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श्रीकृष्ण माधुरी - पद २११ से २१७

`श्रीकृष्ण माधुरी` पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


२११.
राग गौरी
मुरली प्रगट भई धौं कैसैं ।
कहाँ हुती, कैसैं धौं आई, गीधे स्याम अनैसें ॥१॥
मातु पिता कैसे है याके, याकी गति मति ऐसी ।
ऐसे निठुर होहिंगे तेऊ, जैसे की यह तैसी ॥२॥
या तुम नाहिं सुनी हौ सजनी, याके कुल कौ धर्म ।
सूर सुनत अबही सुख पैहो, करनी उत्तम कर्म ॥३॥

२१२.
राग भैरव.
याके गुन मैं जानति हौं ।
अब तौ आइ भई हाँ मुरली, औरें नाते मानति हौं ॥१॥
हरि की कानि करति, यह को है, कहा करौं अनुमानति हैं ।
अबही दूरि करौं गुन कहि कैं, नेकु सकुच जिय मानति हौं ॥२॥
यातैं लगी रहति मुख हरि के, सुख पावत, पहिचानति हौं ।
सूरदास यह निठुर जाति की, अब मै यासौं ठानति हौं ॥३॥

२१३.
रान नट.
सुनौ री मुरली की उतपत्ति ।
बन मैं रहति, बाँस कुल याकौ, यह तौ याकी जत्ति ॥१॥
जलधर पिता, धरनि है माता, अवगुन कहौं उधारि ।
बनहू तैं याकौ घर न्यारौ, निपटै जहाँ उजारि ॥२॥
एक तैं एक गुनन हैं पूरे मातु, पिता औ आपु ।
नहिं जानिए कौन फल प्रगट्यौ अतिही कृपा प्रतापु ॥३॥
बिषैवासिन पर काज न जानैं, याके कुल कौ धर्म ।
सुनौ सूर मेघनि की करनी, औ धरनी के कर्म ॥४॥

२१४.
राग गौरी
तैसोइ पिता, मातु तैसी, अब देखौ, इनके कर्म ॥१॥
वे बरषत धरनी संपूरन, सर सरिता अवगाह ।
चातक सदा निरास रहत है एक बूँद की चाह ॥२॥
धरनी जनम देइति सबही कौ, आपुन सदा कुमारी ।
उपजत फिरि ताही मैं बिनसत, छोभ न कहुँ महतारी ॥३॥
ता कुल मैं यह कन्या उपजी, याके गुनन सुनाऊँ ।
सूर सुनत सुख होइ तुम्हारे, मैं कहि कैं सुख पाऊँ ॥४॥

२१५.
राग जैतश्री
मात पिता गुन कह्यौ बुझाई ।
अब याहू के गुन सुनि लीजै, जातैं स्त्रवन सिराई ॥१॥
उनके वे गुन, निठुर कहावत, मुरली के गुन देखौ ।
तब याकौ तुम औगुन मानौ, जब कछु अचरज पेखौ ॥२॥
जा कुल मैं उपजी, ता कुल कौ जारि करति है छार ।
तन ही तन मैं अगिनि प्रकासति, ऐसी याकी झार ॥३॥
यह जौ स्याम सुनै स्त्रवननि भरि, कर तैं देहैं डारि ।
’ सूरदास ’ प्रभु धोखें याकौं राखत अधरनि धारि ॥४॥

२१६.
राग नट.
यह मुरली सखि ! ऐसी है ।
रीझे स्याम बात सुनि मीठी, नहिं जानत यह जैसी है ॥१॥
देखौ याके भेद सखी री, कैसें मन दैं पैसी है ।
हम पै रहति भौंह सतराए, चतुर चतुराई जैसी है ॥२॥
वै गुन रहति चुराए हरि सौं, देखौ ऐसी गैसी है ।
सुनौ सूर बैरनि भइ हम कौं, प्रगट सौति वैसी है ॥३॥

२१७.
यह तौ भली उपजी नाहिं ।
निदरि बैसी ह्वै कैं, देखि देखि रिसाहिं ॥१॥
कहा याकी सकुच मानति, कहौ बात सुनाइ ।
तबहिं बस करि लियौ हरि कौं, हम सबनि बिसराइ ॥२॥
प्रबल पावस सदर, ग्रीषम कियौ तप तनु गारि ।
तिन्हैं तू लै आप बैसी, प्रानपति बनवारि ॥३॥
जो भई सो भई अव यह छाँडिस दै रस बाद ।
सूर प्रभु कें अधर लगि लगि कहा बोलति नाद ॥४॥

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Last Updated : September 06, 2011

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