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चतुष्पञ्चशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - चतुष्पञ्चशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


त्वत्सेवोत्कः सौभरिर्नाम पूर्वं

कालिन्द्यन्तर्द्वादशाब्दं तपस्यन् ।

मीनव्राते स्नेहवान् भोगलोले

तार्क्ष्यं साक्षादैक्षताग्रे कदाचित् ॥१॥

त्वद्वाहं तं सक्षुधं तृक्षसूनुं

मीनं कञ्चिज्जक्षतं लक्षयन् सः ।

तप्तश्र्चित्ते शप्तवानत्र चेत्त्वं

जन्तून् भोक्ता जीवितञ्चापि मोक्ता ॥२॥

तस्मिन् काले कालियः क्ष्वेलदर्पात्

सर्पारातेः कल्पितं भागमश्नन् ।

क्रोधात्त्वत्पदाम्भोजभाजा

पक्षक्षिप्तस्तद्दुरापं पयोऽगात् ॥३॥

घोरे तस्मिन् सूरजानीरवासे

तीरे वृक्षा विक्षताः क्ष्वेलवेगात् ।

पक्षिव्राताः पेतुरभ्रे पतन्तः

कारुण्यार्द्रं त्वन्मनस्तेन जातम् ॥४॥

काले तस्मिन्नेकदा सीरपाणिं

मुक्त्वां याते यामुनं काननान्तम् ।

त्वय्युद्दामग्रीष्मभीष्मोष्मतप्ता

गोगोपाला व्यापिबन् क्ष्वेलतोयम् ॥५॥

नशयज्जीवान् विच्युतान् क्ष्मातले तान्

विश्र्वान् पश्यन्नच्युत त्वं दयार्द्रः ।

प्राप्योपान्तं जीवयामासिथ द्राक्

पीयूषाम्भोवर्षिभिः श्रीकटाक्षैः ॥६॥

किं कि जातो हर्षवर्षातिरेकः

सर्वाङ्गेष्वित्युत्थिता गोपसङ्घाः ।

दृष्ट्वाग्रे त्वां त्वत्कृतं तद्विदन्त -

स्त्वामालिङ्गन् दृष्टनानाप्रभावाः ॥७॥

गावश्र्चैव लब्धजीवाः क्षणेन

स्फीतानन्दास्त्वां च दृष्ट्वा पुरस्तात्

द्रागावव्रुः सर्वतो हर्षबाष्पं

व्यामुञ्चन्त्यो मन्दमुद्यन्निनादाः ॥८॥

रोमाञ्चौऽयं सर्वतो नः शरीरे

भूयस्यन्तः काचिदान्दमूर्च्छा ।

आश्र्चर्योऽयं क्ष्वेलवेगो मुकुन्दे -

त्युक्तो गोपैर्नन्दितो वन्दितोऽभूः ॥९॥

एवं भक्तान् मुक्तजीवानपि त्वं

मुग्धापाङ्गैरस्तरोगांस्तनोषि ।

तादृग्भूतस्फीतकारुण्यभूमा

रोगात्पाया वायुगेहाधिनाथ ॥१०॥

॥ इति कालियोपाख्याने गोगोपानामुज्जीवनवर्णनं चतुष्पञ्चशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

पूर्वकालमें सौभरि नामक एक ऋृषि थे , जो आपकी उपासनाके लिये समुत्सुक होकर बारह वर्षतक यमुनाके जलमें तपस्या करते रहे । वहॉं भोग -सुखमें संलग्न चञ्चल मत्स्य -समुदायमें उनकी स्नेहासक्ति हो गयी । किसी समय उन्होंने साक्षात् गरुड़को अपने सामने उपस्थित देखा ॥१॥

आपके वाहनभूत गरुड़ भूखसे व्याकुल थे , अतः वे किसी मछलीको पकड़कर खाने लगे । उन्हें ऐसा करते देख मुनिका चित्त संतप्त हो उठा , वे गरुड़को शाप देते हुए बोले ——‘आजसे यदि तुम यहॉं मछलियोंका भक्षण करोगे तो तुम्हारी भी जीवन -लीला समाप्त हो जायगी ’ ॥२॥

उन्हीं दिनोंकी बात है , कालियनाग विषमदसे उन्मत्त होकर गरुड़के लिये कल्पित किये गये मासिक बलिको खा गया । इस कारण आपके चरणकमलके सेवी गरुड़ने क्रोधपूर्वक उसपर पंखोसे प्रहार किया , जिससे विवश होकर वह नाग गरुड़के लिये अगम्य उस यमुनाह्रदमें जा बसा ॥३॥

उस क्रूरकर्मा कालियाके यमुना -ह्रदमें निवास करते ही तटके सारे वृक्ष विषाग्निके वेगसे नष्ट -भ्रष्ट हो गये और आकाशमें उड़नेवाले पक्षिसमूह मरकर गिरने लगे । यह देखकर आपका मन करुणासे द्रवित हो उठा ॥४॥

उस समय एक बार आप हलधरको बिना साथ लिये ही यमुनातटवर्ती काननमें चले गये । वहॉं प्रचण्ड ग्रीष्मकालकी भीषण गर्मीसे संतप्त होकर गौओं तथा ग्वालबालोंने उस विषदूषित जलको भरपेट पी लिया ॥५॥

अच्युत ! तब उन सभी जीवोंको मरकर भूतलपर गिरते हुए देखकर आप दयार्द्र हो उठे और शीघ्र ही निकट जाकर अपनी अमृतवर्षिणी दृष्टिसे देखकर उन्हें जीवित कर दिया ॥६॥

‘ अहो ! हमारे सर्वाङ्गोंमें यह आनन्दवर्षाकी अभिवृद्धि कैसे हो रही है ?’ यों कहते हुए गोपगण जीवित हो उठे और सामने आपको देखकर उन्होंने समझ लिया कि यह आपकी ही करतूत है ; क्योंकि पहले भी वे आपके ऐसे अनेकों प्रभाव देख चुके थे , अतः वे आपका आलिङ्गन करने लगे ॥७॥

उसी क्षण जीवित होकर उठी हुई गायें आपको आगे देखकर आनन्दमग्न हो गयीं और तुरंत ही चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं । उस समय उनके नेत्रोंसे हर्षके आँसू झर रहे थे और वे मन्द -मन्द हुङ्कार कर रही थीं ॥८॥

‘ मुकुन्द ! विषका यह वेग आश्र्चर्यजनक है , इससे हमारे सर्वाङ्गमें रोमाञ्च हो रहा है और हृदयमें आनन्दकी कोई अतिशय मूर्च्छा व्याप्त हो रही है । ’ यों कहकर गोपोंने आपका अभिनन्दन तथा वन्दन किया ॥९॥

इस प्रकार आप अपने भक्तोंको मृत्युग्रस्त होनेपर भी अपने मनोहर कटाक्षसे जीवित और रोग -शोकरहित कर देते हैं । वायुगेहाधिवास ! आप इस प्रकारकी समृद्ध करुणासे सम्पन्न हैं , अतः मेरी रोगसे रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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