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अध्याय ७६

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७६

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) तीनों लोकोंका राज्य दानवोंके अधीन हो जानेपर शचीपति इन्द्र देवोंके साथ ब्रह्मलोक गये । वहाँ उन्होंने ऋषियोंके साथ बैठे हुए कमलयोनि ब्रह्मा एवं अपने पिता कश्यपको देखा । उसके बाद इन्द्रने देवताओंके सहित ब्रह्मा, कश्यप एवं उन सभी तपोधनोंको सिर झुकाकर प्रणाम किया । देवोंके साथ इन्द्रने देवनाथ पितामहसे कहा - पितामह ! बलवान् बलिने मेरा राज्य छीन लिया है । ब्रह्माने कहा - इन्द्र ! यह तुम अपने किये हुए कर्मका फल भोग रहे हो । इन्द्रने पूछा - कृपया आप बतलाइये कि मैंने कौनसा दुष्कर्म किया है । कश्यपने भी ( उत्तरमें ) इन्द्रसे कहा - तुमने भ्रूण ( गर्भस्थित बालक ) - की हत्या की है । तुमने दितिके उदरमें स्थित गर्भको बलपूर्वक अनेक टुकड़ोंमें काट डाला है ॥१ - ६॥

इन्द्रने अपने पिता कश्यपसे कहा - विभो ! जननीके दोषसे वह गर्भ छिन्न हुआ था; क्योंकि वे अपवित्र हो गयी थीं । उसके बाद कश्यपने कहा - माताके दोषसे वह दासताको प्राप्त हो चुका था, उसके बाद तुमने दासको भी वज्रसे मारा । कश्यपके उस वचनको सुनकर इन्द्रने पितामहसे कहा - विभो ! मुझे पापका नाश करनेवाला प्रायश्चित्त बतला दीजिये । ब्रह्मा, वसिष्ठ एवं कश्यपने देवेश ( इन्द्र ) - से सब जगतके लिये - विशेषरुपसे इन्द्रके लिये हितकारी वचन कहा - तुम शङ्ख, चक्र तथा गदा धारण करनेवाले पुरुषोत्तम भगवान् लक्ष्मीपति श्रीविष्णुकी शरणमें जाओ । वे तुम्हारा कल्याण करेंगे । उन सहस्त्राक्षने गुरुजनोंका वचन सुनकर कहा - थोड़े समयमें अधिक - से - अधिक उन्नतिकी प्राप्ति कहाँ सम्भव है ? देवोंने उनसे कहा - स्वल्प समयमें महती उन्नति मर्त्यलोकमें सम्भव है ॥७ - १२॥

ब्रह्मा, मरीचिपुत्र कश्यप एवं वसिष्ठके ऐसा कहनेपर सुरराज इन्द्र तेजीसे पृथ्वीतलपर आ गये । वे कालिञ्जर पर्वतके उत्तर, हिमाद्रिके दक्षिण, कुशस्थलके पूर्व एवं वसुपुरके पश्चिममें स्थित विख्यात पुण्य स्थानमें रहने लगे - जहाँ पहले राजा गयने दक्षिणाके साथ सौ अश्वमेध यज्ञ, ग्यारह सौ नरमेध यज्ञ तथा एक हजार राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया था । उसी प्रकार पहले ( उसने ) जहाँपर सुरों एवं असुरोंसे कठिनाईसे किया जा सकनेवाला महामेध नामक प्रसिद्ध यज्ञ अनुष्ठित किया था और उसके लिये जहाँ आकाशस्वरुप अव्यक्तशरीरी मुरारि ( विष्णु ) - ने वहाँ निवास किया था । इसके बाद वे गदाधर नामसे प्रसिद्ध हुए, जो महान् अघरुपी वृक्षके लिये तीक्ष्ण कुठारस्वरुप हैं ॥१३ - १६॥

जहाँ वेद - शास्त्रसे रहित होनेपर भी कुलीन श्रेष्ठ ब्राह्मण ब्रह्मकी समानता प्राप्त करते हैं एवं मनोयोगसे भक्तिसहित मनुष्य एक बार भी पितरोंका पूजन करके भगवानके अनुग्रहसे महामेध नामक यज्ञका अनन्त फल प्राप्त कर लेते हैं, वहाँ देवर्षिकी कन्या श्रेष्ठ महानदी है, जो जलरुपसे हिमालयपर प्रवहमान होकर अपने दर्शन, पान एवं मज्जन करनेसे जगतके पापोंको विनष्ट करती है । विष्णुकी आराधना करनेके लिये इन्द्र वहाँ महानदीके विचित्र तटपर गये और आश्रम बनाकर रहने लगे । वे प्रातः काल स्त्रान, भूमिपर शयन एवं बिना माँगे मिले हुए पदार्थसे एक समय भोजन करते हुए गदाधारी देवकी स्तुति करते हुए तपस्या करने लगे । सर्वथा जितेन्द्रिय एवं काम - क्रोधादिसे रहित होकर इस प्रकार तपस्या करते हुए उनका एक वर्ष बीत गया । नारदजी ! उसके बाद गदा धारण करनेवाले विष्णुने प्रसन्न होकर इन्द्रसे कहा - जाओ, मैं प्रसन्न हूँ; अब तुम पापसे मुक्त हो गये हो ॥१७ - २२॥

देवेश ! ( अब ) तुम शीघ्र ही अपना राज्य प्राप्त कर लोगे । इन्द्र ! जैसे तुम्हारा आगेका श्रेय ( कल्याण ) होगा, वैसा ही मैं प्रयत्न करुँगा । गदाधर श्रीविष्णुने ऐसा कहनेके बाद इन्द्रको मनोहरा नदीमें स्त्रान कराकर बिदा कर दिया । इन्द्रके स्त्रान कर लेनेपर उनके पाप - पुरुषोंने उनसे कहा - हमें अनुशासित कीजिये । ( इन्द्रने ) उन भयंकर कर्म करनेवाले लोगोंसे कहा - मेरे पापसे उत्पन्न तुम लोग पुलिन्द् कहे जाओगे । तुम लोग हिमालय एवं कालिञ्जर नामके दोनों श्रेष्ठ पर्वतोंके बीचकी भूमिमें निवास करो । पुलिन्दोंसे ऐसा कहनेके पश्चात् पापसे मुक्त हुए सुरराज देवों, सिद्धों एवं यक्षोंसे पूजित होते हुए माताके धर्मके आश्रयरुप पूज्य आश्रममें चले गये ॥२३ - २६॥

अदितिका दर्शन कर हाथ जोड़ तथा सिर झुकाकर इन्द्र उनके समीप आये एवं उनके कमलकी कान्तिवाले चरणोंमें प्रणाम करनेके बाद उन्होंने अपनी तपस्याका वर्णन किया । उन ( अदिति ) - ने अश्रुपूर्ण दृष्टिसे ( इन्द्रको ) सूँघा एवं उनको गले लगाकर ( तपस्याका कारण ) पूछा । इन्द्रने बलिद्वारा देवोंसहित अपने पराजित होनेका पूरा समाचार कह सुनाया । यह सुननेके बाद अपने उस पुत्रको दितिके पुत्रोंद्वारा पराजित जान शोकसे भय गयीं एवं दुःखसे दुखी होकर ( अदिति ) वरेण्य एवं अनादि देव विष्णुकी शरणमें गयीं ॥२७ - २९॥

नारदने कहा ( पूछा ) - ( कृपया ) आप यह बतलाइये कि देवोंकी माता अदितिने किस शुभ स्थानपर अनादि, अनन्त, चर और अचरके उत्पन्न करनेवाले एवं पुरातन हषीकेशकी आराधना की ? ॥३०॥

पुलस्त्यजी बोले - दानव - नायकद्वारा पराजित हुए दीन बने इन्द्रको देखकर अदिति सूर्यके मकरराशिमें स्थित हो जानेपर शुक्लपक्षकी सूर्य - सप्तमीके दिन उन सुरोंके स्वामी सूर्यदेवको महान् उदयाचलपर पूर्व दिशामें उगनेपर देखकर उपवास करती हुई वाणी एवं मनको संयत करके उन सुरेन्द्र ( सूर्य ) - की शरणमें गयीं ॥३१ - ३२॥

अदितिने कहा - हे दिव्य कमलकोशको अपनेमें छिपाकर रखनेवाले ! आपकी जय हो । हे संसारुपी वृक्षके कुठार ! आपकी जय हो । हे अन्धकार ( अज्ञान ) - के समूहके विनाश करनेवाले ! आपको बारम्बार नमस्कार है । हे भास्कर । हे दिव्यमूर्ते ! आपको नमस्कार है । हे त्रैलोक्य - लक्ष्मीके स्वामिन् ! आपको नमस्कार है । आप समस्त चर और अचर जगतके कारण तथा स्वामी है । हे विश्वमूर्ते ! आप मेरी रक्षा कीजिये । हे जगन्नाथ ! जगन्मय आप स्वामीके ही इन्द्रको अपने राज्यकी हानि एवं शत्रुसे पराभवकी भी प्राप्ति हुई है । अतः मैं आपकी शरणमें आयी हूँ । ऐसा कहनेके बाद रक्तचन्द्रनव्द्वारा देवोंसे पूजित सूर्यकी चित्रितकर उन देवी ( अदिति ) - ने करनेके पुष्पोसे उनका पूजन किया और धूपसे धूपित करनेके बाद महेन्द्रकी भलाईके लिये सूर्यके लिये घृतसे बने उत्तम अन्न अर्पित किया तथा निराहार रहकर पवित्र स्तोत्रोंसे स्तुति करती हुई । ( साधनामें ) बैठी रहीं ॥३३ - ३७॥

दुसरे दिन प्रणाम करनेके बाद विधिसे स्त्रान एवं पूजा करके उन्होंने ब्राह्मणोंको कणक, तिल एवं घृत प्रदान किया उसके बाद वे और अधिक संयत रहने लगीं । इससे घृतार्चि भानु प्रसन्न हो गये । ( वे ) सूर्य - मण्डलसे निकले एवं अदितिके सामने खड़े होकर यह वचन बोले - दक्षनन्दिनि ! तुम्हारे इस व्रतसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ । अतः मेरी कृपासे तुम निः सन्देह मनोवाच्छित दुर्लभ वस्तु प्राप्त करोगी । देवि ! देवजननि ! मैं तुम्हारा पुत्र होकर देवपुत्रोंको राज्य दूँगा और दानवोंका नाश करुँगा ॥३८ - ४१॥

[ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] ब्रह्मन् ! वासुदेवका वह वाक्य सुनकर बार - बार काँपती हुई देवोंकी माता अदितिने संसारको उत्पन्न करनेवाले विष्णुसे कहा - जिसके ( विशाल ) उदरमें स्थावर - जङ्गमात्मक समस्त संसार निवास करता है, ऐसे त्रिलोकीको धारण करनेवाले आपको मैं अपने उदरमें कैसे धारण कर सकूँगी ? नाथ ! आप तीनों लोकोंको धारण करनेवाले हैं । जिसकी कुक्षिमें पर्वतोंके साथ सातों समुद्र अवस्थित हैं ऐसे आपको कौन धारण कर सकता है ? अतः हे जनार्दन ! आप बैसा ही करें जिससे इन्द्र देवताओंके स्वामी बन जायँ और मुझे भी कष्ट न हो ॥४२ - ४५॥

विष्णुने कहा - महाभागे ! यह सत्य है कि मैं देवों और दैत्योंसे धृत नहीं हो सकता, फिर भी हे देवि ! मैं आपके उदरसे उत्पन्न होऊँगा । देवि ! स्वयंको, ( चौदहो ) भुवनों, पर्वतों एवं कश्यपसहित आपको भी मैं योगद्वारा धारण करुँगा । मातः ! आप विषाद न करें । दक्षात्मजे ! जब मैं आपके उदरमें आऊँगा तब दैत्य निस्सन्देह तेजोहीन हो जायँगे । [ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] विप्र ! ऐसा कहकर शत्रुओंके नाश करनेवाले भगवान् विष्णु इन्द्रकी भलाईके लिये अपने अंशमात्रसे उन देवीके उदरमें प्रविष्ट हो गये ॥४६ - ४९॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छिहत्तरवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७६॥

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Last Updated : January 24, 2012

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