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अध्याय ७१

श्रीवामनपुराण - अध्याय ७१

श्रीवामनपुराणकी कथायें नारदजीने व्यासको, व्यासने अपने शिष्य लोमहर्षण सूतको और सूतजीने नैमिषारण्यमें शौनक आदि मुनियोंको सुनायी थी ।


नारदने कहा - द्विजश्रेष्ठ ! महेन्द्रने मलयपर्वतपर भी अपना जो कार्य पूरा किया उसे आप मुझसे कहिये ॥१॥

पुलस्त्यजी बोले - ब्रह्मन् ! महेन्द्रने श्रेष्ठ मलयपर्वतपर जगतके हित तथा अपने कल्याणके लिये जो कार्य किया था, उसे सुनिये । मय, तार आदि अन्धकासुरके अनुचर दैत्य देवताओंसे पराजित होकर पाताललोकमें जानेके लिये अत्यन्त उत्सुक होने लगे । उन लोगोंने सिद्धोंसे भरे कन्दराओंवाले तथा लतासमूहसे ढके, आमोदभरे प्राणियोंसे व्याप्त, साँपोंसे घिरे सुशीतल चन्दनसे युक्त तथा सुगन्धित माधवी लताके फूलोंकी सुगन्धिसे पूर्ण ऋषियोंद्वारा पूजित शंकरके मलयगिरिको देखा ॥२ - ५॥

परिश्रमसे थके - माँदे तथा शक्तिहीन मय, तार आदि दानवोंने शीतल छायावाले उस पर्वतको देखकर वहाँ निवास करनेकी इच्छा की । उन लोगोंके वहाँ ठहर जानेपर प्राणोंको संतुष्टि प्रदान करनेवाली सुगन्धसे पूर्ण तथा शीतल दक्षिणी हवा मन्द - मन्द बहने लगी । जगतपूज्य देवताओंसे शत्रुता करते हुए सभी श्रेष्ठ दैत्य सुखसे वहीं रहने लगे । शंकरने उन असुरोंको मलय पर्वतपर रहते हुए जानकर इन्द्रको वहाँ भेजा । मार्गमें जाते हुए इन्द्रने गोमाताको देखा ॥६ - ९॥

उसकी प्रदक्षिणा करनेके बाद उन्होंने सुकान्तिसे सम्पन्न पर्वतपर भोगसे संयुत तथा हर्षित सभी दानवोंको देखा । उसके बाद इन्द्रने सभी महासुरोंको ललकारा । वे भी बिना किसी हिचकके बाणोंकी वर्षा करते हुए आ गये । विप्रर्षे ! रथपर बैठे हुए अद्भुत दिखायी पड़नेवाले इन्द्रने आये हुए उन दानवोंको बाणोंके समूहोंसे इस प्रकार ढक दिया जिस प्रकार बादल जलकी वर्षासे पर्वतोंको ढक देता है । उसके बाद इन्द्रने मय आदि दानवोंको बाणोंसे ढककर कङ्क पक्षीके पंख लगे तेज - नुकीली धारवाले बाणोंसे पाक नामके दानवका वध कर दिया ॥१० - १३॥

मजबूत बाणोंसे पापको दण्डित ( शासित ) करनेके कारण सभी अमरोंके पति विभु इन्द्रको पाकशासनताकी प्राप्ति हुई । इसी प्रकार उन्होंने सुन्दर पुंख लगे बाणोंसे दूसरे पुर नामक बाणासुरके पुत्रका ( भी ) वध कर दिया । इसीसे वे पुरन्दर हुए । ब्रह्मन् ! इस प्रकार उन दानवोंका नाश कर इन्द्रने युद्धमें दानव - सेनाको जीत लिया । हारा हुआ वह दानवोंका सेना - समूह रसातलमें चला गया । मुनिश्रेष्ठ ! इसीलिये शंकरने इन्द्रको मलय पर्वतपर भेजा था । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥१४ - १७॥

नारदने कहा ( पूछा ) - ब्रह्मन् ! मेरे हदयमें यह संदेह है कि देवपति ( इन्द्र ) - को गोत्रभिद् क्यों कहा जाता है ॥१८॥

पुलस्त्यजी बोले - मैंने इन्द्रको गोत्रभिद् जैसे कहा तथा हिरण्यकशिपुके मार दिये जानेपर शत्रुमर्दन इन्द्रने जो किया ? आप ( सब ) सुनें । नारदजी ! पुत्रकी मृत्यु हो जानेपर दितिने कश्यपसे कहा - प्रभो ! आप मेरे पति हैं, मुझे इन्द्रका वध करनेवाला पुत्र दीजिये । कश्यपने उससे कहा - असितनयने ! यदि तुम सौ दिव्य वर्षोंतक पवित्र आचरण करोगी तो तुम तीनों लोकोंका मार्गदर्शक एवं शत्रुसंहारकारी पुत्र उत्पन्न करोगी । प्रिये ! इसके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥१९ - २२॥

पतिके ऐसा कहनेपर दितिने नियमका निर्वाह करना प्रारम्भ कर दिया । कश्यप ऋषि गर्भाधान करके उदयगिरिपर चले गये । उन मुनिश्रेष्ठके उदयगिरिपर चले जानेके पश्चात् इन्द्रने शीघ्रतासे उस आश्रममें जाकर दितिसे यह वचन कहा - यदि आप अनुमति प्रदान करें तो मैं आपकी सेवा करुँ । भवितव्यतासे प्रेरित होकर देवीने कहा - ठीक है । विनीत बना हुआ इन्द्र अपने कार्यकी सिद्धिके लिये बिल खोजनेवाले सर्पकी भाँति अवसरकी प्रतीक्षा करते हुए उस ( दिति ) - के लिये लकड़ी आदि लानेका कार्य करने लगे ॥२३ - २६॥

एक हजार वर्ष बीत जानेपर मनोयोगसे पवित्रताका पालन करनेमें लगी हुई वह तपस्विनी एक दिन सिरसे स्त्रान करनेके बाद बालोंको खोले हुए अपने घुटनोंपर सिर रखकर सो गयी । उसके बालोंके ऊपरी भाग ( लटककर ) पैंरोंसे लग गये । नारदजी ! सहस्त्राक्ष इन्द्रदेव अपवित्राके लिये उस अवसरको ( उपयुक्त ) जानकर नासिकाके छिद्रसे माताके उदरमें प्रवेश कर गये । इन्द्रने दैत्यमाताकी विशाल कोखमें प्रवेश कर कमरपर हाथ रखे ऊपरको मुख किये हुए एक बालकको देखा ॥२७ - ३०॥

इन्द्रने उस बालकके मुँहमें एक शुद्ध स्फटिकके समान मांसपेशी देखी । इन्होंने उस मांसपेशीको दोनों हाथोंसे पकड़ लिया । उसके बाद क्रोधकी आगसे संतप्त हुए शतक्रतुने अपने दोनों हाथोंसे उस मांसपेशीको मसल दिया जिससे वह कठोर हो गयी ( अब वह पिण्डके रुपमें हो गयी ) । उस पिण्डका आधा भाग ऊपरकी ओर और आधा भाग नीचेकी ओर बढ़ गया । इस प्रकार उस मांसपेशीसे सौ पोरोंवाला वज्र बन गया । ब्रह्मन् ! ( इन्द्रने ) उन्हीं पोरोंवाले वज्रसे दितिके द्वारा धारण किये हुए गर्भको सात भगोंमें काट डाला । फिर वह गर्भमें रहनेवाला बालक बिलखते स्वरमें रोने लगा ॥३१ - ३४॥

[ पुलस्त्यजी कहते हैं - ] नारदजी ! उसके बाद दिति जग गयी और उसने इन्द्रकी की हुई चेष्टाको जान लिया । उसने रोते हुए पुत्रकी वाणी सुनी । इन्द्रने भी कहा - मूर्ख ! घर्घर शब्दसे मत रोओ । ऐसा कहकर उन्होंने प्रत्येक टुकड़ेको पुनः सात - सात टुकड़ोंमें काट डाला । वे ( कटे हुए टुकड़े ) इन्द्रके मरुत् नामके देवभृत्य हो गये । माताके ही अनुचित कार्य करनेके कारण वे आगे चलते हैं । उसके बाद वज्र लिये हुए इन्द्रने जठरसे बाहर आकर एवं शापसे भयभीत होकर साथ जोड़कर दितिसे कहा - आपके पुत्रको जो मैंने काटा है इसमें मेरा अपराध नहीं है । आपके ही अपचरण ( पवित्रताका पालन न करने ) - से वह काटा गया । अतः मेरे ऊपर आपको कुपित नहीं होना चाहिये ॥३५ - ३९॥

दितिने कहा - इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है । मैं इसे पूर्वनियोजित मानती हूँ । इसीसे समय पूरा होनेपर भी मैंने अपवित्रताका आचरण कर दिया ॥४०॥

पुलस्त्यजी बोले - भामिनी दितिने ऐसा कहनेके बाद उन बालकोंको सान्त्वना देकर उन्हें देवराजके साथ ही भेज दिया । महर्षे ! इस प्रकार पूर्वकालमें भयार्त्त होकर महेन्द्रने गर्भस्थित अपने ही सहोदरोंके विनाशके लिये उन्हें वज्रद्वारा काट दिया । इसीसे वे ‘ गोत्रभित् ’ नामसे प्रसिद्ध हो गये ॥४१ - ४२॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें एकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७१॥

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Last Updated : January 24, 2012

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