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श्रीकृष्ण माधुरी - पद १४६ से १५०

`श्रीकृष्ण माधुरी` पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


१४६.
राग बिहागरौ
( कहौं कहा ) अंगन की सुधि बिसरि गई।
स्याम अधर मृदु सुनत मुरलिका, चक्रित नारि भई ॥१॥
जो जैसे सो तैसे रहि गइँ सुख दुख कह्यौ न जाई।
लिखी चित्र सी सूर सुह्वै रहिं इकटक पल बिसराई ॥२॥

१४७.
राग मलार
सुनत बन मुरली धुनि की बाजन।
पपिहा गुंज, कोकिल बन कूजत, औ मोरनि कियौ गाजन ॥१॥
यहै सब्द सुनियत गोकुल मैं, मोहन रुप बिराजन।
सूरदास प्रभु मिली राधिका अंग अंग करि साजन ॥२॥

१४८.
राग मारु
मेरे साँवरे
जब मुरली अधर धरी । सुनि सिध्द समाधि टरी ॥
सुनि थके देव बिमान । सुर बधू चित्र समान ॥
ग्रह नखत तजत न रास । बाहन बँधे धुनि पास ॥
चर थाके, अचर टरे । सुनि आनँद उमँग भरे ॥
चर अचर गति बिपरीति । सुनि बेनु कल्पित गीति ॥
झरना न झरत पषान । गंधरब मोहे गान ॥
सुनि खग, मृग मौन धरे । फल तृन की सुधि बिसरे ॥
सुनि धेनु धुनि थकि रहति । तृन दंतहू नहिं गहति ॥
बछरा न पीव छीर । पंछी न मन मैं धीर ॥
द्रुम बेली चपल भए । सुनि पल्लव प्रगट नए ॥
सुनि बिटप चंचल पात । अति निकट कौं अकुलात ॥
आकुलित, पुलकित गात । अनुराग नैन चुचात ॥
सुनि पौन चंचल थक्यौ । सरिता जल चलि न सक्यौ ॥
सुनि धुनि चलीं ब्रजनारि । सुत देह गेह  बिसारि ॥
अति थकित भयौ समीर । उलट्यौ जु जमुना नीर ॥
मन मोह्यौ मदन गुपाल । तन स्याम, नैन बिसाल ।
नव नील तन घन स्याम । नव पीत पट अभिराम ॥
नव मुकुट नव बन दाम । लावन्य कोटिक काम ॥
मन मोहन रुप धर्‍यौ । तब गरब अनंग हर्‍यौ ॥
श्रीमदन मोहन लाल । सँग नागरी बजबाल ॥
नव कुंज जमुना कूल । जन सूर देखत फूल ॥

१४९.
राग नट
स्याम कर मुरली अतिहिं बिराजति।
परसति अधर सुधारस बरसति, मधुर-मधुर सुर बाजति ॥१॥
लटकत मुकुट, भौंह छबि मटकति, नैन सैन अति राजति।
ग्रीव नवाइ अटकि बंसी पै कोटि मदन छबि लाजति ॥२॥
लोल कपोल झलक कुंडल की यह उपमा कछु लागत।
मानौ मकर सुधा सर क्रीडत, आपु आपु अनुरागत ॥३॥
बृंदावन बिहरत नँदनंदन, ग्वाल सखा सँग सोहत।
सूरदास प्रभु की छबि निरखत सुर नर मुनि सब मोहत ॥४॥

१५०.
राग धनाश्री
तब लगि सबै सयान रहै।
जब लगि नवल किसोर न मुरली बदन समीर बहै ॥१॥
तबही लौं अभिमान, चातुरी, पतिब्रत, कुलहि चहै।
जब लगि स्त्रवन रंध्र मग, मिलि कै नाहिन मनै महै ॥२॥
तब लगि तरुनि तरल चंचलता बुधि बल सकुचि रहै।
सूरदास जब लगि वह धुनि सुनि नाहिन धीर ढहै ॥३॥

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Last Updated : September 06, 2011

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