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अध्याय ८२

श्रीवामनपुराण - अध्याय ८२

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


नारदजीने पूछा - भगवन् ! तीन नेत्रोंवाले शंकरने जगत्पति विष्णुको समस्त लोकोंमें पूजित चक्र नामका आयुध क्यों दिया था ? ॥१॥

पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) आप चक्रके प्रदान करनेसे सम्बद्ध और शिवकी महिमाको बढ़ानेवाली इस प्राचीन कथाको सावधान होकर सुनिये । वेद - वेदाङ्ग - पारङ्गत, गृहस्थ और महाभाग्यशाली वीतमन्यु नामके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे । उनकी महाभाग्यशालिनी, शीलसे सम्पन्न, पतिव्रता एवं पतिमें ही अपने प्राणोंको निहित किये रहनेवाली आत्रेयी नामकी पत्नी थी । वह धर्मशीला नामसे प्रसिद्ध थी । ऋतुकालमें ही उसके साथ समागम करनेवाले उन महर्षिके उससे उपमन्यु नामका एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ ॥२ - ५॥

मुनिश्रेष्ठ ! अत्यन्त दरिद्रतासे जर्जर हुई उसकी माता पिसे हुए चावलके जलको यह दूध हैं - ऐसा कहकर उससे उस ( पुत्र ) - का पालन करती थी । दूधके स्वादके अपरिचित होनेके कारण वह पिसे चावलके रस ( जल ) - में ही दूधकी संभावना करता था । एक दिन उसने अपने पिताके साथ किसी ब्राह्मणके घर प्राणको स्वस्थ बनानेवाली मधुर खीरका भोजन किया । ऋषिके उस पुत्रने दूधके अद्भुत स्वादको पाकर दूसरे दिन माताके द्वारा दिये गये पिसे हुए चावलके उस रसको ग्रहण नहीं किया ॥६ - ९॥

उसके बाद दूध चाहनेवाला वह बालक बचपनके कारण प्यासे चातककी भाँति रोने लगा । रोती हुई माताने आँखोंमें आँसू भरे गदगद वाणीमें उससे कहा - शूल धारण करनेवाले पार्वतीपति पशुपति विरुपाक्ष शंकरके असंतुष्ट रहते दूधसे मिला भोजन कहाँसे प्राप्त हो सकता है ? पुत्र ! यदि तुम तत्काल स्वास्थ्यकर दूध पीना चाहते हो तो त्रिशूल धारण करनेवाले विरुपाक्ष महादेवकी सेवा करो । संसारके आधार, सभी प्रकारसे कल्याण करनेवाले उन शंकरके संतुष्ट होनेपर अमृत पीनेको मिल सकता है, दूध पीनेकी तो बात ही क्या है ॥१० - १३॥

माताके उस वचनको सुनकर वीतमन्युके पुत्रने कहा - आप जिनकी सेवा - पूजा करनेकी कहती हैं, वे विरुपाक्ष कौन हैं ? उसके बाद धर्मशीलाने पुत्रसे धर्मसे युक्त वचन कहा - ( बेटा ! ) सुनो, मैं तुम्हें बतलाती हूँ कि ये विरुपाक्ष कौन हैं ? प्राचीन कालमें श्रीदामा नामसे विख्यात एक महान् असुरोंका राजा था । उसने सारे संसारको अपने अधीन करके लक्ष्मीको अपने वशमें कर लिया । ( सारे विश्वपर अपना अधिकार जमा लिया ) । ( फिर तो ) उस दुष्टात्माने तीनों लोकोंकी ही श्रीसे रहित कर दिया । उसके बाद उस महाबलशाली असुरने वासुदेवके श्रीवत्सको छीन लेनेकी कामना की ॥१४ - १७॥

उसकी उस दूषित इच्छाको जानकर भगवान् जनार्दन उसके मारनेकी इच्छासे महेश्वरके पास गये । उस समय योगमूर्तिके धारण करनेवाले अविनाशी शंकर हिमालयकी ऊँची चोटीके चिकने भूतलपर स्थित थे । उसके बाद सहस्त्रशीर्षा सर्वसमर्थ जगन्नाथजीके पास जाकर विष्णुने अपने द्वारा स्वयं अपनी ही अर्चना की । योगियोंद्वारा जाननेयोग्य उस अव्यक्त परम ब्रह्मका जप करते हुए वे एक हजार वर्षसे अधिक समयतक पैरके अँगूठेपर खड़े रहे ॥१८ - २१॥

उसके बाद श्रीमान् महादेवने संतुष्ट होकर विष्णुको परमश्रेष्ठ प्रत्यक्ष तेजसे युक्त दिव्य सुदर्शनचक्र प्रदान किया । सभी प्राणियोंके लिये भयदायक कालचक्रके समान वह चक्र देवाधिदेव विष्णुको देकर शंकरने उनसे कहा - देवेश ! बारह अरों, छः नाभियों एवं दो युगोंसे युक्त तीव्रगतिशील और समस्त आयुधोंका नाश करनेवाला सुदर्शन नामका यह श्रेष्ठ आयुध है । सज्जनोंकी रक्षा करनेके लिये इसके अरोंमें देवता, मास, राशियाँ, छः ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, अग्नि, विश्वेदेव, प्रजापति, बलवान् हनूमान्, धन्वन्तरि देव, तप एवं तपस्या - ये तथा चैत्रसे लेकर फाल्गुनतकके बारह महीने प्रतिष्ठित हैं ॥२२ - २७॥

विभो ! आप इस श्रेष्ठ आयुधको लेकरके निर्भीक होकर देवोंके शत्रुका संहार करें । मैंने असुरराजसे आराधित इस अमोघ आयुधको तपके बलसे अपने नेत्रमें स्थित कर लिया था । शम्भुके इस प्रकार कहनेपर विष्णुने शंकरसे यह वचन कहा - शम्भो ! मुझे यह कैसे मालूम होगा कि यह अस्त्र अमोघ या मोघ हैं ? विभो ! यदि आपका यह चक्र अमोघ तथा सर्वत्र बिना किसी बाधाके निरन्तर गतिशील है तो इसको जाननेके लिये मैं आपके ही ऊपर इसे चलाता हूँ । आप इसे स्वीकार करें । वासुदेवके उस वचनको सुनकर पिनाकधारीने कहा - यदि ऐसा है तो निश्चिन्त होकर मेरे ऊपर इसे चलाइये ॥२८ - ३१॥

महेशके उस वचनको सुनकर विष्णुने सुदर्शनके तेजको जाननेकी अभिलाषासे उसे वेगसे शंकरके ऊपर चलाया । विष्णुके हाथसे छोड़ा गया वह चक्र शंकरके निकट गया और उन्हें काटकर विश्वेश, यज्ञेश तथा यज्ञयाजकके रुपमें तीन भागोंमें अलग कर दिया । शंकरको तीन खण्डोमें कटा हुआ देखकर श्रीमान् भव ( शंकर ) - ने प्रसन्नतापूर्वक बार - बार ’ उठोउठो ’ कहते हुए ( यह ) कहा - ॥३२ - ३५॥

महाबाहो ! चक्रकी नेमिद्वारा मेरा यह प्राकृत विकार ही काटा गया है । इसके द्वारा मेरा स्वभाव नहीं क्षत हुआ है । वह तो अच्छेद्य एवं अदाह्य है । केशव ! चक्रद्वारा किये गये ये तीनों अंश निस्सन्देह पुण्य प्रदान करनेवाले होंगे । एक अंश हिरण्याक्ष नामधारी, दूसरा सुवर्णाक्ष नामधारी और तिसरा विरुपाक्ष नामका होगा । ये तीनों अंश मनुष्योंके लिये पुण्यप्रदाता होंगे । विभो ! उठिये और देव - शत्रुका वध करनेके लिये जाइये । विष्णो ! श्रीदामाके वध किये जानेपर देवता प्रसन्न होंगे । शंकरके इस प्रकार कहनेपर भगवान् गरुडध्वजने पर्वतकी ऊँची चोटीपर जाकर श्रीदामाकी देखा । देवताओंके दर्पका विनाश करनेवाले उस दैत्यको देखकर देव - श्रेष्ठ विष्णुने बार - बार ( यह लो ) ‘ तुम मारे गये ’ ऐसा कहते हुए तीव्र गतिसे चक्र चलाया ॥३६ - ४१॥

फिर तो अनुपम पौरुषवाले उस चक्रने दैत्यका मस्तक काट डाला । मस्तक कट जानेपर दैत्य पर्वतके ऊपरसे इस प्रकार गिरा जैसे वज्रसे आहत होकर पर्वतकी ऊँची चोटी गिरती है । उस देव - शत्रुके मारे जानेपर मुरारिने विरुपाक्ष शंकरकी आराधना की और चक्ररुपी श्रेष्ठ महायुध लेकर वे देव क्षीरसागरमें स्थित अपने गृहको चले गये । [ वीतमन्युकी धर्मशीला पत्नी आत्रेयी कहती हैं - ] पुत्र ! ये वही देव - देव महेश्वर विरुपाक्ष हैं । साधो ! यदि तुम दूधके साथ भोजन करना चाहते हो तो उनकी सेवा - पूजा करो । माताके उस वचनको सुनकर वीतमन्युके बलवान् पुत्रने उन विरुपाक्ष शंकरकी आराधनाकर दुग्धसे युक्त भोजन प्राप्त किया । [ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] इस प्रकार प्राचीन कालमें घटित हुई शंकरके शरीर - छेदनसे सम्बद्ध परम पवित्र कथाको मैंने तुमसे कहा । उसी श्रेष्ठ तीर्थमें वे महान् असुर प्रह्लाद सुन्दर पुण्य - प्राप्तिके लिये गये ॥४२ - ४६॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बयासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८२॥

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Last Updated : January 24, 2012

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