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श्रीकृष्ण माधुरी - पद १२६ से १३०

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


१२६ .
राग धनाश्री
नंद नंदन मुख देखो नीके।
अंग अंग प्रति कोटि माधुरी , निरखि होत सुख जी के ॥१॥
सुभग स्त्रवन कुंडल की आभा , झलक कपोलनि पी कें।
दह दह अमृत मकर क्रीडत मनु , यह उपमा कछु ही कें ॥२॥
औ अंग की सुधि नहि जानौ करे कहति हाँ लीके।
सूरदास प्रभु नटवर काछे , रहत है रति पति बीके ॥३॥

( गोपी कहती है - ) नन्दनन्दनका मुख भली प्रकार देखो , जिसके अंग -प्रत्यंगमे असीम माधुर्य है और जिसे देखकर हृदयको आनन्द होता है । मनोहर कानोंके कुंडलोंकी कान्ति प्यारे के कपोलोपर ( कुछ ऐसी ) झलक रही है , मानो अमृतके दो सरोवरोमे मगर खेल रहे हो । यही उपमा इनकी चित्तमे जँचती है । लकीर खींचकर कहती हूँ ( मेरी यह बात सर्वथा सत्य है कि ) दूसरे किसी अंगका मुझे कुछ पता नही है ( मेरे नेत्र तो कपोलोंपर ही लगे रहे ) । ये सूरदासके स्वामी -नटवर -वेष बनाये रहते है , उस समय ( इनको देखकर ) कामदेव भी इनके हाथो बिक जाता है ॥१२६॥

१२७ .
राग रामकली
देखि री , देखि कुंडल झलक।
नैन द्वै छबि धरौं कैसे , लगति तापर पलक ॥१॥
लसति चारु कपोल दुहुँ बिच सजल लोचन चारु।
मुख सुधा सर मीन मानो मकर संग बिहारु ॥२॥
कुटिल अलक सुभाइ हरि के , भुवन पै रहे आइ।
मनो मनपथ फँदे फंदनि मीन बिबि तट ल्याइ ॥३॥
चपल लोचन , चपल कुंडल , चपल भ्रुकुटी बंक।
सखा ब्याकुल देखि अपने लेत बनत न संक ॥४॥
सूर प्रभु नँद सुवन की छबि बरनि कापै जाइ।
निरखि गोपी निकर बिथकी , बिधिहि अति सिर पाइ ॥५॥
१२८ .
राग जैतश्री
बिधना अतिही पोच कियौ री।
कहा बिगार कियौ हम वाकौ ,
ब्रज काहे अवतार दियौ री॥१॥
यह तौ मन अपने जानत ही ,
एते पै क्यु निठुर हियौ री।
रोम रोम लोचन इकटक करि ,
जुबनिति प्रति काहे न ठियौ री ॥२॥
अखियाँ द्वै , छबि की चमकनि वह ,
हम त चाहति सबै पियौ री।
सुनि सजनी ! यह करनी अपनी ,
अपने ही सिर मानि लियौ री ॥३॥
हम तो पाप कियौ , भुगतौ को ,
पुन्य प्रगट क्यों जात छियौ री।
सूरदास प्रभु रुप सुधा निधि ,
पुट थोरौ , बिधि नाहिं बियौ री ॥४॥

१२९ .
थकित भई राधा ब्रज नारि।
जो मन ध्यान करति ही तेई अंतरजामी ए बनवारि ॥१॥
रतन जटित पग सुभग पाँवरी , नूपुर परम रसाल।
मानौ चरन कमल दल लोभी , बैठे बाल मराल ॥२॥
जुगल जंघ मरकत मनि रंभा , बिपरित भाँति सँवारे।
कटि काछनी , कनक छुद्रावलि , पहरें नंद दुलारे ॥३॥
हृदै बिसाल माल मोतिन बिच कौस्तुभ मनि अति भ्राजत।
मानौ नभ निरमल तारागन , ता मधि चंद बिराजत ॥४॥
दुहुँ कर मुरली अधरनि धारैं , मोहन राग बजावत।
चमकत दसन , मटकि नासापुट , लटकि नैन मुख गावत ॥५॥
कुंडल झलक कपोलन मानौ , मीन सुधा सर क्रीडत।
भ्रकुटी धनुष , नैन खंजन मनु उडत नही मन ब्रीडत ॥६॥
देखि रुप ब्रजनारि थकित भइँ , क्रीट मुकुट सिर सोहत।
ऐसे सूर स्याम सोभानिधि , गोपीजन मन मोहत ॥७॥

१३० .
राग सूही बिलावल
देखि सखी , अधरनि की लाली।
मनि मरकत तैं सुभग कलेवर , ऐसे है बनमाली ॥१॥
मनौ प्रात की घटा साँवरी , तापै अरुन प्रकास।
ज्यौं दामिनि बिच चमकि रहत है , फहरत पीत सुबास ॥२॥
कैधौं तरुन तमाल बेलि चढि , जुग फल बिंब सुपाके।
नासा कीर आइ मनु बैठ्यौ , लेत बनत नहिं ताके ॥३॥
हँसत दसन इक सोभा उपजति , उपमा जदपि लजाइ।
मनौ नीलमनि पुट मुकुता गन बंदन भरि बगराइ ॥४॥
किधौं ब्रज कन लाल नगन खँचि , तापै बिद्रुम पाँति।
किधौं सुभग बंधूक कुसुम तर झलकत जल कन काँति ॥५॥
किधौं अरुन अंबुज बिच बैठी सुंदरताई जाइ।
सूर अरुन अधरनि की सोभा बरनत बरनि न जाइ ॥६॥

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Last Updated : December 20, 2010

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