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अध्याय ८१

श्रीवामनपुराण - अध्याय ८१

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) प्रह्लादने परम पवित्र ऋषिकन्या उस इरावती नदीके पास जाकर स्त्रान किया और चैत्र मासकी अष्टमी तिथिमें जनार्दनकी पूजा की । वहाँ पवित्र पुण्यदायक नक्षत्रपुरुषके व्रतका अनुष्ठान कर दानवेश्वर प्रह्लाद कुरुक्षेत्र चले गये । मुने ! उन्होंने ऐरावतमन्त्रसे सुदर्शनचक्र तीर्थका आवाहन करके वेद - विहित विधिसे स्त्रान किया । वहाँ एक रात्रि निवास कर श्रद्धासे कुरुध्वजका पूजन किया और शौचाचारसे शुद्ध होकर नृसिंहका दर्शन करनेके लिये चले गये ॥१ - ४॥

दानव ( प्रह्लाद ) - ने वहाँ देविकामें स्त्रान कर नृसिंहकी पूजा की और एक रात वहाँ निवासकर गोकर्ण तीर्थ चले गये । वहाँ प्राची - ( पूज्य - पूजकके मध्य स्थान ) - में स्त्रान कर पहले उन्होंने विश्वकर्मा भगवानकी पूजा की । उसके बाद दूसरे प्राचीन ( परकोटा या चहारदीवारी ) - में कामेश्वरका दर्शन करनेके लिये गये । वहाँ स्त्रान करनेके बाद शंकरभगवानका दर्शन और पूजनकर प्रह्लाद श्रेष्ठ जलमें स्थित पुण्डरीकका दर्शन करने चले गये । वहाँ भी स्त्रानकर उन्होंने पितरोंका तर्पण और पुण्डरीकका दर्शन - पूजन किया । तीन दिनोंतक वहाँ निवास किया । उसके बाद विशाखयूपमें देव अजितका दर्शनकर उन्होंने कृष्णतीर्थमें स्त्रान किया और तीन रात्रितक वहाँ भी पवित्रतापूर्वक निवास किया ॥५ - ९॥

उसके बाद हंसपदमें भगवान् हंसका दर्शन एवं पूजन कर वे पयोष्णीके समीपमें अखण्डेश्वरका दर्शन करने चले गये । पयोष्णीके जलमें स्त्रानकर उन्होंने जगत्पति अखण्डेश्वरकी पूजा की । उसके बाद बुद्धिमान् ( प्रह्लादजी ) वितस्तामें कुमारिलके दर्शनार्थ चले गये । वहाँ स्त्रान करनेके पश्चात् ( सूर्यकी ) किरणोंका पान करनेवाले बालखिल्योंसे आराधित किये जा रहे पापोंको नष्ट करनेवाले देवेशका पूजन किया । जहाँ देवी सुरभिने देवकी प्रीति एवं जगतकी भलाईके लिये अपनी पुत्री कल्याणी कपिलाका त्याग किया था ॥१० - १३॥

वहाँ देवह्नदमें स्त्रानकर उन्होंने भक्तिपूर्वक शंभुका पूजन किया और विधिपूर्वक दही खानेके बाद मणिमान् तीर्थमें गये । प्रजापतिके उस उत्तम तीर्थमें स्त्रानकर महामति ( प्रह्लाद ) - ने शंकर, ब्रह्मा एवं देवेश प्रजापतिका दर्शन किया । ( पुलस्त्यजी कहते हैं - ) तपोधन ! विधिपूर्वक उन देवोंका पूजन करनेके बाद वहाँ छः रात्रियोंतक निवासकर ( वे ) मधुनन्दिनीमें चले गये । मधुमतके जलमें स्त्रानकर दानवश्रेष्ठ ( प्रह्लाद ) - ने चक्रधारी शिव और शूलधारी गोविन्दका दर्शन किया ॥१४ - १७॥

नारदजीने पूछा - मुझ प्रश्नकर्त्ताको आप ( कृपया ) यह बतलाइये कि भगवान् शिवने सुदर्शन और वासुदेवने शूल क्यों धारण किया था ? ॥१८॥

पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) सुनिये; मैं इस पुरानी कथाको कहता हूँ । पहले समयमें इसे भगवान् विष्णुने भावी मनुसे कहा था । जलोद्भव नामका एक महान् दैत्यपति था । उस शक्तिशाली दैत्यने घोर तपकर परिश्रमसे ब्रह्माकी आराधना की । संतुष्ट होकर ब्रह्माने उसे वर दिया कि युद्धमें उसे देवता एवं दैत्य नहीं जीत सकेंगे । देवोंके अपने शस्त्रोंसे भी उसका वध नहीं हो सकेगा । ब्रह्मर्षि ( जनों ) - के शापोंका भी उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और जल एवं अग्निका भी प्रभाव नहीं होगा । इस प्रकारका प्रभावशाली वह दनुश्रेष्ठ सभी देवताओं, महर्षियां और राजाओंको कष्ट पहुँचाता हुआ पृथ्वीपर विचरण करने लगा । ( फिर तो ) उस क्रूरने समस्त कर्मोंका विनाश कर दिया ॥१९ - २२॥

उसके बाद पृथ्वीपर आविर्भूत हुए देवगण राजाओंके साथ शरण देनेवाले एवं ( सबके ) नियामक विष्णुकी शरणमें गये । भगवान् भी उन सभीके साथ हिमालयपर गये, जहाँ त्रिनेत्र हर अवस्थित थे । देवता और ऋषियोंके कल्याणकारी कार्यकी मन्त्रणा करनेके बाद शत्रुको मारनेका निश्चय कर उन दोनों उग्रकर्मी देवाधिपोंने अपने आयुधोंका परिवर्तन कर लिया । फिर मारनेकी इच्छासे आ रहे देवाधिप शंकर एवं विष्णुको देखकर और उन भयंकर मूर्तिधारियोंको शत्रुओंसे अजेय जानकर वह दानव भयसे नदीके जलमें पैठ गया । देवशत्रुको पुण्यशालिनी मधुमती विशाला नदीमें उसे छिपा हुआ जानकर शस्त्रसहित शंकर और विष्णु सहसा नदीके दोनों तटोंपर छिप गये ॥२३ - २६॥

शंकर और वासुदेवको गया हुआ जानकर जलोद्भव भी जलसे बाहर निकला तथा भयसे चञ्चल नेत्रोंसे दिशाओंमें ( इधर - उधर ) देखकर दुर्गम हिमालय पर्वतपर चढ़ गया । पर्वतकी चोटीपर अपने शत्रुको विचरण करते हुए देखकर त्रिशूलधारी विष्णु एवं चक्रधारी शिव शस्त्र लिये हुए तुरंत दौड़ पड़े । उन सुरोत्तमोंने उसे देखकर चक्र और शूलसे उसके शरीरका भेदन कर दिया । वह सुवर्णके समान कान्तिवाला अन्तरिक्षसे गिरनेवाले विमल तारेके समान पर्वतसे गिर पड़ा । इस प्रकार शत्रुके विनाशके लिये विष्णुने त्रिशूल तथा शंकरने चक्र धारण किया था जहाँ शंकरका चरण गिरा था, उस हिमालय पर्वतसे पापविनाशिनी वितस्ता उत्पन्न हुई । उस तीर्थमें पहुँचकर प्रह्लादने उन विष्णु एवं शंकर - इन दोनों देवोंकी अर्चा की तथा भक्तिसे वहाँ निवास कर वे शिव एवं विष्णुसे रक्षित गिरिराज हिमालयका दर्शन करने चले गये । प्रह्लाद वहाँ विधिके अनुसार उसकी पूजा करनेके बाद ब्राह्मणोंको दान देकर हिमालयके विस्तृत चरणमें ( उपत्यकामें विद्यमान ) भृगुतुङ्ग तीर्थमें गये । वहाँ भगवान् शंभुने देवश्रेष्ठ विष्णुको श्रेष्ठ अस्त्र दिया था । उस अस्त्र - चक्रके बलको जाननेकी इच्छासे उन महात्माने उससे शंकरको तीन टुकड़ोंमें काट दिया था ॥२७ - ३३॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें इक्यासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८१॥

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Last Updated : January 24, 2012

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