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श्रीकृष्ण माधुरी - पद ७१ से ७५

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


७१.
राग गुन-सारंग
मेरे नैन निरखि सचु पावै।
बलि बलि जाउँ मुखारबिंद की, बन तैं बनि ब्रज आवैं ॥१॥
गुंजा फल अवतंस, मुकुट मनि, बेनु रसाल बजावैं।
कोटि किरन मनि मंजु प्रकासित, उडपति बदन लजावै ॥२॥
नटवर रुप अनूप छबीले, सबहिनि के मन भावैं।
सूरदास प्रभु चलत मंद गति, बिरहिनि ताप नसावैं ॥३॥

७२.
राग गौरी
बलि बलि मोहनि मूरति की, बलि
बलि कुंडल, बलि नैन बिसाल ।
बलि भ्रकुटी, बलि तिलक बिराजत,
बलि मुरली, बलि सब्द रसाल ॥१॥
बलि कुंतल, बलि पाग लटपटी,
बलि कपोल, बलि उर बनमाल।
बलि मसुकानि महामुनि मोहति,
बलि उपरैना गिरिधर लाल ॥२॥
बलि भुज सखा अंस पर मेले,
निरखत मगन भईं ब्रज बाल।
बलि दरसन ब्रह्मादिक दुरलभ,
सूरदास बलि चरन गुपाल ॥३॥

७३.
राग जैतश्री
ए रे सुंदर साँवरे, तैं चित लियौ चुराइ।
संग सखा संझा समै द्वारैं निकस्यौ आइ ॥१॥
देखि रुप अद्भुत तेरौ, रहे नैन उरझाइ।
पाग ऊपर गोसमावल, रँग रँग रची बनाइ ॥२॥
अति सुंदर सुक नासिका, राजत लोल कपोल।
रत्न जटित कुंडल मनौ झष सर करत कलोल ॥३॥
कटि तट काछनि राजई, पीतांबर छबि देत।
अमृत बचन मुख भाषई, तन मन बस करि लेत ॥४॥
भौंह धनुष बर नैन द्वै मनौ मदन सर साँधि।
जाहि लगै सो जानई, संग लेत बल बाँधि ॥५॥
अंग अंग पै बलि गई, मुरली नैकु बजाइ
सुनि पावैं सचु गोपिका, सूरदास बलि जाइ ॥६॥

७४.
राग बिलावल
स्याम कछु मो तन ही मुसुकात।
पहरि पितंबर, चरन पाँवरी, ब्रज बीथिनि मैं जात ॥१॥
अद्भुत बिंद चँदन, नख-सिख लौं सोंधे भीने गात।
अलकावली अधर, मुख बीरा, लिए कर कमल फिरात ॥२॥
धन्य भाग या ब्रज के सखि री, धनि जननी तात।
धनि जे सूरदास प्रभु निरखित लोचन नाहिं अघात ॥३॥

७५.
राग अडानौ
स्याम सुँदर आवत बन तैं बने भावत,
आजु देखि देखि छबि नैन रीझे।
सीस पै मुकुट डोल, श्रवन कुंडल लोल,
भ्रकुटि धनुष, नैन खंज खीझे ॥१॥
दसन दामिनि ज्योति, उर पर माल मोति,
ग्वाल बाल संग आवै रंग भीजे।
सूर प्रभु राम श्याम, संतनि के सुखधाम,
अंग अंग प्रति छबि देखि जीजै ॥२॥

मेरे नेत्र उस शोभाको देखकर ( बडे ) हर्षित होते है; मोहनके मुख-कमलपर बार-बार बलिहारी जाती हूँ, जब वे वनसे सजे हुए व्रज लौटते है । गुञ्जाफलों ( घुँघचियो ) का हार तथा मणियोंका मुकुट धारण किये बडी रसमय वंशी बजाते है । करोडो सूर्योंके समान सुन्दर प्रकाशमान अपने मुखसे चन्द्रमाके बिम्बको भी लज्जित करते है । वे शोभाभय अनुपम नटवरका साज सजे सभीके मनको अच्छे लगते है । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामी मन्द गतिसे चलते हुए वियोगियोंके ( दिनभरसे वियुक्त व्रजवासियोंके ) संताप ( वियोग-दुःख ) को दूर करते है ॥७१॥

इस मोहिनी मूर्तिपर बार-बार बलिहारी, बार-बार बलिहारी ( इन ) कुण्डलोंपर और बलिहारी ( इन ) बडे-बडे नेत्रोंपर । भृकुटिपर मैं बलिहारी, सुशोभित तिलकपर बलिहारी, मुरलीपर बलिहारी और ( उसके ) रसमय शब्दपर बलिहारी हूँ । केशरशिपर बलिहारी, लटपटी ( अनियमित ढंगसे लपेटी हुई ) पगडीपर बलिहारी, कपोलोंपर बलिहारी और वक्षस्थलकी वनमालापर ( भी ) बलिहारी हूँ । महामुनियोंको मोहित करनेवाली मुस्कराहटपर बलिहारी और गिरधरलालके पटुकेपर बलिहारी, जिसे देखकर व्रजकी स्त्रियाँ ( प्रेम ) मग्न हो जाती है । उस दर्शनपर बलिहारी, जो ब्रह्मादि देवताओंको भी दुर्लभ है, सूरदास गोपालके चरणोंपर बलिहारी है ॥७२॥

( गोपी कहती है- ) ’ अरे श्यामसुन्दर ! तूने मेरा चित्त चुरा लिया है । संध्याके समय सखाओंके साथ तू मेरे द्वारकी ओरसे आ निकला था, उस समय तेरे अद्भुत रुपको देखकर मेरे नेत्र उसीमे उलझ गये । पगडीके ऊपर गोसमावल ( कलँगी ) रंग-बीरंगी बनाकर सजायी गयी है । अत्यन्त सुन्दर तोतेकी ठोर-जैसी तेरी नासिका है तथा कपोलोंपर चञ्चल रत्न-जडे कुण्डल ऐसे शोभा दे रहे है मानो सरोवरमे मछलियाँ क्रीडा करती हो । कमरमें कछनी ( बहुत ) भली लग रही है तथा पीताम्बरका पटुका शोभा दे रहा है । मुखसे ऐसी अमृतके समान वाणी बोलते हो कि तन-मन ( दोनो ) वशमे कर लेते हो । भौहें श्रेष्ठ धनुषके समान है और दोनो नेत्र ऐसे है मानो कामदेवने बाण चढा रखे हो । ये ( नेत्र-बाण ) जिसे लगते है, ( चोटके ) वही समझता है; बलपूर्वक ये उसे ( अपने ) साथ बाँध लेते है । तेरे अंग-प्रत्यंगपर मैं न्योछावर हो गयी हूँ; तनिक वंशी बजाओ जिसे सुनकर गोपियाँ ( सखियाँ ) सुखी हो । ’ सूरदास ( इस शोभापर ) बलिहारी जाता है ॥७३॥

( गोपी कहती है- ) सखि ! श्याम कुछ मेरी ओर देखकर ही मुसकरा देते है । ( उस दिन ) पीताम्बर और चरणोंमे जूतियाँ पहिनकर व्रजकी गलियोंमे जा रहे थे । ( ललाटपर ) चन्दनकी अद्भुत बेदी लगी थी । नखसे शिखातक अंगप्रत्यंग सुगन्धित तथा सौन्दर्यरससे भीगा ( सौंदर्यमय ) था । अलके झूम रही थी, मुखमे पानका बीडा था और हाथमे कमल लिये घुमा रहे थे । अरी सखी ! इस व्रजके धन्य भाग्य है, इनकी माता और पिता ( परम ) धन्य है और इन सूरदासके स्वामीको जो देखते है, किंतु जिनके नेत्र तृप्त रही होते, वे भी धन्य है । ’ ॥७४॥

श्यामसुन्दर आज वनसे श्रृंगार किये आते हुए बडे प्रिय लग रहे है, उनकी शोभा देख-देखकर मेरे नेत्र रीझ ( मुग्ध हो ) गये । मस्तकपर हिलता हुआ ( मयूरपिच्छका ) मुकुट, कानोमे चंञ्चल कुंडल और भौंहरुपी धनुषको देखकर नेत्ररुपी खञ्जन ( कुछ ) अप्रसन्न ( से ) हो रहे  ( कुछ लाल हो गये ) है । दाँतोकी कान्ति बिजलीके समान है, वक्षःस्थलपर मोतियोंकी माला है, आनन्दमे भीगे ( आनन्दमग्न ) हुए ग्वालबालोंके साथ आ रहे है । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामी बलराम-श्याम संतोंके आनन्दधाम है, जिनके अंग-प्रत्यंगकी शोभा देखकर ( ही ) जीवन धारण करना चाहिये ।  ( जीवनका फल इस शोभाका दर्शन ही है । ) ॥७५॥


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Last Updated : November 19, 2010

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