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अध्याय ८६

श्रीवामनपुराण - अध्याय ८६

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - हे जगन्नाथ ! आपको नमस्कार है । हे देवदेव ! आपको नमस्कार है । हे वासुदेव ! आपको नमस्कार है । हे अनन्त रुप धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है । हे एकश्रृङ्ग ! आपको नमस्कार है । हे वृषाकपे ! आपको नमस्कार है । हे श्रीनिवास ! आपको नमस्कार है । हे भूतभावन ! आपको नमस्कार है । हे विष्वक्सेन ! आपको नमस्कार है । हे नारायण ! आपको नमस्कार है । हे ध्रुवध्वज ! आपको नमस्कार है । हे सत्यध्वज ! आपको नमस्कार है । हे यज्ञध्वज ! आपको नमस्कार है । हे धर्मध्वज ! आपको नमस्कार है । हे तालध्वज ! आपको नमस्कार है । हे गरुड़ध्वज ! आपको नमस्कार है । हे वरेण्य ! हे विष्णो ! हे वैकुण्ठ ! हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे जयन्त ! हे विजय ! हे जय ! हे अनन्त ! हे पराजित ! आपको नमस्कार है । हे कृतावर्त ! हे महावर्त ! हे महादेव ! आपको नमस्कार है । हे अनादि एवं आदि और अन्तमें विद्यमान ! हे मध्यान्त ! ( मध्य और अन्तवाले ) हे पद्मजप्रिय ! आपको प्रणाम है । हे पुरञ्जय ! आपको नमस्कार है । हे शत्रुञ्जय ! आपको प्रणाम है । हे शुभञ्जय ! आपको प्रणम है । हे धनञ्जय ! आपको प्रणाम है । सृष्टिगर्भ ! हे सृष्टिको अपनेमें सुरक्षित रखनेवाले ! श्रवणमात्रसे ही पवित्र कर देनेवाले हे शुचिश्रवः ! आर्तजनोंकी पुकारको विशाल कर्णोंसे सुननेवाले हे पृथुश्रवः ! आपको नमस्कार है । आप हिरण्यगर्भको नमस्कार है । आप पद्मगर्भको नमस्कार है ॥१ - ८॥

आप कमलनेत्रको प्रणाम है । आप कालनेत्रको प्रणाम है । हे कालनाभ ! आपको प्रणाम है । हे महानाभ ! आपको बारम्बार प्रणाम है । हे वृष्टिमूल ! हे महामूल ! हे मूलावास ! आपको प्रणाम है । हे धर्मावास ! हे जलावास ! हे श्रीनिवास ! आपको प्रणाम है । हे धर्माध्यक्ष ! हे प्रजाध्यक्ष ! हे लोकाध्यक्ष ! आपको बार - बार प्रणाम है । हे सेनाध्यक्ष ! आपको प्रणाम है । हे कालाध्यक्ष ! आपको प्रणाम है । हे गदाधर ! हे श्रुतिधर ! हे चक्रधर ! हे श्रीधर ! वनमाला और पृथ्वीको धारण करनेवाले हे हरे ! आपको प्रणाम है । हे आर्चिषेण ! हे महासेन ! हे पुरुसे स्तुत ! आपको प्रणाम है । हे बहुकल्प ! हे महाकल्प ! हे कल्पनामुख ! आपको प्रणाम है । हे सर्वात्मन् ! हे सर्वग ! हे विभो ! हे विरिञ्चिन् ! हे श्वेत ! हे केशव ! हे नील ! हे रक्त ! हे महानील ! हे अनिरुद्ध ! आपको नमस्कार है । हे द्वादशात्मक ! हे कालात्मन् ! हे सामात्मन् ! हे परमात्मक ! हे आकाशात्मक ! हे सुब्रह्मन् ! हे भूतात्मक ! आपको प्रणाम है । हे हरिकेश ! हे महाकेश ! हे गुडाकेश ! आपको प्रणाम है । हे मुञ्जकेश ! हे हषीकेश ! हे सर्वनाथ ! आपको प्रणाम है ॥९ - १६॥

हे सूक्ष्म ! हे स्थूल ! हे महास्थूल ! हे महासूक्ष्म ! हे शुभङ्कर ! हे उज्ज्वल - पीले वस्त्रको धारण करनेवाले ! हे नीलवास ! आपको प्रणाम है । हे कुशपर शयन करनेवाले ! हे पद्मपर शयन करनेवाले ! हे जलमें शयन करनेवाले ! हे गोविन्द ! हे प्रीतिकर्तः ! हे हंस ! हे पीताम्बरप्रिय ! आपको नमस्कार है । हे अधोक्षज ! हे सीरध्वज ! हे जनार्दन ! आपको प्रणाम है ! हे वामन ! आपको प्रणाम है । हे मधुसूदन ! आपको प्रणाम है । आप सहस्त्र सिरवालेको नमस्कार है । आप ब्रह्मशीर्षको प्रणाम है । आप सहस्त्रनेत्र और चन्द्र, सूर्य तथा अग्निरुपी आँखवालेको प्रणाम है । अथर्वशिराको नमस्कार है । महाशीर्षको प्रणाम है । धर्मनेत्रको प्रणाम है । महानेत्रको प्रणाम है । सहस्त्रपादको नमस्कार है । सहस्त्रों भुजाओं एवं सहस्त्रों यज्ञोंवालेको नमस्कार है । यज्ञवराहको नमस्कार है ! आप महारुपको नमस्कार है । विश्वदेवको प्रणाम है । हे विश्वात्मन् ! हे विश्वसम्भव ! हे विश्वरुप ! आपको नमस्कार है । आपसे यह विश्व उत्पन्न हुआ है । आप न्यग्रोध और महाशाख हैं आप ही मूलकुसुमार्चित हैं । स्कन्ध, पत्र, अङ्कुर, लता एवं पल्लवस्वरुप आपको नमस्कार है ॥१७ - २४॥

ब्रह्मन् ! ब्राह्मण आपके मूल हैं । प्रभो ! क्षत्रिय आपके स्कन्ध, वैश्य शाखा एवं शूद्र पत्ते हैं । वनस्पते ! आपको नमस्कार है । अग्निसहित ब्राह्मण आपके मुख एवं शस्त्रसहित क्षत्रिय आपकी भुजाएँ हैं । वेश्य आपके दोनों जाँघोंके पार्श्वभागसे तथा शूद्र आपके चरणोंसे उत्पन्न हुए हैं । आपके नेत्रसे सूर्य उत्पन्न हुए हैं । आपके चरणोंसे पृथ्वी, कानोंसे दिशाएँ, नाभिसे अन्तरिक्ष तथा मनसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए हैं । आपके प्राणसे वायु कामसे पितामह ब्रह्मा, क्रोधसे त्रिनेत्र रुद्र और सिरसे द्युलोक आविर्भूत हुए हैं । आपके मुखसे इन्द्र और अग्नि, मलसे पशु तथा रोमसे ओषधियाँ उत्पन्न हुई । आप विराज हैं । आपको नमस्कार है । हे पुष्पहास ! आपको प्रणाम है । हे महाहास ! आपको प्रणाम है । आप ओङ्कार, वषट्कार और वौषट् हैं । आप स्वधा और सुधा हैं । हे स्वाहाकार ! आपको प्रणाम है । हे हन्तकार ! आपको प्रणाम है । हे सर्वाकार ! हे निराकार ! हे वेदाकार ! आपको प्रणाम है । आप वेदमय देव तथा सर्वदेवमय हैं । आप सर्वतीर्थमय और सर्वयज्ञमय हैं ॥२५ - ३२॥

यज्ञपुरुष ! आपको प्रणाम है । हे यज्ञभागके भोक्तः ! आपको प्रणाम है । सहस्त्रधार और शतधारको प्रणाम है । भूर्भुवः स्वः स्वरुप, गोदाता, अमृतदाता, सुवर्ण और ब्रह्म ( संसारके निमित्त और उपादान कारण आदि ) - के भी जन्मदाता तथा सर्वदाता आपको प्रणाम है । आप ब्रह्मेशको नमस्कार है । हे ब्रह्मादि ! हे ब्रह्मरुपधारिन् ! हे परमब्रह्म ! आपको प्रणाम है । हे शब्दब्रह्म ! आपको प्रणाम है । आप ही विद्या, आप ही वेद्यरुप तथा आप ही जानने योग्य हैं । आप ही बुद्धि, बोध्य और बोधरुप हैं । आपको प्रणाम है । आप होता, होम, हव्य, हूयमान द्रव्य तथा हव्यवाट् , पाता, पोता, पूत तथा पावनीय ओङ्कार हैं । आपको नमस्कार है । आप हन्ता, हन्यमान, हियमाण, हर्ता, नेता, नीति, पूज्य, श्रेष्ठ तथा संसारको धारण करनेवाले हैं । आप स्रुक्, स्रुव, परधाम, कपाली, उलूखल, अरणि, यज्ञपात्र, आरणेय, एकधा, त्रिधा और बहुधा हैं । आप यज्ञ हैं और आप यजमान हैं । आप स्तुत्य और याजक हैं । आप ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान, ध्येय, ध्याता तथा ईश्वर हैं । आप ध्यानयोग, योगी, गति, मोक्ष, धृति, सुख, योगाङ्ग, ईशान एवं सर्वग हैं । आपको नमस्कार है ॥३३ - ४१॥

आप ब्रह्मा, होता, उद्गाता, साम, यूप, दक्षिणा तथा दीक्षा हैं । आप पुरोडाश एवं आप ही पशु तथा पशुवाही हैं । आप गुह्य, धाता, परम, शिव, नारायण, महाजन, निराश्रय तथा हजारों सूर्य और चन्द्रमाके समान रुपवान् हैं । आप बारह अरों, छः नाभियों, तीन व्यूहों एवं दो युगोंवाले कालचक्र तथा ईश एवं पुरुषोत्तम हैं । आपको नमस्कार है । आप पराक्रम, विक्रम, हयग्रीव, हरीश्वर, नरेश्वर, ब्रह्मेश और सूर्येष है । आपको नमस्कार है । आप अश्ववक्त्र, महामेधा, शम्भु, शक्र, प्रभञ्जन, मित्रावरुणकी मूर्ति, अमूर्ति, निष्पाप और श्रेष्ठ हैं । आप प्राग्वंशकाय ( मूलपुरुष ), भूतादि, महाभूत, अच्युत और द्विज हैं । आप ऊर्ध्वकर्त्ता, ऊर्ध्व और ऊर्ध्वरेता हैं । आपको नमस्कार है । आप महापातकोंका विनाश करनेवाले तथा उपपातकोंके नाशक हैं । आप सभी पापोंसे निर्लिप्त हैं । मैं आपकी शरणमें आया हूँ । मुने ! प्राचीन कालमें महेश्वरने सम्पूर्ण पापोंसे मुक्ति देनेवाले इस श्रेष्ठ स्तोत्रको वाराणसीमें कहा था । तीर्थके स्वच्छ जलमें स्त्रान कर केशवका दर्शन करनेसे रुद्र पापके प्रभावसे मुक्त एवं शान्त हुए थे । महर्षे ! त्रिपुरारिके द्वारा कहे गये इस स्तोत्रका पाठ करनेसे विष्णुभक्त मनुष्य पापसे मुक्त और सौम्य होकर प्रसिद्ध तथा श्रेष्ठ देवताओंसे पूजित होता है ॥४२ - ५१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छियासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८६॥

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Last Updated : January 24, 2012

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