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सप्तत्रिंशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - सप्तत्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


सान्द्रानन्दतनो हरे ननु पुरा दैवासुरे सङ्गरे

त्वत्कृत्ता अपि कर्मशेषवशतो ये ते न याता गतिम् ।

तेषां भूतलजन्मनां दितिभुवां भारेण दूरार्दिता

भूमिः प्राप विरिञ्चमाश्रितपदं देवैः पुरैवागतैः ॥१॥

हा हा दुर्जनभूरिभारमथितां पाथोनिधौ पातुका -

मेतां पालय हन्त मे विवशतां सम्पृच्छ देवानिमान् ।

इत्यादिप्रचुरप्रलापविवशामालोक्य धाता महीं

देवानां वेदनानि वीक्ष्य परितो दध्यौ भवन्तं हरे ॥२॥

ऊचे चाम्बुजभूरमूनयि सुराः सत्यं धरित्र्या वचो

नन्वस्या भवतां च रक्षणविधौ दक्षो हि लक्ष्मीपतिः ।

सर्वे शर्वपुरस्सरा वयमितो गत्वा पयोवारिधिं

नत्वा तं स्तुमहे जवादिति ययुः साकं तवाकेतनम् ॥३॥

ते मुग्धानिलशालि दुग्धजलधेस्तीरं गताः सङ्गता

यावत्त्वत्पदचिन्तनैकमनसस्तावत्स पाथोजभूः ।

त्वद्वाचं हृदये सकलानानन्दयन्नूचिवा -

नाख्यातः परमात्मना स्वयमहं वाक्यं तदाकर्ण्यताम् ॥४॥

जाने दीनदशामहं दिविषदां भूमेश्र्च भीमैर्नुपै -

स्तत्क्षेपाय भवामि यादवकुले सोऽहं समग्रात्मना ।

देवा वृष्णिकुले भवन्तु कलया देवाङ्गनाश्र्चावनौ

मत्सेवार्थमिति त्वदीयवचनं पाथोजभूरूचिवान् ॥५॥

श्रुत्वा कर्णरसायनं तव वचः सर्वेषु निर्वापित -

स्वान्तेष्वीश गतेषु तावककृपापीयूषतृप्तात्मसु ।

विख्याते मथुरापुरे किल भवत्सांनिध्यपुण्योत्तरे

धन्यां देवकनन्दनामुदवहद्राजा स शूरात्मजः ॥६॥

उद्वाहावसितौ तदीयसहजः गतः पथि रथे व्योमोत्थया त्वद्गिरा ।

अस्यास्त्वामतिदुष्टमष्टमसुतो हन्तेति हन्तेरितः

संत्रासात् स तु हन्तुमन्तिकगतां तन्वीं कृपाणीमधात् ॥७॥

गृह्णानश्र्चिकुरेषु तां खलमतिः शौरेश्र्चिरं सान्त्वनै -

र्नो मुञ्चन् पुनरात्मजार्पणगिरा प्रीतोऽथ यातो गृहान् ।

आद्यं त्वस्सहजं पथार्पितमपि स्नेहेन नाहन्नसौ

दुष्टानामपि देव पुष्टकरुणा दृष्टा हि धीरेकदा ॥८॥

तावत्त्वन्मनसैव नारदमुनिः प्रोचे स भोजेश्र्वरं

यूयं नन्वसुराः सुराश्र्च यदवो जानासि किं न प्रभो ।

मायावी स हिरर्भवद्वधकृते भावी सूरप्रार्थना -

दित्याकर्ण्य यदूनदूधुनदसौ शौरश्र्च सूनूनहन् ॥९॥

प्राप्ते सप्तमगर्भतामहिपतौ त्वत्प्रेरणान्मायया

नीते माधव रोहिणीं त्वमपि भोः सच्चित्सुखैकात्मकः ।

देवक्या जठरं विवेशिथ विभो संस्तूयमानः सुरैः

स त्वं कृष्ण विधूय रोगपटलीं भक्ति परां देहि मे ॥१०॥

॥ इति श्रीकृष्णावतारप्रसङ्गवर्णनं सप्तत्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

घनीभूत आनन्दस्वरूप भगवन् ! प्राचीनकालमें देवासुर -संग्राममें आपने जिन राक्षसोंका वध किया था , उनमेंसे भी कुछ राक्षस कर्मभोग शेष होनेके कारण मोक्षको नहीं प्राप्त हुए थे , अतः उन्हें पुनः भूतलपर जन्म लेना पड़ा । उन दैत्योंके भारसे अत्यन्त पीड़ित हुई भूमि पहलेसे ही उपस्थित देवताओंके साथ सत्यलोकस्थित ब्रह्माके पास जाकर कहने लगी —— ॥१॥

‘ हाय ! हाय !! ब्रह्मन् ! महान् कष्ट है ! दुर्जनोंके अतिशय भारसे पीड़ित तथा समुद्रमें मग्नप्राय मुझ अबलाकी रक्षा कीजिये । खेद है ! मेरी विवशता इन देवताओंसे पूछ लिजिये । ’ हरे ! यों बहुत तरहसे प्रलाप करती हुई पृथ्वीको देखकर ब्रह्मा चारों दिशाओंमें देवताओंके मुखोंकी ओद दृष्टिपात करके आपके ध्यानमें मग्न हो गये ॥२॥

( ध्यानमें सारी बातें प्रत्यक्ष ज्ञात करके ) कमलजन्मा ब्रह्मा देवताओंसे बोले ——‘ अयि देवगण ! धरणीका कथन सत्य है ( यह मैंने दिव्य दुष्टिसे देख लिया ) ! निश्र्चय ही इसकी तथा आपलोगोंकी रक्षा करनेमें लक्ष्मीपति विष्णु ही समर्थ हैं ; अत५ शिवजीको आगे करके हम सब लोग यहॉंसे क्षीरसागरको चलें । वहॉं विष्णुको नमस्कार करके उनकी स्तुति करें । ’ ब्रह्माके यों कहनेपर वे सब एक साथ वेगपूर्वक आपके निवासभूत क्षीरसागरको चल दिये ॥३॥

वे संगठित होकर शीतल -मन्द -सुगन्ध सेवित क्षीरसागरके तटपर पहुँचकर जबतक आपके चरणोंके ध्यानमें दत्तचित्त थे , तबतक ब्रह्मा अपने हृदयमें आपकी वाणीको अवगत करके सबको आनन्दित करते हुए यों बोले —— ‘देवताओ ! परमात्माने मुझसे जो कुछ कहा है , उस वचनको आपलोग सुने ’ ॥४॥

( उन्होंने कहा है कि ) ‘ मै स्वर्गवासियोंको तथा पृथ्वीकी दीनदशाको , जो अत्याचारी नरेशोंके कारण उत्पन्न हुई हैं , भलीभॉंति जानता हूँ । अतः उसका विनाश करनेके लिये सच्चिदानन्दस्वरूप में अपने समग्ररूपसे यादवकुलमें प्रकट होऊँगा । भूतलपर मेरी सेवाके हेतु देवगण अपने अंशसे वृष्णिकुलमें उत्पन्न हों तथा देवाङ्णाएँ भी ( राजकन्या एवं गोपी - रूपमें ) जन्म धारण करें । ’ इस प्रकार आपके वचनको ब्रह्माने सबसे कह सुनाया ॥५॥

ईश ! कानोंके लिये अमृतस्वरूप आपके वचनको सुनकर सभीका अन्तःकरण आनन्दित हो गया । तब आपके कृपामृतसे तृप्तात्मा होकर सब -के -सब चले गये । तदनन्तर शूरपूत्र राजा वसुदेवने आपके सांनिध्यजनित पुण्यसे उत्कर्षको प्राप्त हुई प्रसिद्ध मथुरानगरीमें जाकर सौभाग्यशालिनी देवकनन्दिनी देवकीका पाणिग्रहण किया ॥६॥

विवाह सम्पन्न हो जानेपर विदाईके अवसरपर देवकीका भ्राता कंस देवकी -वसुदेवके प्रति सम्मान प्रदर्शित करता हुआ रथपर सारथि बनकर बैठ गया । खेद है , उसी समय मार्गमें आपकी आकाशवाणीने ‘इसका आठवॉं पुत्र तुझ अत्यन्त दुराचारीका हनन करनेवाला होगा ’—— यों घोषित किया । उसे सुनकर भयभीत होनेके कारण कंसने समीपमें ही बैठी कृशाङ्णी देवकीको मार डालनेके लिये तलवार हाथमें उठा ली ॥७॥

पुनः उस दुर्बुद्धिने देवकीकी चोटी पकड़ ली । तब वसुदेवजी बड़ी देरतक उसे सात्त्वनापूर्ण वचनोंद्वारा समझाते रहे , परंतु उसने (चोटी ) नहीं छोड़ी । तदनन्तर ‘इसके पुत्रोंको मैं तुम्हे दे दूँगा ’ वसुदेवजीके यों प्रतिज्ञा करनेपर वह प्रसन्न होकर घरको लौट गया । पूर्वप्रतिज्ञानुसार वसुदेवजीने आपके प्रथम सहोदर भाईको लाकर उसे समर्पित किया , तथापि कंसने स्रेहवश उसका वध नहीं किया । देव ! दुष्टोंकी भी बुद्धि कभी -कभी करुणायुक्त देखी जाती है ॥८॥

( जब कंस घर लौट गया ,) तब आपकी ही प्रेरणासे नारदमुनि भोजराज कंसके पास जाकर उससे बोले ——‘ प्रभो ! क्या आप नहीं जानते हैं कि आपलोग असुर हैं और ये यदुवंशी देवता है ? वे मायावी श्रीहरि देवताओंकी प्रार्थनासे आपलोगोकें वधार्थ ( यदुवंशमें ) उत्पन्न होनेवाले हैं ’ ऐसा सुनकर कंसने यादवोंको स्थानच्युत कर दिया और वसुदेवजीके पुत्रोंको मार डाला ॥९॥

माधव ! जब देवकीके सातवें गर्भमे नागराज अनन्त प्राप्त हुए , तब आपकी प्रेरणासे मायाने उन्हें रोहिणीके उदरमें पहूँचा दिया । तत्पश्र्चात् सच्चिदानन्दस्वरूप आप भी देवकीके गर्भमें प्रविष्ट हुए । विभो ! उस समय देवगण आपकी स्तुति कर रहे थे । कृष्ण ! वही आप मेरे रोगसमूहोंका विनाश करके परा भक्ति प्रदान कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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