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षट्चत्वारिंशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - षट्चत्वारिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


अयि देव पुरा किल त्वयि स्वयमुत्तानशये स्तनन्धये ।

परिजृम्भणतो व्यापावृते वदने विश्र्वेमचष्ट वल्लवी ॥१॥

पुनरप्यथ बालकैः समं त्वयि लीलानिरते जगत्पते ।

फलसञ्चयवञ्चनक्रुधा तव मृद्भोजनमूचुरर्भकाः ॥२॥

अयि ते प्रलयावधौ विभो क्षितितोयादिसमस्तभक्षिणः ।

मृदुपाशनतो रुजा भवेदिति भीता जननी चुकोप सा ॥३॥

अयिा दुर्विनयात्मक त्वया किमु मृत्स्ना बत वत्स भक्षिता ।

इति मातृगिरं चिरं विभो वितथां त्वं प्रतिजज्ञिषे हसन् ॥४॥

अयि ते सकलैर्विनिश्र्चिते विमतिश्र्चेद्वदनं विदार्यताम् ।

इति मातृविभर्त्सितो मुखं विकसत्पद्मनिभं व्यदारयः ॥५॥

अपि मृल्लवदर्शनोत्सुकां जननीं तां बहु तर्पयन्निव ।

पृथिवीं निखिलां न केवलं भुवनान्यप्यखिलान्यदीदृशः ॥६॥

कुहचिद् वनमम्बुधिः क्वचित् क्वचितदभ्रं कुहचिद् रसातलम् ।

मनुजा दनुजाः क्वचित्सुरा ददृशे किन्न तदा त्वदानने ॥७॥

कलशाम्बुधिशायिनं पुनः परवैकुण्ठपदाधिवासिनम् ।

स्वपुरश्र्च निजार्भकात्मकं कतिधां त्वां न ददर्श सा मुखे ॥८॥

विकसद्भुवने मुखोदरे ननु भूयोऽपि तथाविधाननः ।

अनया स्फुटमीक्षितो भवाननवस्थां जगतां बतातनोत् ॥९॥

धृतत्त्वधियं तदा क्षणं जननीं तां प्रणयेन मोहयन् ।

स्तनमम्ब दिशेत्युपासजन् भगवन्नद्भुतबाल पाहि माम् ॥१०॥

॥ इति विश्र्वरूपप्रदर्शनवर्णनं षट्चत्वारिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

अयि देव ! शैशवावस्थामें एक बार स्वयं आप माताकी गोदमें उत्तान लेटे हुए दूध पी रहे थे । उसी समय जँभाई आनेके कारण आपने अपना मुख खोल दिया । उस मुखमें गोपी यशोदाको सारा विश्र्व दिखायी पड़ा ॥१॥

जगदीश्र्वर ! पुनः कुछ वयस्क होनेपर जब आप बालकोंके साक्ष खेलमें तल्लीन थे , तब फल -संग्रहसे वञ्चित किये जानेके कारण क्रुद्ध हुऐ ग्वालबालोंने माता यशोदासे कहा कि ‘कृष्णने मिट्टी खायी है ’ ॥२॥

अयि विभो ! प्रत्येक प्रलयके अवसरपर जो पृथ्वी , जल आदि समस्त प्रपञ्चको भक्षण कर लेनेवाले हैं , ऐसे आपको थोड़ी -सी मिट्टी खा लेनेसे रोग हो जायगा - इस भयसे भीत हुई माता यशोदा आपपर कुपित हो उठीं और पूछने लगीं ॥३॥

‘ क्यों रे नटखट बच्चे ! तुने मिट्टी क्यों खायी है ?’ यों बड़ी देरतक माता डॉंटती रहीं । विभो ! तब आपने हँसते हुए माताके कथनको असत्य बताया कि ‘ मॉं ! मैंने मिट्टी नहीं खायी है ’ ॥४॥

तब माताने कहा — ‘अरे ! तेरे ये सखा और बलदाऊ —— सभी तो तेरे मिट्टी खानेकी बात निश्र्चित बता रहे हैं । यदि इनकी बातसे तू सहमत नहीं है तो अपना मुख खोल । ’ यों माताके भर्त्सना करनेपर आपने अपने खिले हुए कमल -सदृश मुखको खोल दिया ॥५॥

माता उस मुखमें मृत्कणको ही देखनेके लिये उत्सुक थीं , किंतु आपने उन्हें अतिशय परितृप्त करते हुए -से केवल सम्पूर्ण पृथ्वी ही नहीं , समस्त भुवनोंको भी दिखलाया ॥६॥

उस समय माताने आपके मुखके भीतर कहीं वन , कहीं सागर , कहीं आकाश , कहीं रसातल , कहीं मानव , दानव और देवता —— इस प्रकार क्या -क्या नहीं देखा ? अर्थात् सारा ब्रह्माण्ड देख लिया ॥७॥

उसने उस मुखमें आपको कलशाम्बुधि -क्षीरसागरमें शेष -शय्यापर शयन करते , पुनः परमपद वैकुण्ठमें निवास करते हुए और फिर अपने आगे अपने पुत्ररूपमें ——यों किस -किस रूपमें नहीं देखा ? अर्थात् आपके विभिन्न रूप देखे ॥८॥

जिसमें सारा ब्रह्माण्ड दीख रहा था उस मुखके भीतर यशोदाने स्पष्टरूपसे पुनः उसी प्रकारके मुखवाले अपने पुत्रको देखा -अर्थात् यशोदाने सामने खड़े हुए अपने पुत्रके मुखमें जगत् और अपने पुत्रको देखा। पुनः उस दीखते हुए पुत्रके मुखमें जगत् और अपने पुत्रको देखा । आगे भी वैसा ही दीखता गया । इस प्रकार आपने जगत्की अनवस्था — अनन्तताका विस्तार किया ॥९॥

उस समय क्षणभरके लिये जिसे ‘सच्चिदानन्द ब्रह्म ही योगैश्र्वर्यसे मेरा पुत्र हुआ है ’ । इस प्रकारका तत्त्वज्ञान हो आया था , उस माता यशोदाको आपने पुनः वात्सल्यस्रेहसे मोहित करते हुए कहा — ‘मॉं ! दूध पिला दे । ’ यों कहते हुए गोदमें चढ़नेके लिये आतुर हो उठे । ऐसे अद्भुत बालरूपधारी भगवन् ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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