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श्रीकृष्ण माधुरी - पद २०६ से २१०

`श्रीकृष्ण माधुरी` पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


२०६.
राग सारंग
यह मुरली मोहिनी कहावै ।
सप्त सुरनि मधुरी कहि बानी जल थल जीव रिझावै ॥१॥
उहिं रिझए सुर अस्रु कपट रचि, तिन कौं बस्य करावै ।
पुट एकै इत मद उत अमृत आपु अँचै अँचवावे ॥२॥
याके गुन ए सब सुख पावत, हम कौं बिरह बढावै ।
सूरदास याकी यह करनी स्यामै नीकें भावै ॥३॥

२०७.
मुरली तै हरि हमैं बिसारी ।
बन की व्याधि कहा यह आई, देति सबै मिलि गारी ॥१॥
घर घर तैं सब निठुर कराईं महा अपत यह नारी ।
कहा भयौ जौ हरि मुख लागी, अपनी प्रकृति न टारी ॥२॥
सकुचित हौ याकौं तुम काहैं, कहौ न बात उघारी ।
नोखी सौति भई यह हम कौं, औरु नाहिं कहुँ कारी ॥३॥
इनहू तैं अरु निठुर कहावति, जो आई कुल जारी ।
सूरदास ऐसी को त्रिभुवन, जैसी यह अनखारी ॥४॥

२०८.
राग मारु
आई कुल दाहि निठुर मुरली यह माई ।
याकौं रीझे गुपाल, काहूँ न लखाई ॥१॥
जैसी यह करनि करी, ताहि यह बडाई ।
कैसे बस रहत भए, यह तौ टुनहाई ॥२॥
दिन दिन यह प्रबल होति, अधर अमृत पाई ।
मोहन कौं इहिं तौ कुछ मोहिनी लगाई ।
सूरज प्रभ कौं ता बिनु और नहिं सुहाई ॥४॥

२०९.
राग बिलावल
मुरली हरि कौं अपनौ करि लीन्हौ माई ।
जोइ कहै सोई करैं अति हरष बढाई ॥१॥
घर बन सँग लीन्हे फीरैं, कहुँ करत न न्यारी ।
राधा आधा अंग है, ताहू ते प्यारी ॥२॥
सोवत जागत चलत हूँ, बैठत रस वासौं ।
दूरि कौन सौं होइगी, लुबधे हरि जासौं ॥३॥
अब काहे कौं झखति हौ, वह भई लडैती ।
सूर स्याम की भावती वह अतिर्हि चढैती ॥४॥

२१०.
मुरली भई रहति लडबौरी ।
देखति नाहिं रैनिहू बासर, कैसी लावति ढोरी ॥१॥
कर पै धरी अधर के आगैं राखति ग्रीव निहोरी ।
पूरत नाद स्वाद सुख पावत, तान बजावत गौरी ॥२॥
आयसु लिए रहत ताही कौ, डारी सीस ठगोरी ।
सूर स्याम की बुधि चतुराई, लीन्ही सबै अँजोरी ॥३॥

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Last Updated : September 06, 2011

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