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एकोनचत्वारिंशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - एकोनचत्वारिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


भवन्तमयमुद्वहन् यदुकुलोद्वहो निस्सरन्

ददर्श गगनोच्चलज्जलभरां कलिन्दात्मजाम् ।

अहो सलिलसंचयः स पुनरैन्द्रजालोदितो

जलौघ इव तत्क्षणात् प्रपदमेयतामाययौ ॥१॥

प्रसुप्तपशुपालिकां निभृतमारुदद्बालिका -

मपावृतकवाटिकां पशुवाटिकामाविशन् ।

भवन्तमयमर्पयन् प्रसवतल्पके तत्पदाद्

वहन् कपटकन्यकां स्वपुरमागतो वेगतः ॥२॥

ततस्त्वदनुजारवक्षपितनिद्रवेद्रव -

द्भटोत्कनिवेदितप्रसववार्तयैवार्तिमान् ।

विमुक्तचिकुरोत्करस्त्वरितमापतन् भोजरा -

डतुष्ट इव दृष्टवान् भगिनिकाकरे कन्यकाम् ॥३॥

ध्रुवं कपटशालिनो मधुहरस्य माया भवे -

दसाविति किशोरिकां भगिनिकाकरालिङ्गिताम् ।

द्विपो नलिनिकान्तरादिव मृणालिकामाक्षिप -

न्नयं त्वदनुपामजामुपलपट्टके पिष्टवान् ॥४॥

ततो भवदुपासको झटिति मृत्युपाशादिव

प्रमुच्य तरसैव सा समधिरूछरूपान्तरा ।

अधस्तलमजग्मुषी विकसदष्टबाहुस्फुर -

न्महायुधमहो गता किल विहायसा दिद्युते ॥५॥

नृशंसतर कंस ते किमु मया विनिष्पिष्टया

बभूव भवदन्तकः क्वचन चिन्त्यतां ते हितम् ।

इति त्वदनुजा विभो खलमुदीर्य तं जग्मुषी

मरुद्गणपणायिता भुवि च मन्दिराण्येयुषी ॥६॥

प्रगे पुनरगात्मजावचनकीरिता भूभुजा

प्रलम्बबकपूतनाप्रमुखदानवा मानिनः ।

भवन्निधनकाम्यया जगति बभ्रमुर्निर्भयाः

कुमारकविमारकाः किमिव दुष्करं निष्कृपैः ॥७॥

ततः पशुपमन्दिरे त्वयि मुकुन्द नन्दप्रिया -

प्रसूतिशयनेशये रुदति किञ्चिदञ्चत्पदे ।

विबुध्य वनिताजनैस्तनयसम्भवे घोषिते

मुदा किमु वदाम्यहो सकलमाकुलं गोकुलम् ॥८॥

अहो खलु यशोदया नवकलायचेतोहरं

भवन्तमलमन्तिके प्रथममापिबन्त्या दृशा ।

पुनः स्तनभरं निजं सपदि पाययन्त्या मुदा

मनोहरतनुस्पृशा जगति पुण्यवन्तो जिताः ॥९॥

भवत्कुशलकाम्यया स खलु नन्दगोपस्तदा

प्रमोदभरसंकुलो द्विजकुलाय किन्नाददात् ।

तथैव पशुपालकाः किमु न मङ्गलं तेनिरे

जगत्त्रितयमङ्गल त्वमिह पाहि माममयात् ॥१०॥

॥ इति योगमायानयनादिवर्णनम् एकोनचत्वारिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

यदुकुलतिलक वसुदेवजी आपको उठाये हुए आगे बढ़ रहे थे । मार्गमें उन्हें कलिन्दकन्या यमुनाका दर्शन हुआ , जो आकाशको चूमनेवाली लहरोंसे युक्त जलसे भरी थीं । परंतु आश्र्चर्य है , वह अगाध जल ऐन्द्रजालिकद्वारा प्रकट की गयी जलराशिकी तरह उसी क्षण प्रपद (पादाग्रभाग )- तक परिमाणवाला हो गया ॥१॥

तदनन्तर जिसमें गोपिकाएँ निद्रामग्न थीं , बालिका मन्द -मन्द रुदन कर रही थी और जिसके कपाट खुले हुए थे , नन्दगोपकी उस वाटिका (बाड़ी या घर )- में प्रवेश करके वसुदेवजी आपको यशोदाकी उस वाटिका शय्यापर रखकर और उस स्थानसे कपकन्या योगनिद्राको उठाकर वेगपूर्वक अपने नगरको लौट आये ॥२॥

तत्पश्र्चात् आपकी अनुजाके रुदन -शब्दसे जिनकी नींद भङ्ग हो गयी थी , उन दौड़ते हुए द्वारपालोंद्वारा निवेदित प्रसव -वार्तासे ही जो पीड़ीत हो उठा था और जिसके केशपाश अस्त -व्यस्त थे , वह भोजराज कंस तुरंत ही वहॉं आ पहुँचा ; परंतु अपनी बहनके हाथमें कन्या देखकर वह असंतुष्ट - सा हो गया ॥३॥

पुनः ‘यह निश्र्चय ही कपटशाली मधुसूदनकी माया हो सकती है ’—सों सोच -विचारकर कंसने देवकीकी गोदमें चिपटी हुई उस बालिकाको उसी प्रकार खींच लिया , जैसे हाथी पुष्करिणीके भीतरसे मृणालिकाको झटक लेता है । तत्पश्र्चात् उसने मायारूपिणी आपकी अनुजाको शिलापर पटक दिया ॥४॥

परंतु जैसे आपके उपासक तत्काल ही मृत्यु -पाशसे छूट जाते हैं , उसी प्रकार वह बालिका कंसके हाथसे छूट गयी और तुरंत ही उसने दूसरा रूप धारण कर लिया । वह नीचके लोकोंमें नहीं गयी , आकाशमार्गसे जाती हुई सुशोभित हुई । उस समय उसके आठ हाथोंमें चमकते हुए बड़े -बड़े आयुध शोभा पा रहे थे ॥५॥

( उस समय योगमायाने कंससे कहा ——) ‘ रे क्रूरकर्मा कंस ! मुझे पटकनेसे तुझे क्या लाभ मिला ? मूर्ख ! तेरा वध करनेवाला कहीं उत्पन्न हो चुका । अब तू अपने हितकी चिन्ता कर । ’ विभो ! आपकी अनुजा उस दुष्ट कंससे यों कहकर मरुद्गणोंद्वारा स्तुत होती हुई अभीष्ट स्थानको चली गयी और भूतलपर भी यत्र - तत्र मन्दिरोंमें स्थित हुई ॥६॥

दुसरे दिन प्रातःकाल भूपाल कंसने प्रलम्ब , बक , पुतना आदि मानी दानवोंको बुलाकर उसने योगमायाद्वारा कहा हुआ वचन कह सुनाया ।तब वे निर्भर होकर शिशुओंका प्राण हरण करते हुए आपके वधकी इच्छासे संसारमें घूमने लगे । भला , क्रूर -कर्मियोंके लिये कौन -सा कुकर्म दुष्कर है ? ॥७॥

मुकुन्द ! इधर नन्दगोपके गृहमें नन्दप्रिया यशोदाकी प्रसूति -शय्यापर सोये हुए आप जब अपने मृदुल चरणोंको थोड़ा उछालकर रोने लगे , तब वहॉं सोयी हुई गोपिकाएँ जाग उठीं और उन्होंने पुत्रोत्पत्तिका समाचार घोषित किया । अहो ! उस समयकी दशा क्या कहें , सारा गोकुल आनन्दविह्वल हो उठा ॥८॥

अहो ! यशोदाने संसारमें सभी पुण्यवानोंको मात कर दिया ; क्योंकि पहले तो उसने नूतन शरीर धारण करनेके कारण अत्यन्त मनोहर आपको अपने निकट पाकर नेत्रोंद्वारा आपके रूपामृतका पान किया , पुनः तुरंत ही हर्षविभोर होकर आपको अपने स्तनोंका दूध पिलाया और आपके मनोहर शरीरका स्पर्श -लाभ किया ॥९॥

उस समय नन्दगोपने हर्षोल्लसित होकर आपकी मङ्गल -कामनासे ब्राह्मणोंको क्या नहीं दे डाला अर्थात् सब कुछ दान किया । उसी प्रकार गोपोंने भी कौन -सा मङ्गल नहीं किया अर्थात् सभी प्रकारके माङ्गलिक कार्य सम्पन्न किये । त्रिलोकीके मङ्गलस्वरूप भगवन् ! आप यहॉं रोगोंसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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