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अध्याय ७२

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७२

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


नारदजीने कहा - ( पुलस्त्यजी ! ) आपने दितिसे उत्पन्न उत्तम मरुद्गणोंका जो वर्णन किया उसके विषयमें यह कहिये कि पहले वे मरुत् किस मार्गमें अवस्थित थे; सत्तम ! आप मुझे विशेषरुपसे यह बतलाइये कि पूर्व मन्वन्तरके बीत जानेपर कौन ( मरुत् ) वायुमार्गमें स्थित थे ? ॥१ - २॥

पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) स्वायम्भुव मन्वन्तरसे लेकर इस मन्वन्तरतकके पहलेतकके मरुद्गणोंकी उत्पत्ति आपसे कहता हूँ, उसे सुनिये । स्वायम्भुव मनुके पुत्रका नाम प्रियव्रत था । तीनों लोकोंमें सत्कार प्राप्त सवन उन प्रियव्रतके पुत्र थे । देवर्षे ! वे राजा पुत्रहीन ही मृत्युको प्राप्त हो गये । उसके बाद उनकी सुदेवा नामकी पत्नी शोकसे विह्वल होकर रोने लगी । उसने उस मृत - शरीरको दाहसंस्कार करनेके लिये नहीं दिया । पतिके गलेसे लिपटी हुई वह ‘ हा नाथ, हा नाथ ’ कहती हुई असहायकी भाँति अत्यधिक विलाप करने लगी ॥३ - ६॥

उस समय आकाशसे अशरीरिणीवाणीने उससे कहा - राजपत्नि ! तुम रोओ मत । यदि तुम्हारा सत्य ( पति - सेवा ) - व्रत श्रेष्ठ है तो यह अग्नि पतिके साथ तुम्हारे हितके लिये हो । आकाशसे हुई उस वाणीको सुनकर राजपुत्रीं सुदेवाने कहा - आकाशचारिन् ! मैं इस सुत - हीन राजाके लिये सोच कर रही हूँ; न कि अपने दुर्भाग्यके लिये । उस आकाशवाणीने फिर कहा - विशालनयने ! तुम रोओ मत । तुम्हारे गर्भसे तो राजाको सात पुत्र होंगे । तुम शीघ्र चितापर चढ़ जाओ । मैं सच कहता हूँ । इसपर तुम आज विश्वास करो । आकाशचारीके ऐसा कहनेपर उस बालाने श्रेष्ठ पतिको चितापर रखा और पतिका ध्यान करती हुई जलती चितामें प्रवेश कर वह पतिव्रता अग्निकी शरणमें चली गयी ( जल मरी ) ॥७ - १०॥

उसके बाद क्षणभरमें शोभासे सम्पन्न वह राजा पत्नीके साथ उठा और सुनाभकी पुत्री अपनी राजरानीके साथ आकाशमें जाकर स्वच्छन्दतासे भ्रमण करने लगा । नारदजी ! आकाशमें जाते हुए उस राजाकी रानी रजस्वला हो गयी । वह राजा दिव्ययोगसे आकाशमें भार्या ( सुदेवा ) - के साथ पाँच दिनोंतक रहा । उसके बाद छठे दिन आज ऋतु व्यर्थ न हो जाय - ऐसा सोचकर कामचारी राजा भार्याके साथ विहार करने लगा । उसके बाद आकाशसे उसका शुक्र स्खलित हो गया । तपोधन ! शुक्र - त्याग करनेके पश्चात् राजा पत्नीके साथ दिव्यगतिसे ब्रह्मलोकको चला गया ॥११ - १४॥

समाना, नलिनी, वपुष्मती, चित्रा, विशाला, हरिता एवं अलिनी - इन सात ऋषि - पत्नियोंने आकाशसे गिरते हुए अभ्रकके समान वर्णवाले शुक्रको इच्छाभर देखा । तपोधन ! उसे देखकर उसको अमृत समझती हुई उन सबोंने स्थायी युवावस्था प्राप्त करनेकी लालसासे उसे कमलमें रख लिया । उसके बाद वे स्त्रान करके अपने - अपने पतियोंका पूजनकर उन पतियोंकी अनुमतिसे कमलमें रखे राजाके उस शुक्रको अमृत मानती हुई पान कर गयीं । राजाके शुक्रका पान करते ही तपस्वियोंकी वे पत्नियाँ ब्रह्मतेजसे रहित हो गयीं । उसके बाद उन तपस्वी लोगोंने अपनी उन दोषिणी पत्नियोंका त्याग कर दिया ॥१५ - १९॥

मुने ! उन ऋषिकी पत्नियोंने भयंकर रुदन करते हुए सात पुत्रोंको जन्म दिया । उनकी रुलाई सारे संसारमें भर गयी । उसके बाद भगवान् लोकपितामह ब्रह्मा आ गये । बालकोंके समीप जाकर उन्होंने कहा - हे महाबलवानो ! रोओ मत । तुम्हारा नाम मरुत् होगा । तुम आकाशमें विचरण करनेवाले होओगे । इतना कहकर लोकपितामह देवेश ब्रह्मा उन मरुतोंको लेकर आकाशमें चले गये और उन्हें ( आकाशमें रहनेका ) आदेश दे दिया । वे ही स्वायम्भुव मनुके समयमें ‘ आद्य मरुत् ’ हुए ॥२० - २३॥

नारदजी ! अब मैं स्वारोचिष मन्वन्तरके मरुतोंका वर्णन करता हूँ, ( उसे ) सुनो । स्वारोचिषके पुत्र श्रीमान् क्रतुध्वज थे । मुने ! उनके अग्निके समान सात पुत्र थे । वे सभी नरेश्वर तपस्या करनेके लिये महामेरु पर्वतपर चले गये । वे इन्द्रपदको प्राप्त करनेकी इच्छासे ब्रह्माकी आराधना करने लगे । उसके बाद बुद्धिमान् इन्द्र भयभीत हो गये । नारदजी ! वक्ताके अभिप्रायको स्पष्टतः समझनेवाले इन्द्रने अप्सराओंमें प्रधान पूतनासे कहा - पूतने ! तुम महान् विशाल मेरु पर्वतपर जाओ ॥२४ - २७॥

वहाँ क्रतुध्वजके पुत्र महान् तप कर रहे हैं । सुन्दरि ! उनके तपमें जिस प्रकार विघ्न हो तथा हे सुन्दरि ! उन्हें सिद्धिकी प्राप्ति जैसे न हो सके - ऐसा उपाय करो । इन्द्रके कहनेपर रुपवती पूतना शीघ्र वहाँ गयी, जहाँ वे तपस्या कर रहे थे । आश्रमके पास ही मन्द जल - प्रवाहवाली नदी थी । सभी सगे भाई उस नदीमें स्त्रान करनेके लिये आये । वह सुन्दरी भी स्त्रान करनेके लिये उस महानदीमें उतरी ॥२८ - ३१॥

मुने ! उन राजपुत्रोंने स्त्रान करती हुई उस पूतनाको देखा और वे क्षुभित हो गये; परिणामतः उनका शुक्रपात हो गया । मछलियोंमें प्रधान महाशङ्खकी प्रिया शङ्खिनीने उसे पी लिया । तपके भ्रष्ट हो जानेपर वे भी अपने पिताके राज्यमें चले गये । उस अप्सराने भी इन्द्रके पास जाकर उनसे सत्य तथ्यको बतला दिया । उसके बाद बहुत समयके पश्चात् किसी धीवरने महाजालद्वारा उस शङ्खरुपिणी मानिनी बड़ी मछलीको पकड़ लिया । मछलीसे जीवनका निर्वाह करनेवाले ( धीवर ) - ने भूमिपर पड़ी हुई उस महाशङ्खीको देखकर क्रतुध्वजके पुत्रोंसे निवेदित किया । योगको धारण करनेवाले वे महात्मा योगी उसके निकट गये ॥३२ - ३६॥

उन सभीने उसको अपने घर लाकर नगरके तालाबमें छोड़ दिया । उस शङ्खिनीने क्रमशः सात पुत्रोंको जन्म दिया । पुत्रोंका जन्म होते ही वह शङ्खिनी संसारसे बिदा हो गयी । अब बिना माता - पिताके वे बालक जलमें विचरण करने लगे । दूधके लिये वे विलखने लगे । उस समय वहाँ पितामह आ गये । उन्होंने ‘ मत रोओ ’ ऐसा कहा । इसीलिये उनका नाम मरुत् हुआ । ‘ तुम लोग वायुके कंधेपर विचरण करनेवाले देवता होगे ’ यह कहनेके बाद वे उन सभी देवताओंको ले जाकर उन्हें वायुमार्गमें नियुक्त कर ब्रह्मलोकको चले गये । इस प्रकार स्वारोचिष मनुके समयमें मरुत् हुए ॥३७ - ४१॥

तपोधन ! उत्तम ( मन्वन्तर ) - में जो मरुत् थे, अब उनके विषयमें सुनिये । उत्तमके वंशमें शरीरसे सूर्यके सदृश वपुष्मान् नामके प्रसिद्ध निषधोंके एक राजा थे । उनका उत्तम गुणोंवाला ज्योतिष्मान् नामका एक धार्मिक पुत्र था । वह पुत्रकी कामनासे मन्दाकिनी नदीके किनारे तपस्या करने लगा । देवताओंके आचार्य बृहस्पतिकी सुन्दरी पुत्री उसकी कल्याणकारिणी पत्नी थी । वह उस तपस्वीकी सेविका बनी । वह स्वयं फल, पुष्प, जल, समिधा एवं कुश लाती थी ॥४२ - ४५॥

कमलदलके समान नयनोंवाली वह अच्छी तरह अतिथियोंका सत्कार करती थी । पतिकी सेवा करते हुए उसका शरीर दुबला हो गया तथा नाड़ियाँ दिखायी देने लगीं । सप्तर्षियोंने उस तेजस्विनीं सर्वाङ्गसुन्दरीको वनमें देखा । तपसे दुर्बल उस सर्वाङ्गसुन्दरीको देखकर उन लोगोंने उसकी तथा उसके पतिकी तपस्याका कारण पूछा । उसने कहा - हम दोनों पुत्रके लिये तप कर रहे हैं । ब्रह्मन् ! सातों महर्षियोंने उसे वर दिया - तुम जाओ; महर्षियोंकी कृपासे तुम दोनोंको निः सन्देह सात गुणवान् पुत्र होंगे । इस प्रकार कहकर वे सभी महर्षि चले गये ॥४६ - ५०॥

वे राजर्षि भी अपनी पत्नीके सहित नगरमें गये । उसके बाद बहुत समय बीत जानेपर राजाकी उस प्रिय रानीने उन नृपतिश्रेष्ठसे गर्भ धारण किया । भार्याके गर्भिणी होनेपर वे राजा संसारसे चल बसे । उस पतिव्रताने अपने पतिके साथ चितापर आरुढ़ होनेकी इच्छा की । मन्त्रियोंने उसे रोका, परंतु वह रुकी नहीं । पतिको चितापर रखकर वह भी उसपर चढ़ गयी । मुने ! उसके बाद अग्निके बीचसे जलमें एक मांसपेशी गिरी । अत्यन्त शीतल जलसे संसिक्त होनेपर वह ( मांसपेशी ) सात टुकड़ोंमें अलग - अलग हो गयी । वे ही टुकड़े उत्तम मनुके कालमें मरुत् हुए ॥५१ - ५५॥

हे गीतनृत्यकलिप्रिय ( नारदजी ) ! पहले तामस मन्वन्तरमें जो मरुत् हुए ( अब मैं ) उनका वर्णन करुँगा । तामस मनुके पुत्र रुतध्वज नामसे विख्यात थे । उन्होंने पुत्रकी अभिलाषासे अग्निमें अपने शरीरके मांस और रक्तका हवन किया । हम लोगोंने सुना है कि पुत्रके अभिलाषी ( उन ) राजाने अस्थि, रोम, केश, स्त्रायु, मज्ज, यकृत् और घने शुक्रकी अग्निमें आहुति दी ॥५६ - ५८॥

उसके बाद सातों अग्नियोंमें शुक्रपात होनेपर ‘ मत फेंको, मत फेंको ’ इस प्रकारका शब्द होने लगा । वे राजा भी मर गये । मुने ! उसके बाद उस अग्निसे सात तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुए और वे रोने लगे । उनके रोनेकी ध्वनि सुनकर भगवान् कमलयोनि ( ब्रह्मा ) - ने आकर मना किया और उन पुत्रोंको मरुत् नामका देवता बना दिया । ब्रह्मन् ! वे ही तामस मन्वन्तरमें ( मरुद्गण ) नामक देवता हुए । हे तपोधन ! रैवत मन्वन्तरमें जो ( मरुद्गण ) हुए उनका विवरण आगे सुनिये ॥५९ - ६२॥

रैवतके वंशमें शत्रुओंपर विजय प्राप्त करनेवाले संयमी रिपुजित् नामसे विख्यात एक राजा थे । उनको पुत्र नहीं था । उन्होंने तपद्वारा तेजोनिधि सूर्यकी आराधना कर सुरति नामकी कन्या प्राप्त की और उसे लेकर वे घर चले गये । ब्रह्मन् ! उस कन्याके पितृ - गृहमें रहते हुए पिताका देहावसान हो गया । वह भी शोकसे आकुल होकर अपने शरीरका परित्याग करनेके लिये तैयार हुई । उसके बाद सात मानस ऋषियोंने उसे मना किया । किंतु वे सभी तपोधन उसमें आसक्तचित्त हो गये थे ॥६३ - ६६॥

किंतु वह कन्या उस दुःखको सहन न कर सकनेके कारण आग जलाकर उसमें प्रवेश कर गयी । उसमें आसक्त तथा प्रभावित ऋषियोंने उसे देखा । उसे मरा हुआ देखकर वे ऋषि ‘ दुःखकी बात है ’, ‘ दुःखकी बात है ’ कहते हुए चले गये । उसके बाद उस अग्निसे सात पुत्र हुए । माताके अभावमें वे रोने लगे । लोकनाथ पितामह ब्रह्माने उन्हें ( रोनेसे ) रोककर मरुद्गणका पद दे दिया । तपोधन ! वे ही रैवत मन्वन्तरमें मरुद्गण हुए । अब मैं चाक्षुष मनुके कालके मरुद्गणोंका वर्णन करुँगा, उसे सुनिये ॥६७ - ७०॥

मङ्कि नामसे विख्यात सत्यवादी और पवित्र एक तपस्वी थे । उन्होंने सप्तसारस्वत तीर्थमें महान् तप किया था । देवताओंने उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये ‘ वपु ’ नामकी अप्सराको भेजा । उस भामिनीने नदीके किनारे आकर मुनिको क्षोभित कर दिया । उसके बाद उनका शुक्र च्युत होकर सप्तसारस्वतके जलमें गिर गया । मुनि मङ्कणकने उस मूढ़ा वपुको भी शाप दे दिया । हे मूढ़े ! चली जाओ । तुम इस पापका दारुण फल प्राप्त करोगी । यज्ञसंसदमें तुमको अश्व विध्वस्त करेगा । श्रीमान् ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपने आश्रममें चले गये । उसके बाद सप्त सरस्वतियोंसे सात मरुत् उत्पन्न हुए । महर्षे ! पूर्वकालमें आकाशव्यापी मरुद्गण जिस प्रकार उत्पन्न हुए थे, उसे मैंने आपसे कहा । इनका वर्णन सुननेसे पापका नाश तथा धर्मका महान् अभ्युदय होता है ॥७१ - ७६॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७२॥

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Last Updated : January 24, 2012

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