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अध्याय ८५

श्रीवामनपुराण - अध्याय ८५

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) ब्राह्मणसे वैर और घृणा रखनेवाला, चुगलखोर, दूसरोंको कष्ट देनेवाला, नीच, स्वभावसे भी निर्दय एक अधम क्षत्रिय था । उसने सदा ही पितरों, देवों एवं द्विजातियोंका अपमान किया । आयु समाप्त होनेपर वह भयंकर राक्षस हुआ । अपने उसी कर्मके दोष एवं विशेषकर राक्षस होनेके कारण वह नीच पापी अशुभ कर्मोंद्वारा जीवनका निर्वाह करता रहा । पापकर्म करते हुए उसके सौ वर्ष बीत गये । उसी कर्म - दोषके कारण जीविकाके दूसरे साधनोंमें उसकी इच्छा नहीं होती थी । वह निन्दनीय कर्म करनेवाला राक्षस जिस प्राणीको देखता उसे अपनी भुजाओंसे पकड़कर खा जाता था ॥१ - ५॥

इस प्रकार प्राणियोंका संहार करते हुए उस अतिदुष्टका अधिक समय बीत गया और उसकी अवस्था ढलने लगी । किसी समय उसने नदी - तीरपर बाँह ऊपर उठाये एवं भलीभाँति इन्द्रियोंपर संयत किये हुए महाभाग्यशाली ऋषियो तपस्या करते हुए देखा । ब्रह्मन् ! तपोनिधि पवित्र दक्ष और वासुदेवकी आराधना करनेमें तत्पर उस योगाचार्यने अपनी रक्षा इस रक्षामन्त्रके द्वारा कर ली थी कि ‘ पूर्वदिशामें चक्र धारण करनेवाले विष्णु, दक्षिण दिशामें गदा धारण करनेवाले विष्णु, पश्चिम दिशामें शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले विष्णु और उत्तर दिशामें खड्ग धरण करनेवाले विष्णु मेरी रक्षा करें । दिशाओंके कोणों ( अग्निकोण, नैऋत्यकोण, वायव्यकोण, ईशानकोणों ) - में हषीकेश, उन दिशाओं और कोणोंके मध्य अवशिष्ट स्थानोंमें जनार्दन, भूमिमें वराहरुप धारण करनेवाले हरि एवं आकाशमेंख नृसिंहभगवान् मेरी रक्षा करें । प्रेतों एवं निशाचरोंके संहारके लिये छुरेकी धारके समान अत्यन्त तीक्ष्ण यह निर्मल सुदर्शन चक्र घूम रहा है । इसकी किरणमालाका दर्शन होना प्रयत्न करनेपर भी सम्भव नहीं है ॥६ - ११॥

ज्वाला उगलनेवाली अग्निकी भाँति हजारों किरणोंसे युक्त यह गदा राक्षसों, भूतों पिशाचों और डाकिनियोंका संहार करे । वासुदेवका चमकनेवाला शार्ङ्गधनुष मेरे साथ शत्रुका काम करनेवाले हिंसक पशु - पक्षियों, मनुष्यों दानवों तथा प्रेतोंका जड़ - मूलसे विनाश करे । जैसे गरुड़की देखकर साँप शान्त हो जाते है, उसी प्रकार ( विष्णुके ) खड्गकी चमकती हुई तेज धारसे मेरा अहित करनेवाले निष्प्रभ होकर तत्काल शान्त हो जायँ । सारे कूष्माण्ड, यक्ष, दैत्य, निशाचर, प्रेत, विनायक, क्रूर मनुष्य, जृम्भक, पक्षी, सिंहादि पशु एवं तीव्र दाँतोंसे काट खानेवाले सर्प आदि - ये सभी विष्णुके चक्रकी तीव्र गतिसे घायल होकर मेरे प्रति सरल बन जायँ ॥१२ - १६॥

जो चित्तकी वृत्तियों - मानसिक आचार - व्यवहारोंका हरण करनेवाले, स्मृत्तिको हरण करनेवाले, बल और ओजको अपहरण करनेवाले, कान्तिका विध्वंस करनेवाले, सुखोंका विनाश करनेवाले तथा सुलक्षणोंके विनाशक हैं, वे सभी कूष्माण्डादि ( भूत - प्रेत ) विष्णुके चक्रकी तीव्र गतिसे घायल होकर नष्ट हो जायँ । देवदेव वासुदेवके कीर्तनसे मुझे बुद्धि, मन तथा इन्द्रियोंकी सबलता प्राप्त हो । जनार्दन हरि मेरे पीछे, आगे, दायें, बायें एवं दिशाओंके कोणों ( अग्निकोण, नैऋत्यकोण, वायव्यकोण, ईशानकोण ) - में स्थित रहें । स्तुतियोग्य उन ईशान, अनन्त, अच्युत जनार्दनको साष्टाङ्ग प्रणिपात करनेवाला मनुष्य दुःखी नहीं होता ॥१७ - २०॥

जैसे ब्रह्म श्रेष्ठ है उसी प्रकार हरि भी श्रेष्ठ हैं । वे केशव ही जगतके ( नित्य ) स्वरुप हैं । अच्युतभगवानके नाम - कीर्तनके उस सत्यद्वारा मेरे तीनों प्रकारके अमङ्गल नष्ट हो जायँ । इस प्रकार अपनी रक्षाके लिये विष्णुपञ्जरस्तोत्रका पाठकर वे खड़े थे । वह बलवान् राक्षस उनकी ओर दौड़ा । देवर्षे ! उसके बाद द्विजद्वारा रक्षाकी व्यवस्था रहनेपर वह राक्षस गतिहीन होकर चार मासतक, जबतक कि ब्राह्मणकी समाधि समाप्त नहीं हुई तबतक, रुका रहा । जप समाप्त होनेपर उन्होंने उस निशाचरको देखा । उन्होंने दीन, बलसे हीन, उत्साहसे रहित, भयसे आकुल तथा निस्तेज हुए उस निशाचरको देखकर दयापूर्वक उसे निर्भयता प्रदान कर दी तथा उसके आनेका कारण पूछा । उसने अपने यथार्थ स्वभाववश देखनेकी इच्छा एवं आनेपर तेजका नाश होना बताया । उसके बाद दूसरे और भी बहुत - से कारणोंका वर्णन कर अपने कर्मसे दुखी हुए उस राक्षसने ब्राह्मणसे कहा - आप प्रसन्न हो जायँ ॥२१ - २७॥

मैनें बहुत पाप किये हैं । मैंने बहुत - से मनुष्योंको मारा है । मैंने बहुत - सी स्त्रियोंको विधवा एवं पुत्रसे हीन कर दिया है तथा निर्दोष और निर्बल प्राणियोंका विनाश किया है । आपकी दयासे मैं उन पापोंसे मुक्त होना चाहता हूँ; अतः आप मुझे पापोंका नाश करनेवाले धर्माचरणका उपदेश दें । आप मुझे इस पापको नष्ट करनेवाला उपदेश प्रदान करें । उस राक्षसके उस वचनको सुनकर धर्मात्मा द्विजोत्तमने युक्तियुक्त मधुर वचन कहा - निशाचर ! क्रूर स्वभावके होते हुए भी एकाएक धर्मके मार्गमें तुम्हारी जिज्ञासा कैसे उत्पन्न हुई ? ॥२८ - ३१॥

राक्षसने कहा - मैं आज आपके निकट आते ही बलपूर्वक रक्षाद्वारा फेंक दिया गया । ब्रह्मन् आपके सम्पर्कसे मुझे श्रेष्ठ वैराग्य प्राप्त हो गया मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि जिसका सम्पर्क पाकर मुझे श्रेष्ठ वैराग्य उत्पन्न हुआ है वह रक्षा क्या है और उसका आधार कौन हैं ? धर्मज्ञ ! आर्य ! आप कृपा करें । मेरे ऊपर दया करें । आप वह कार्य करें जिससे मेरे पापोंका विनाश हो जाय ॥३२ - ३४॥

पुलस्त्यजी बोले - उस राक्षसके इस प्रकार कहनेपर उन महाभाग मुनिने बहुत देरतक विचार कर उत्तर दिया ॥३५॥

ऋषिने उत्तर दिया - अपने कर्मसे पीड़ित होकर तुमने मुझसे जो उपदेश देनेके लिये कहा है, सो ठीक ही है । पापोंकी निवृत्तिसे उपकार होता है । परंतु मैं राक्षसोंको धर्मका उपदेश नहीं दूँगा । अतः भले राक्षस ! इस विषयको तुम उन ब्राह्मणोंसे पूछो जो विषयोंपर शास्त्रीय व्याख्यान करते हैं । इस प्रकार कहकर वह ब्राह्मण चला गया । वह राक्षस चिन्तासे आकुल हो गया । मेरे पाप किस प्रकार दूर होंगे - इस विषयकी चिन्तासे उसकी इन्द्रियाँ घबड़ा गयीं । ( पर ) भूखसे कष्ट पानेपर भी उसने प्राणियोंका भक्षण करना छोड़ दिया । ( प्रतिदिन ) प्रत्येक छठे समय एक जीवका आहार करने लगा । किसी समय भूखसे पीड़ित होकर विशाल वनमें घूमते हुए उसने फल लेनेके लिये आये हुए एक ब्रह्मचारीको देखा । राक्षसने मुनिपुत्रको पकड़ लिया । उसके बाद जीवनसे निराश होकर उस ब्रह्मचारीने शान्त भाव प्रकट करनेवाला वचन कहा ॥३६ - ४१॥

ब्राह्मणने कहा - भद्र ! यह बतलाओ कि तुम्हारा क्या कार्य है, तुमने मुझे क्यों पकड़ा है ? तुम्हारा कल्याण हो । यह मैं प्रस्तुत हूँ । मुझे आज्ञा दो ॥४२॥

राक्षसने कहा - ब्रह्मचारिन् ! इस समय मैं ब्राह्मणोंसे द्वेष और घृणा करनेके कारण श्रीसे हीन, अत्यन्त पापी और निर्दय हो गया हूँ । मुझे भूख लगी हुई है । आज छठे समयमें तुम मेरे भोजनके रुपमें आये हो ॥४३॥

ब्राह्मणने कहा - निशाचर ! यदि अवश्य ही तुम मुझे खाना चाहते हो तो मैं ये फल गुरुको समर्पित करके अभी आ जाता हूँ । यहाँ आकर गुरुके लिये मैंने जो फल एकत्र किये हैं, उन्हें गुरुको समर्पित करनेके लिये मेरी अत्यन्त श्रद्धा है । अतः तुम यहाँ मुहूर्तमात्र मेरी प्रतीक्षा करो, जबतक कि मैं इन फलोंको गुरुको देकर लौट आता हूँ ॥४४ - ४६॥

राक्षसन्मे कहा - ब्रह्मन् ! छठे समयमें मेरे पंजेमें आया हुआ कोई देवता भी छूट नहीं सकता । यही मेरी पापजीविका है । तुम्हारे छूटनेका एक ही उपाय है, उसे सुनो । यदि तुम उसे करो तो निः संदेह मैं तुमको छोड़ दूँगा ॥४७ - ४८॥

ब्राह्मणने कहा - राक्षस ! यदि वह कार्य गुरुकी सेवाकार्यमें विरोध डालनेवाला, धर्मके विषयमें बाधा डालनेवाला एवं मेरे व्रतको नष्ट करनेवाला न होगा तो मैं उसे करुँगा केवल तुमसे अपने छुटकारेके लिये नहीं ॥४९॥

राक्षसने कहा - ब्रह्मन् ! मैंने स्वभावतः रथा विशेषतः जातिदोषके कारण और विचारशक्तिसे रहित मनके कारण सदा पापका कार्य किया है । बाल्यावस्थासे ही मेरा मन धर्ममें नहीं, अपितु पापमें आसक्त रहा है । इसलिये तुम वह उपाय बताओ जिससे पापका नाश होकर मेरी मुक्ति हो जाय । द्विज ! इस पापयोनिको पाकर अज्ञानवश मैंने जिन पापकर्मोंका आचरण किया है, उनसे छुटकारा पानेका उपाय बतलाओ । ब्राह्मणपुत्र ! यदि तुम मुझे यह भलीभाँति बतलाओ तो मुझ भूखसे पीड़ित हुएसे निःसंदेह छुटकारा पा जाओगे । यदि ऐसा नहीं हुआ तो अत्यन्त भूखा - प्यासा निर्दय हुआ मैं छठे समयमें ( प्राप्त हुए ) तुमको खा जाऊँगा ॥५० - ५४॥

पुलस्त्यजी बोले - उस भयंकर राक्षसके इस प्रकार कहनेपर मुनिपुत्र ( राक्षसकी पापसे मुक्तिका उपाय ) कहनेमें असमर्थ होनेसे बहुत चिन्तित हुआ । बहुत समयतक विचार करनेके पश्चात् अत्यन्त संशयुक्त ब्राह्मण ज्ञानदानके हेतु अग्निके पास गया । ( उसने कहा - ) अग्निदेव ! गुरुकी सेवा करनेके बाद यदि मैंने आपकी सेवा की हो तथा व्रतोंका अच्छी तरह पालन किया हो तो हे सप्तार्चि ! आप मेरी रक्षा करें । अग्निदेव ! यदि मैंने गौरवमें माता - पितासे गुरुको अधिक महत्त्व दिया हो तो आप मेरी रक्षा करें । यदि मन, कर्म एवं वाणीसे भी मैंने गुरुका अनान्दर न किया हो तो उस सत्यके कारण अग्निदेव आप मेरी रक्षा करें । इस प्रकार मनसे सत्य शपथोंके लेनेवाले उसके सामने अग्निदेवके आदेशसे सरस्वती प्रकट हुईं । उन्होंने राक्षसके द्वारा पकड़े जानेके कारण व्याकुल हुए ब्राह्मणके पुत्रसे कहा - ब्राह्मणपुत्र ! डरो मत । मैं तुम्हें संकटसे मुक्त करुँगी । तुम्हारी जीभके अग्रभागपर स्थित होकर मैं राक्षसके कल्याणकारी समस्त विषयोंका कथन करुँगी । उसके बाद तुम मुक्त हो जाओगे । उस राक्षससे अदृश्य रहती हुई सरस्वती ऐसा कहनेके बाद अन्तर्धान हो गयी । उस ब्राह्मणने निशाचरसे ( सरस्वतीकी शक्तिसे ) कहा - ॥५५ - ६३॥

ब्राह्मणने कहा - ( निशाचर ! ) सुनो ! तुम्हारे और दूसरे अन्य पापियोंके लिये कल्याणकार सारे पापोंकी शुद्धि एवं पुण्य बढ़ानेवाले तत्त्वोंका मैं कहता हूँ । प्रातः काल उठकर, मध्याह्नमें अथवा सायंकाल इस जनपे योग्य स्तोत्रका तदा जप करना चाहिये । यह जप जप करनेवालेको निःसंदेह शान्ति एवं दुष्टि प्रदान करें । चर और अचरके गुरु, नाथ, शेषशय्यापर विराजमान, परमदीव गोविन्दिको मैं प्रणाम करता ( हूं ! वे मेरे पापको दूर करें । शङ्ख धारण करनेवाले, चक्र धारण करनेवाले, शार्ङ्ग धारण करनेवाले एवं उत्तम मालाधारी, ‘ लक्ष्मीपतिको मैं प्रणाम करता हूँ । वे मेरे पापको दूर करें । दामोदर, उदाराक्ष, पुण्डरीकाक्ष, स्तवनीय स्तोत्रोंसे स्तुत अच्युतको मैं नमस्कार करता हूँ । वे मेर पापोंको दूर करें । नारायण, नर, शौरि, माधव, मधुसूदन एवं धराको धारण करनेवाले भगवानको मैं प्रणाम करता हूँ । वे मेरे पापको दूर करें ॥६४ - ७०।

चन्द्र एवं सूर्यरुपी नेत्रोंवाले, कंस और केशीको मारनेवाले महाबाहु केशवको मैं प्रणाम करता हूँ । वे मेरे पापोंको दूर करें । वक्षः स्थलपर श्रीवत्स धारण करनेवाले, श्रीश, श्रीधर, श्रीनिकेतन एवं श्रीकान्तको मैं प्रणाम करता हूँ । वे मेरे पापोंको दूर करें । संयम करनेवाले लोग जिन सब प्राणियोंके स्वामी, अक्षर एवं अनिर्देश्य वासुदेवका ध्यान करते हैं मै उनकी शरण ग्रहण करता हूँ । ( संन्यासी लोग ) अन्य समस्त सहारोंसे मनकी गतिको लौटाकर जिस वासुदेव नामक ईश्वरका ध्यान करते हैं, मैं उनकी शरणमें जाता हूँ । मैं सर्वगत, सर्वभूत, सर्वाधार ईश्वर एवं वासुदेव नामक परब्रह्मकी शरण जाता हूँ । श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न लोग कर्मका नाश होनेपर जिन अदृष्ट, अविनाशी, परमात्मदेवको प्राप्त करते हैं, मैं उनकी शरणमें जाता हूँ । पुण्य तथा पापसे रहित योगीलोग जिन्हें पाकर फिर जन्म ग्रहण नहीं करते, मैं उनकी शरणमें जाता हूँ । ब्रह्माका रुप धारण कर देवता, दैत्य एवं मनुष्योंसे युक्त सारे जगतकी सृष्टि करनेवाले अच्युत देवकी मैं शरणमें जाता हूँ ॥७१ - ७८॥

ब्रह्माका रुप धारण करनेपर जिनके मुखोंसे चारों वेदोंसे युक्त शरीर धारण करनेवाले पुरातन प्रभुका आविर्भाव हुआ था, मैं उनकी शरणमें जाता हूँ । मैं सृष्टिके लिये स्रष्टारुपसे स्थित ब्रह्मरुप धारण करनेवाले सनातन जगद्योनि जनार्दनको प्रणाम करता हूँ । सृष्टिकर्ता होकर योगिरुपमें विद्यमान एवं स्थितिकालमें राक्षसोंका नाश करनेवाले आदिपुरुष जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ । मैं उन आदिपुरुष ईश्वर जनार्दन विष्णुको प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने पृथ्वीको धारण किया है, दैत्योंको मारा है एवं देवताओंकी रक्षा की है । ब्राह्मणलोग यज्ञोंके द्वारा जिनकी अर्चना करते हैं, मैं उन यज्ञपुरुष, यज्ञभावन, यज्ञेश, सनातन विष्णुको प्रणाम करता हूँ । मैं पाताललोकमें रहनेवाले प्राणियों तथा लोकोंका विनाश करनेवाले उन अन्तपुरुष सनातन रुद्रको प्रणाम करता हूँ । सृष्ट किये गये इस समस्य जगतका भक्षणकर नृत्य करनेवाले रुद्रात्मा जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ । मैं सर्वत्र गमन करनेवाले देवको प्रणाम करता हूँ, जिनसे समस्त सुर, असुर, पितृगण, यक्ष, गन्धर्व एवं राक्षस उत्पन्न हुए हैं ॥७९ - ८६॥

मैं उन सर्वव्यापी देवको प्रणाम करता हूँ जिनके अंशसे सम्पूर्ण देव एवं मनुष्योंकी सभी जातियाँ उत्पन्न हुई हैं । वृक्ष, गुल्म आदि तथा पशु, मृग आदि जिन परमदेवके एक अंशरुप हैं, मैं उन सर्वगामी देवको प्रणाम करता हूँ । मै उन सर्वव्यापी देवको प्रणाम करता हूँ जिनसे पृथक् कोई वस्तु नहीं है एवं जिन महात्मामें सम्पूर्ण पदार्थ स्थित हैं तथा जो सभीके अन्तः करणमें रहनेवाले और अनन्त हैं । काष्ठमें अग्निके समान समस्त प्राणियोंमें व्याप्त विष्णु मेरे सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करें; क्योंकि विष्णुसे ब्रह्मा आदि समस्त चराचरात्मक जगत् व्याप्त है तथा जो ज्ञानके द्वारा धारण करने योग्य हैं । इसलिये मेरे पाप नष्ट हो जायँ । ( विष्णुकी कृपासे ) मेरे शुभ तथा अशुभ कर्म, सत्त्व, रज एवं तमोगुण तथा अनेक जन्मोंके कर्मसे उत्पन्न पाप नष्ट हो जायँ शरीर, कर्म, मन एवं वाणीके द्वारा रात्रिमें तथा प्रातः काल, मध्याह्नकाल, अपराह्णकाल और सन्ध्याकालमें चलते, बैठते और शयन करते हुए ज्ञान या अज्ञानपूर्वक अथवा निरहंकार मनसे मैंने जो अशुभ ( पाप ) कर्म किये हों वे वासुदेवके नाम - कीर्तनसे शीघ्र नष्ट हो जायँ ॥८७ - ९५॥

परस्त्री और परधनकी कामना, द्रोह, परपीड़ा, महात्माओंकी निन्दा तथा ( निषिद्ध ) भोज्य, पेय, भक्ष्य, चोष्य एवं चाटनेवाले वस्तुके कारण उत्पन्न सम्पूर्ण पाप इस प्रकार नष्ट हो जायँ जैसे जैसे लवण रखनेवाला मिट्टीका पात्र पानीमें ( पड़ते ही ) नष्ट हो जाता है । नारायण, गोविन्द, हरि, कृष्ण, ईशका कीर्तन करनेसे बाल्यकाल, कुमारावस्था, यौवन, वार्द्धक्य एवं जन्मान्तरमें किये गये मेरे सम्पूर्ण पाप इस प्रकार नष्ट हो जायँ जैसे जलमें नमक रखनेवाला मिट्टीका बर्तन विलीन हो जाता ( गल जाता ) है । हरि, विष्णु, वासुदेव, केशव, जनार्दन, कृष्णको पुनः - पुनः प्रणाम है । भावी नरकका नाश करनेवाले तथा कंसको मारनेवालेको नमस्कार है । अरिष्ट, केशी एवं चाणूर आदि राक्षसोंके नष्ट करनेवालेको नमस्कार है । आपके सिवाय बलिको कौन छल सकता था एवं आपके बिना हैहयनरेशके घमंडको कौन नष्ट कर सकता था ? इस धर्ममय उत्तम वैष्णव मन्त्रका जप करनेवाला मनुष्य इष्ट और अनिष्टके प्रसङ्गवश तथा ज्ञान या अज्ञानपूर्वक सात जन्मोंमें किये अपने महापातकों, उपपातकों, यज्ञ, होम एवं व्रत आदिके पुण्य कर्मोंके भी योगको इस प्रकार नष्ट कर देता है जैसे जलमें मिट्टीका कच्चा घड़ा नष्ट हो जाता है । मैं यह सत्य कहता हूँ कि अखण्डित ब्रह्मचर्य एवं हरिस्मरणपूर्वक एक वर्षतक इस स्तोत्रके पाठके साथ प्रतिदिन तिलसे भरे सोलह पात्रोंका दान करनेवाला मनुष्य विष्णुलोकको प्राप्त करता है । यदि मैंने यह सत्य कहा हो एवं इसमें अल्पमात्र भी असत्य न हो तो यह राक्षस सब अङ्गोंसे पीड़ित हो चुके मुझे छोड़ दे ॥१०४ - ११०॥

पुलस्त्यजी बोले - उसके ऐसा कहते ही राक्षसने ब्राह्मणको छोड़ दिया । पुनः द्विजने निष्कामभावसे राक्षससे कहा ॥१११॥

ब्राह्मणने कहा - भद्र ! सरस्वती देवीने जिस पापका नाश करनेवाले सारस्वत विष्णुस्तोत्रको कहा है, उसे मैंने तुमसे कह दिया । अग्निदेवसे भेजी गयी एवं मेरी जिह्वाके अग्रभागमें स्थित सरस्वतीने सभीको शान्ति देनेवाले इस विष्णुस्तोत्रको कहा है । तुम इसीसे जगत्स्वामी केशवकी आराधना करो । उसके बाद केशवकी स्तुति करनेसे तुम शापसे मुक्त हो जाओगे । राक्षस ! इस स्तुतिके द्वारा दृढ़ भक्तिपूर्वक दिन - रात हषीकेशकी स्तुति करो । तब तुम पापसे मुक्त हो जाओगे । स्तुति किये गये हरि निःसंदेह समस्त पापोंको नष्ट करेंगे । भक्तिपूर्वक स्तुति करनेसे सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाले हरि मनुष्योंके सब पापोंका नाश कर देते हैं ॥११२ - ११६॥

पुलस्त्यजी बोले - उसके बाद आत्मनिष्ठ वह राक्षस ब्राह्मणको प्रणाम एवं प्रसन्न करनेके पश्चात् उसी समय तपस्याके लिये शालग्राम नामक स्थानमें चला गया । वह राक्षस दिन - रात इसी सारस्वतस्तोत्रका जप करते हुए देवक्रियामें लीन होकर तप करने लगा । वहाँ पुरुषोत्तम जगन्नाथकी पूजा कर सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर उसने विष्णुलोक प्राप्त किया । ब्रह्मन् ! मैंने तुमसे ब्राह्मणके मुखसे सरस्वतीद्वारा कहा गया विष्णुका यह सारस्वतस्तोत्र कहा । वासुदेवके इस श्रेष्ठ स्तोत्रको पढ़नेवाला मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जायगा ॥११७ - १२१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पचासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८५॥

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Last Updated : January 24, 2012

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