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सप्तचत्वारिंशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - सप्तचत्वारिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


एकदा दधिविमाथकारिणीं मातरं समुपसेदिवान् भवान् ।

स्तन्यलोलुपतया निवारयन्नङ्कमेत्य पपिवान् पयोधरौ ॥१॥

अर्धपीतकुचकुड्मले त्वयि स्निग्धहासमधुराननाम्बुजे ।

दुग्धमीश दहने परिस्रुतं धर्तुमाशु जननी जगाम ते ॥२॥

समिपीतरसभङ्गतक्रोधभारपरिभूतचेतसा ।

मन्थदण्डमुपगृह्य पाटितं हन्त देव दधिभाजनं त्वया ॥३॥

उच्चलध्वनितमुच्चकैस्तदा संनिशम्य जननी समाद्रुता ।

त्वद्यशोविसरवद् ददर्श सा सद्य एव दधि विस्तृतं क्षितौ ॥४॥

वेदमार्गपरिमार्गितं रुषा त्वामवीक्ष्य परिमार्गयन्त्यसौ ।

संददर्श सुकृतिन्युलूखले दीयमाननवनीतमोतवे ॥५॥

त्वां प्रगृह्य बत भीतिभावनाभासुराननसरोजमाशु सा ।

रोषरूषितमुखी सखीपुरो बन्धनाय रशनामुपाददे ॥६॥

बन्धुमिच्छति यमेव सज्जनस्तं भवन्तमयि बन्धुमिच्छती ।

सा नियुज्य रशनागुणान् बहून् द्य्वङ्गुलोनमखिलं किलैक्षत ॥७॥

विस्मितोत्सिमतसखीजनेक्षितां स्विन्नसन्नवपुषं निरीक्ष्य ताम् ।

नित्यमुक्तवपुरप्यहो हरे बन्धमेव कृपयान्वमन्यथाः ॥८॥

स्थीयतां चिरमुलूखले खलेत्यागता भवनमेव सा यदा ।

प्रागुलूखलविलान्तरे तदा सर्पिरर्पितमदन्नवास्थिथाः ॥९॥

यद्यपाशसुगमो विभो भवान् संयतः किमु सपाशयानया ।

एवमादि दिविजैभिष्टुतो वातनाथ परिपाहि मां गदात् ॥१०॥

॥ इति उलूखलबन्धनवर्णनं सप्तचत्वारिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

एक समयकी बात है , माता यशोदा दही मथ रही थीं , उसी समय आप उनके निकट जा पहुँचे । तब दूध पीनेकी लालसासे दहीका मथना रोककर उनकी गोदमें चढ़ गये स्तनोंको पकड़कर दूध पीने लगे ॥१॥

उस समय आप बीच -बीचमें मन्द -मन्द मुसकुरा देते थे , जिससे आपका मुखकमल बड़ा मनोहर लग रहा था । अभी आप आधा ही दूध पी पाये थे अर्थात् तृप्त नहीं हुए थे तबतक आगपर चढ़ाये हुए दूधमें उफान आया । आपकी माता उसे रखनेके लिये तुरंत ही (आपको गोदसे उतारकर ) चील गयीं ॥२॥

देव ! तब अर्धपीत दुग्ध -रसके पानमें विघ्न पड़ जानेके कारण उत्पन्न हुए क्रोधसे भारसे आपका चित्त परिभूत हो गया । फिर तो आपने मन्थन -काष्ठ -मथानीको उठाकर उस दहीको फोड़ दिया (और आप वहॉंसे चलते बने । ॥३॥

तब बड़े वेगसे मटकसे बाहर निकलते हुए दहीके शब्दको सुनकर माता यशोदा बड़ी उतावलीमें दौड़कर वहॉं आयीं तो देखा कि आपके यशोविस्तारकी भॉंति सारा दही तुरंत ही धरतीपर बिखर गया है ॥४॥

तदनन्तर मुनिगण वेदमार्गका अनुसरण करके जिनका परिमार्गण करते रहते हैं , (परंतु आप दुष्टिगोचर नहीं होते ) उन्हीं आपको वहॉं न देखकर यशोदा क्रुद्ध होकर आपका अन्वेषण करने लगीं । तब उस पुण्यशालिनीने देखा कि आप ओखलीपर चढ़कर छीकेपर रखा हुआ माखन बिलावोंको लुटा रहे हैं ॥५॥

तब क्रोधके कारण रूखे मुखवाली यशोदाने भयकी भावनासे जिसके मुखकमलकी विलक्षण झॉंकी हो रही थी , ऐसे आपको शीध्र ही पकड़कर सखियोंके सामने ही बॉंधनेके लिये रस्सी हाथमें ली ॥६॥

अयि भगवन् ! सज्जन ——मोक्षार्थी जिन्हें (शरणागतिद्वारा ) बॉंधनेकी इच्छा करता है , उन्हीं आपको यशोदा रस्सीद्वारा बॉंधना चाहती हैं । उन्होंने आपके शरीरपर बहुत -सी रस्सियोंको लगाया , परंतु अन्तमें वे देखती क्या हैं कि सभी रस्सियॉं दो अंगुल छोटी पड़ जाती हैं ॥७॥

अहो हरे ! यक देखकर सखियॉं आश्र्चर्यचकित होकर मन्द -मन्द हँसती हुई जिनकी ओर निहार रही थीं तथा जिनका शरीर पसीनेसे लथपथ एवं श्रान्त हो रहा था , उन यशोदाकी ओर देखकर नित्यमुक्त शरीरवाले होकर भी आपने कृपापरवश हो बन्धन ही स्वीकार कर लिया ॥८॥

आपको बॉंधकर ‘अरे नटखट ! अब देरतक इस ओखलीमें बँधा पड़ा रह । ’ यों कहकर जब यशोदा घरके भीतर चली गयीं , तब माखन लुटाते समय ओखलीके खोखलेमें रखे हुए माखनको खाते हुए आप वहॉं बैठ गये ॥९॥

तब देवगण ‘विभो !’ यदि आप अपाश ——विषय -वासनारहित लोगोंके लिये सुगम हैं तो सपाश —— पाशवाली यशोदाके द्वारा कैसे बँध गेय ?’ इस प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा आपका स्तवन करने लगे । हे वातनाथ ! रोगसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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