिरा हुआ अर्थाश्रम, दक्षिणकी ओर कदली और अशोकके वनसे घिरा हुआ कामाश्रम तथा उत्तरकी ओर शुद्धस्फटिकके समान तेजस्वी मोक्षाश्रम स्थित था । सत्ययुगके अन्तमें मोक्ष अपने आश्रममें निवास करने लगता है, त्रेतामें काम आश्रमवासी हो जाता है, द्वापरके अन्तमें अर्थ आश्रमी बन जाता है और कलिके आदिमें धर्म आश्रममें रहना प्रारम्भ करता है । अव्यय, आत्रेय आदि मुनियोंने उन आश्रमोंको देखकर अखण्ड जलसे परिपूर्ण उस स्थानमें सुखसे रहनेका निश्चय किया । धर्म आदिके द्वारा भगवान् विष्णु अखण्ड नामसे विख्यात हैं । जगन्नाथ चार मूर्तियोंवाले हैं, यह पहलेसे ही निश्चित है । नारदजी ! बहुश्रुत योगात्मा ऋषिलोग सेवा, तप और ब्रह्मचर्यके द्वारा उनकी पूजा करते हैं । असुरोंसे त्रस्त होकर वे मुनिगण सम्मिलितरुपसे उस अखण्ड पर्वतका भलीभाँति आश्रयण कर रहने लगे । ब्रह्मन् ! केवल पत्थरसे कूटे हुए अन्नको खानेवाले वानप्रस्थी साधु तथा सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले अन्य ब्राह्मण आदि कालिन्दीके जलमें स्त्रान कर दक्षिण दिशाकी ओर चले गये ॥१७ - २४॥

वे विष्णुभगवानकी कृपासे महान् असुरोंके कारण प्रवेश पानेमें कठिन अवन्ति नगरीमें पहुँचे और उनके निकट रहने लगे । दानवोंके डरसे विवश होकर बालखिल्य आदि ब्रह्मचारी ऋषि रुद्रकोटि चले गये और वहाँ रहने लगे । मुने ! इस प्रकार गौतम और आड्गिरस आदि ब्राह्मणोंके यज्ञ - कार्यमें ले गये । अमिततेजस्विन् ! भार्गववंशीय ब्राह्मणोंसे अधिकृत शुक्राचार्यने बलिको महायज्ञमें स्वयं विधिवत् यज्ञकी दीक्षा दी । श्वेत वस्त्र धारण करनेवाले, श्वेत माल्य एवं अनुलेपनसे युक्त, मृगचर्मसे आवृत एवं मयूरपुच्छसे सुसज्जित दैत्य बलिने हयग्रीव, प्रलम्ब, मय एवं बाण आदि सदस्योंसे घिरे हुए विस्तृत यज्ञमण्डपमें आसन ग्रहण किया । उसकी पत्नी विन्ध्यावली भी यज्ञकर्ममें दीक्षित हुई । वह ऋषिकन्या हजारों ललनाओंमें प्रधान थी । शुक्राचार्यने चैत्रमासमें सुलक्षण अश्व पृथ्वीपर विचरण करनेके लिये छोड़ा । तारकाक्ष नामका असुर उसके पीछे - पीछे चलने लगा ॥२५ - ३२॥

इस प्रकार उस अश्वके छोड़े जानेपर यज्ञकर्मके चलते हुए अग्निमें हवन करते तीन मास व्यतीत हो जानेपर तथा दैत्योंके पूजित होने और सूर्यके मिथुन राशिमें सड्क्रमण करनेपर देवमाता अदितिने वामनके आकारवाले माधवको जन्म दिया । महर्षे ! उन भगवान् , ईश, नारायण, लोकपति पुराण - पुरुषके अवतार होते ही ब्रह्मा महर्षियोंके साथ उनके निकट गये तथा ( उन ) विभुकी स्तुति करने लगे । हे सत्त्वमूर्ते ! हे माधव ! आपको नमस्कार है । हे शाश्वत ! हे विश्वरुप ! आपको नमस्कार है । शत्रुरुपी वनके ईधनके लिये हे अग्निस्वरुप ! आपको नमस्कार है । पापरुपी वनके लिये हे महादवाग्निस्वरुप ! आपको नमस्कार है । हे पुण्डरीकाक्ष ! आपको नमस्कार है । हे विश्वकी सृष्टि करनेवाले ! आपको नमस्कार है । हे जगतके आधार ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे नारायण ! हे जगन्मूर्ते ! हे जगन्नाथ ! हे गदाधर ! हे पीताम्बर धारण करनेवाले ! हे लक्ष्मीपते ! हे जनार्दन ! आपको नमस्कार है । आप पालन करनेवाले, रक्षक, विश्वकी आत्मा, सर्वत्र गमन करनेवाले, अविनाशी, सबको धारण करनेवाले, पृथ्वीको धारण करनेवाले तथा रुप धारण करनेवाले हैं । आपको नमस्कार है । हे देवपूजित ! हे सारी त्रिलोकीको बढ़ानेवाले ! आपका अभ्युदय हो । हे दैवतपते ! आप इन्द्रके आँसू पोंछें । आप धाता, विधाता, संहर्ता, महेश्वर, महालय, महायोगी और योगशायी हैं । आपको नमस्कार है ॥३३ - ४१॥

इस प्रकारकी स्तुति किये जानेपर सर्वात्मा, सर्वगामी जगन्नाथभगवान् श्रीहरिने कहा - विभो ! मेरा उपनयन - संस्कार कीजिये । उसके बाद बृहस्पतिवंशमें उत्पन्न महातेजस्वी तपोधन भरद्वाजने वामनकी जातकर्म आदि सभी क्रियाएँ सम्पन्न करायीं । उसके पश्चात् सभी शास्त्रोंके वेत्ता भरद्वाजने ईश्वरका व्रतबन्ध ( यज्ञोपवीत ) कराया । उसके बाद अन्य सभीने प्रसन्न होकर वटुकको क्रमशः श्रेष्ठदान दिये । पुलहने यज्ञोपवीत, मैं ( पुलस्त्य ) - ने दो शुक्ल वस्त्र, अगस्त्यने मृगचर्म तथा भरद्वाजने मेखला दी । ब्रह्माके पुत्र मरीचिने पलाशदण्ड, वारुणि ( वसिष्ठ ) - ने अक्षसूत्र एवं अङ्गिराने रेशमी वस्त्र तथा वेद दिया ॥४२ - ४६॥

राजा रघुने छत्र, नृगने एक जोड़ा जूता एवं अत्यन्त तेजस्वी बृहस्पतिने विष्णुको कमण्डलु दिया । इस प्रकार उपनयन - संस्कार हो जानेपर ऋषियोंसे संस्तुत होते हुए भगवान् भूतभावनने ( शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्यौतिष - इन ) अङ्गोंके साथ चारों वेदोंका अध्ययन किया । मुने ! उन्होंने आङ्गिरस भरद्वाजसे गन्धर्वविद्याके साथ महान् आख्यानोंसे पूर्ण महाध्वन्यात्मक सामवेदका अध्ययन किया । इस प्रकार ज्ञानस्वरुप वेदके अगाध समुद्र भगवान् एक मासमें लोकाचारके व्यवहारके लिये वेदविशारद हो गये । समस्त शास्त्रोंमें निपुण होकर अक्षय, अव्यय वामनने ब्राह्मणश्रेष्ठ भरद्वाजजीसे यह वचन कहा ॥४७ - ५१॥

श्रीवामनजीने कहा - ब्रह्मन् ! मैं अत्यन्त उत्तम कुरुक्षेत्र - तीर्थमें जाना चाहता हूँ । आप आज्ञा दीजिये । वहाँ दैत्यराज बलिका पवित्र अश्वमेध यज्ञ हो रहा है । देखिये, पृथ्वीतलपर पुण्यकी वृद्धि करनेवाले मेरे स्थानोंमें तेजोंका समावेश हो रहा है । अतः मुझे यह मालूम हो रहा है कि बलि कुरुक्षेत्रमें स्थित हैं ॥५२ - ५३॥

भरद्वाजजीने कहा - आप अपनी इच्छासे यहाँ रहें अथवा जायँ । मैं आपको आदेश नहीं दूँगा । विष्णो ! हमलोग बलिके यज्ञमें जायँगे । आप चिन्ता न करें । देव ! मैं आपसे जो पूछता हूँ उसे आप बतलायें । विभो ! पुरुषोत्तम ! मैं यथार्थरुपसे यह जानना चाहता हूँ कि आप किन - किन स्थानोंमें रहते हैं ॥५४ - ५५॥

श्रीवामनजी बोले - गुरो ! अनेक रुपोंसे युक्त होकर जिन - जिन पवित्र स्थानोंमें मैं रहता हूँ, उनका मैं वर्णन कर रहा हूँ; उसे आप सुनें । भरद्वाजजी ! मेरे अनुरुप मेरे अवतारोंसे पृथ्वी, आकाश, पाताल, समुद्र, स्वर्ग, सभी दिशाएँ, पर्वत तथा मेघ व्याप्त हैं । ब्रह्मन् ! दिव्य, पार्थिव, जलचर, आकाशचर, स्थावर, जङ्गम, इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, यम, वसु, वरुण, सभी अग्नियाँ, समस्त प्राणियोंके पालक, ब्रह्मासे लेकर स्थावरतक पशु - पक्षिसहित सभी मूर्त और अमूर्त पदार्थ, भाँतिभाँतिके गुणोंसे सम्पन्न - ये सभी पदार्थ पृथ्वीकी पूर्तिके लिये मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं । पृथ्वीपर स्थित ये सभी मुख्य पदार्थ देवों, सिद्धों एवं दानवोंके पूजनीय हैं । द्विजश्रेष्ठ ! इनके कीर्तन एवं दर्शनमात्रसे पाप शीघ्र नष्ट हो जाता है ॥५६ - ५९॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अट्ठासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८८॥

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Last Updated : January 24, 2012

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