हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|भजन|सूरदास भजन|श्रीकृष्ण माधुरी|

श्रीकृष्ण माधुरी - पद ६ से १०

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करने वाले पदोंका संग्रह किया गया है , तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


६ .

राग आसावरी

घुटुरुन चलत स्याम मनि आँगन ,

मातु -पिता दोउ देखत री।

कबहूँ किलकि तात मुख हेरत ,

कबहूँ मातु मुख पेखत री ॥१॥

लटकत लटकत ललित भाल पै ,

काजर बिंदु भ्रुव ऊपर री।

यह सोभा नैनन भरि देखैं ,

नहिं उपमा तिहुँ भू पर री ॥२॥

कबहुँक दौरि घुटुरुवन लपकत ,

गिरत , उठत , पुनि धावै री।

इत तै नंद बुलाइ लेत हैं ,

उत तैं जननि बुलावै री ॥३॥

दंपति होड करत आपुस मैं , स्याम खिलौना कीन्है री ।

सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन ,

सुत हित करि दोउ लीन्है री ॥४॥

७ .

राग बिलावल

सोभित कर नवनीत लिएं।

घुटुरन चलत रेनु तन मंडित , मुख लेप किएं ॥१॥

चारु कपोल , लोल लोचन , गोरोचन तिलक दिएं।

लट लटकनि मनौ मत्त मधुप गन माधुरि मधुहि पिए॥२॥

कठुला कंठ , वज्र केहरि नख , राजत रुचिर हिए।

धन्य ’ सूर ’ एकौ पल यहि सुख , का सत कल्प जिए ॥३॥

 

८ .

राग कान्हरौ

आँगन खेलत घुटुवनि धाए।

नील जलद अभिराम स्याम तन ,

निरखी जननि दोउ निकट बुलाए ॥१॥

बंधुक सुमन अरुन पद पंकज ,

अंकुश प्रमुख चिन्ह बनि आए।

नूपुर कलरव मनु हंसन सुत ,

रचे नीड दै बाहँ बसाए ॥२॥

कटि किंकिनि बर हार ग्रीव दर ,

रुचिर बाहु भूषन पहिराए।

उर श्रीबच्छ मनोहर हरि नख ,

हेम मध्य मनि गन बहु लाए ॥३॥

सुभग चिबुक , द्विज , अधर , नासिका ,

स्त्रवन , कपोल मोहि सुठि भाए।

भ्रुव सुंदर , करुना रस पूरन ,

लोचन मनहु जुगल जल जाए ॥४॥

भाल बिसाल ललित लटकन मनि ,

बाल दसा के चिकुर सुहाए।

मानौ गुरु सनि कुज आगैं करि ,

ससिहि मिलन तम के गन आए ॥५॥

उपमा एक अभूत भई तब ,

जब जननी पट पीत उढाए।

नील जलद पै उडुगन निरखत ,

तजि सुभाव मनु तडित छपाए ॥६॥

अंग अंग प्रति मार निकर मिलि ,

छबि समूह लै लै मनु छाए।

सूरदास सो क्यों करि बरनै ,

जो छबि निगम नेति करि गाए ॥७॥

 

९ .

राग धनाश्री

हौं बलि जाउँ छबीले लाल की।

धूसर धूरि , घुटुरुवन रेंगनि ,

बोलनि बचन रसाल की ॥१॥

छिटकी रही चहुँ जु लटुरियाँ ,

लटकन लटकनि भाल की।

मोतिन सहित नासिका नथुनी

कंठ कमल दल माल की ॥२॥

कछुक हाथ , कछु माखन लै ,

चितवनि नैन बिसाल की।

सूरदास प्रभु मगन भइ ,

ढिग न तजनि ब्रजबाल की ॥३॥

 

१० .

राग कान्हारौ

आदर सहित बिलोकि स्याम मुख ,

नंद अनंद रुप लिए कनियाँ।

सुन्दर स्याम सरोज नील तन

अँग अँग सुभग सकल सुखदनियाँ ॥१॥

अरुन चरन नख जोति जगमगति ,

रुन झुन करति पाइँ पैजनियाँ।

कनक रतन मनि जटित रचित कटि

किंकनि कुनित , पीतपट तनियाँ ॥२॥

पहुँची करालि , पदक उर हरि नख ,

कठुला कंठ मंजु गजमनियाँ।

रुचिर चिबुक द्विज अधर नासिका ,

अति सुन्दर राजति सुबरनियाँ ॥३॥

कुटिल भृकुटि , सुख की निधि आनान ,

कल कपोल की छबि न उपनियाँ।

भाल तिलक मसि बिंदु बिराजत ,

सोभित सीस बिंदु बिराजत ,

सोभित सीस लाल चौतनियाँ ॥४॥

मन मोहिनी तोतरी बोलनि ,

मुनि मन हरनि सु हँसि -मुसुकनियाँ।

बाल -सुभाव , बिलोल बिलोचन ,

चोरति चितौ चारु चितवनियाँ ॥५॥

निरखति ब्रज -जुबती सब ठाढी ,

नन्द सुवन छबि चंदबदनियाँ।

सूरदास प्रभु निरखी मगन भइँ ,

प्रेम बिबस कछु सुधि न अपनियाँ ॥६॥

( कोई गोपी कहती है- ) सखी ! श्यामसुन्दर मणियम आँगनमे घुटनो चल रहा है और माता- पिता ( यशोदाजी और नन्दजी ) दोनो ( उन्हे ) देख रहे है। कभी किलकारी मारकर पिताका मुख देखते है और कभी माताके मुखकी और देखते है। सुन्दर ललाटपर लटकन लटक रहा है, भौंहके ऊपर काजलका बिन्दु ( डिठौना ) लगा है, इस शोभाको हम भर नेत्र देखे ( देखा ही करें ), इसकी उपमा तीनो लोकोंमे नही है। कभी घुटनो दौडकर लपकते है, गिर पडते है, ( और ) फिर उठकर दौडते है। इधरसे नन्दजी उन्हे बुला लेते है और उधरसे मैया बुलाती है। दम्पति ( पिता- माता ) परस्पर होड कर रहे है ( कि मोहन किसके पास आता है ) श्यामसुन्दरको उन्होंने खिलौना बना लिया है। सूरदासजी कहते हैं- मेरे स्वामी ( साक्षात ) सनातन ब्रह्म है; किंतु दोनो ( श्रीनन्द- यशोदा ) ने अपने प्रेमसे उन्हे पुत्र बना लिया है ॥६॥

( श्यामसुंदर ) हाथमे मक्खन ( का लौंदा ) लिये शोभित हो रहे हैं। घुटनोंके बल चलनेके कारण शरीर धुलिसे सनकर ( बडा ही ) भला लगता है और मुखपर दही पोत रखा है। सुन्दर कपोल है, चञ्चल नेत्र है और गोरोचनका तिलक लगाये है। अलके ऐसी झूम रही है मानो भौरोंका समूह ( मुखकमलके ) सौन्दर्य- रुप मधु ( पुष्परस ) को पीकर मतवाला हो रहा है। गलेका कठुला और हीरोंसे जडा बघनखा सुन्दर वक्षस्थलपर शोभा दे रहा है। सूरदासजी कहते हैं - इस शोभाके दर्शनका आनन्द एक पलको भी ( जिसे ) प्राप्त हो जाय, वह धन्य है, नही तो सौ कल्पतक जीवित रहनेसे भी क्या लाभ ॥७॥

( श्यामसुंदर ) घुटनोंके बल दौडते हुए आँगनमे खेल रहे है। नीले मेघके समान सुन्दर शरीरवाले श्यामसुन्दरको देखकर दोनो माताओ ( यशोदाजी और रोहिणीजी ) ने पास बुलाया। पलाश- पुष्पके समान लाल- लाल चरणकमल हैं, जिनमे अंकुश आदि ( अंकुश, वज्र, यव, कमल, ध्वजा आदि ) चिह्न शोभा दे रहे है। नूपुरोकी ध्वनि ऐसी है मानो-( अंग- रुप ) आश्रय देकर बसाये हुए हंसोके बच्चे, रचे हुए नीडो ( घोसलो ) मे कलरव कर रहे हो। कमरमे घुँघरुदार करधनी ( बाजती ) है, शंखके समान गलेमे श्रेष्ठ मोतियोंकी माला है, बाँहोमे सुन्दर आभूषण पहनाये हुए है । हृदयपर श्रीवत्सचिह्न तथा सोनेमें बहुत- सी मणियोंके साथ जडा हुआ सुन्दर बघनखा है। मनोहर ठुड्डी, दाँत, ओठ, नाक, कान और कपोल मुझे बडे प्रिय लगते है। सुन्दर भौंहे ( और ) करुणारस- ( कृपाकी माधुरी- ) से पूर्ण नेत्र ऐसे है मानो दो कमल हों। विशाल ललाटपर सुन्दर मणिमय लटकन तथा बाल्यावस्थाके ( गभुआरे, कोमल ) केश ( ऐसे ) शोभा दे रहे है मानो बृहस्पति, शनि और मंगलको आगे करके अन्धकार ( राहु ) के दूतगण चन्द्रमासे मिलने आये हो। जब माताने पीताम्बर ओढा दिया, तब तो एक अपूर्व उपमा सामने आ गयी । ( वह यह कि ) मानो नील बादलपर तारागणोंको देखकर बिजलीने अपना ( चञ्चल ) स्वभाव छोडकर ( स्थिर बनकर ) उन्हे छिपा लिया हो। ( सखि ! ऐसा लगता है ) मानो उनके अंग- अंगपर कामदेवोंका समुदाय एकत्र हो अपने- अपने शोभा- समूहको ले- लेकर छा गया हो। सूरदासजी उस शोभाका कैसे वर्णन करें, जिसे वेद ’ नेति- नेति ’ ( वह ऐसा नही, ऐसा नही ) कहकर गाते है ॥८॥

( गोपी कहती है, मैं ) छबीले ( परम सुन्दर ) लालकी धूलिसे लिपटी देह, घुटनोंके बल सरकने और रसपूर्ण ( अत्यन्त मधुर ) वाणी बोलनेपर बलिहारी जाती हूँ। ( यहि नही, उनके मुखपर ) चारो और फैली हुई लटोपर, ललाटपर लटकनेवाले लटकनपर, मोतियोंसे युक्त नासिकामे पडी हुई नथुनीपर, गलेमे ( पहनी हुई ) कमल- दलकी मालापर तथा कुछ मक्खन हाथमे और कुछ मुखमे लेकर विशाल नेत्रोंसे देखनेपर मैं बलिहारी हूँ। सूरदासजी कहते है - ( वह ) व्रजकी गोपी ( श्यामसुंदरकी शोभाको देखती हुई ) प्रभुके प्रेममे मग्न हो गयी और ( उनकी ) समीपता छोडती ही नही ॥९॥ ( उसके इस अनोखे प्रेमपर भी मै न्योछावर हँ। )

 

श्यामसुन्दरके मुखको आदरके साथ देखते हुए नन्दजीने उस आनन्दमूर्तिको गोदमे उठा लिया। उनका शरीर नीककमलके समान श्यामवर्ण है और सभी अंग मनोहर तथा समस्त सुखोके दाता है। लाल लाल चरणोकें नखोकी ज्योति जगमग कर रही है और पैरोंमे नूपुर रुनझुन शब्द कर रहे है। सोनेकी बनी तथा रत्न एवं मणियोंसे जटित किंकिणी कटिमे झंकार कर रही है। पीताम्बरकी तनियाँ ( बगलबंदी ) पहिने है , हाथोमे पहुँची है , वक्षस्थलपर श्रीवत्सचिह्न तथा बघनखा है और कठुला एवं गजमुक्ताकी सुन्दर माला पहिने हुए है। देखनेकी भूक बढानेवाली ठुड्डी , दाँत , ओठ तथा नासिका अत्यन्त सुन्दर तथा उत्तम वर्ण होनेके कारण शोभा दे रहे है। टेढी भौहे है तथा मुख तो आनन्दका निधान है और सुन्दर कपोलोकी छटाकी कोई उपमा नही। ललाटपर तिलक काजलकी बेदी ( डिठौने ) के साथ विराजमान है तथा मस्तकपर लाल रंगकी चौकोर टोपी शोभित है। मनको मोहित करनेवाली तोतली बोली तथा हँसना और मुस्कुराना ( तो ) मुनियोंके भी मनको हरण करनेवाला है। बालोचित ( चपल ) स्वभाव और चञ्चल नेत्र है ; सुन्दर चितवन चित्तको चुराये लेती है। व्रजकी सब गोपियाँ श्रीनन्दनन्दनके चन्द्रमुखकी शोभा खडी - खडी देख रही हैं । सूरदासजी कहते है कि ( वे ) मेरे स्वामीको देखकर प्रेम - विवश होनेके कारण आनन्दमें विभोर हो गयी है , उन्हे अपनी कुछ भी सुधि नही है ॥१०॥


References : N/A
Last Updated : October 30, 2010

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP