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त्रयश्र्चत्वारिंशत्तमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - त्रयश्र्चत्वारिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


त्वामेकदा गुरुमरुत्पुरनाथ वोढुं

गाढाधिरूछगरिमाणमपारयन्ती ।

माता निधाय शयने किमिदं बतेति

ध्यायन्त्यचेष्टत गृहेषु निविष्टशङ्का ॥१॥

तावद्विदूरमुपकर्णितघोरघोष -

व्याजुम्भिपांसुपटलीपरिपूरिताशः ।

वात्यावपुः स किल दैत्यवरस्तृणाव -

र्ताख्यो जहार जनमानसहारिणं त्वाम् ॥२॥

उद्दामपांसुतिमिराहतदृष्टिपाते

द्रष्टुं किमप्यकुशले पशुपाललोके ।

हा बालकस्य किमिति त्वदुपान्तमाप्ता

माता भवन्तमविलोक्य भृशं रुरोद ॥३॥

तावत्स दानववरोऽपि च दीनमूर्त्ति -

र्भावत्कभारपरिधारणलूनवेगः ।

सङ्कोचमान तदनु क्षतपांसुघोषे

घोषे व्यातायत भवज्जननीनिनादः ॥४॥

रोदोपकर्णनवशादुपगम्य गेहं

क्रन्दत्सु नन्दमुखगोपकुलेषु दीनः ।

त्वां दानवस्त्वखिलमुक्तिकरं मुमुक्षु -

स्त्वय्यप्रमुञ्चति पपात वियत्प्रदेशात् ॥५॥

रोदाकुलास्तदनु गोपगणा बहिष्ठ -

पाषाणपृष्ठभुवि देहमतिस्थविष्ठम् ।

प्रेक्षन्त हन्त निपतन्तममुष्य वक्ष -

स्यक्षीणमेव च भवन्तमलं हसन्तम् ॥६॥

ग्रावप्रपातपरिपिष्टगरिष्ठदेह -

भ्रष्टासुदुष्टदनुजोपरि धृष्टाहसम् ।

आघ्नानमम्बुजकरेण भवन्तमेत्य

गोपा दधुर्गिरिवरादिव नीलरत्नम् ॥७॥

एकैकमाशु परिगृह्य निकामनन्दं

नन्दादिगोपपरिरब्धविचुम्बिताङ्गम् ।

आदातुकामपरिशङ्कितगोपनारी -

हस्ताम्बुजप्रपतितं प्रणुमो भवन्तम् ॥८॥

भूयोऽपि किं नु कृणुमः प्रणतार्तिहारी

गोविन्द एव परिपालयतात् सुतं नः ।

इत्यादि मातरपितृप्रमुखैस्तदानीं

सम्प्रार्थितस्त्वदवनाय विभो त्वमेव ॥९॥

वातात्मकं दनुजमेवमयि प्रधुन्वन्

वातोद्भवान् मम गदान् किमु नो धुनोषि ।

किं वा करोमि पुनरप्यनिलालयेश

निश्शेषरोगशमनं मुहुरर्थये त्वाम् ॥१०॥

॥ इति तृणावर्तवधवर्णनं त्रयश्र्चत्वारिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

गुरुमरुत्पुरनाथ ! एक बार आपने अपने शरीरकी गरिमाको इतना अधिक बढ़ा लिया कि माता गोदमें धारण करनेमें समर्थ न हो सकीं , तब उन्होंने आपको पालनेमें लिटा दिया और शङ्कालु होकर ‘यह कैसे आश्र्चर्यकी बात है !’—— यों सोचती हुई वे गृह -कार्यमें लग गयी ॥१॥

तबतक दूरसे ही सुनायी पड़नेवाले भयंकर शब्द तथा अधिक मात्रामें बढ़ी धुलि -वर्षासे जिसने दसों दिशाओंको परिपूर्ण कर दिया था , वह महादैत्य तृणावर्त बवंडरके रूपमें आकर भक्तजनोंके मनका अपहरण करनेवाले आपको चुरा ले चला ॥२॥

उस समय उत्कट धूलि -वर्षा तथा अन्धकारके कारण जिसकी दृष्टिशक्ति नष्ट हो गयी थी , वह गोपसमुदाय कुछ भी देखनेमें समर्थ न हो सका । तबतक ‘मेरे लल्लाका क्या हाल है ?’—— यों सोचकर माता यशोदा दौड़कर आपके पास जा पहुँची ; परंतु वहॉं आपको न देखकर फूट -फूटकर रोने लगीं ॥३॥

तबतक आपके भारी भारको धारण करनेसे जिसकी गमन -शक्ति नष्ट हो गयी थी और जिसका शरीर क्षीण हो गया था , वह महादानव तृणावर्त भी निश्र्चेष्ट हो गया । तत्पश्र्चात् धूलि -वर्षा और झंझारवके शानत होनेपर व्रजमें आपकी माताका रुदन शब्द व्याप्त हो गया ॥४॥

यशोदाके रोदनको सुननेके कारण नन्दादि सारा गोपसमुदाय उनके गृहमें जाकर क्रन्दन करने लगा । इधर दानव तृणावर्त समस्त प्राणियोंके मुक्तिदाता आपको छोड़ देनेकी चेष्टा करने लगा ; परंतु जब आपने उसके गलेको नहीं छोड़ा , तब वह दीन होकर आकाशप्रदेशसे भूतलपर गिर पड़ा ॥५॥

तत्पश्र्चात् रोनेसे विह्वल हुए गोपोंने गोष्ठके बाहर स्थित शिलाकी पृष्ठभूमिपर गिरते हुए एक अत्यन्त स्थूल शरीरको देखा तथा उसके वक्षःस्थलपर किलकारी मारकर हँसते हुए एवं अक्षत शरीरवाले आपको भी देखा ॥६॥

तब शिलापृष्ठपर गिरनेसे चूर्ण हुए उस भारी -भरकम शरीरसे जिसके प्राण निकल गये थे , उस दृष्ट दानवके वक्षःस्थलपर अपने कमल -सदृश हाथोंसे पीटते और उन्मुक्त हास करते हुए आपके निकट जाकर गोपोंने आपको उसी प्रकार उठाया मानो किसी गिरिवरसे नीलरत्न उठा लिया गया हो ॥७॥

तदनन्तर शीघ्र ही परमानन्दमय आपके एक -एक अङ्गको पकड़कर नन्दादि गोपोंद्वारा एक ही साथ जिनके समस्त अङ्गोकां परिचुम्बन हो रहा था तथा जो ‘यह मुझे गोदमें लेनेके लिये उत्सुक है ’—— ऐसी आशङ्कासे गोपिकाओंके कर -कमलोंपर स्वयं टूट पड़ते थे , उन आपका हमलोग स्तवन करते हैं ॥८॥

विभो ! उस समय फिर भी ‘भला , हमलोग क्या कर सकते हैं , ऐसे संकटके अवसरपर प्रणतजनोंके दुःखनाशक गोविन्द ही मेरे पुत्रकी रक्षा करें। ’—— इत्यादि रूपसे आपके ही माता -पिता , ताऊ आदि गोप आपकी सुरक्षाके लिये आपसे ही प्रार्थना करने लगे ॥९॥

अयि अनिलालयेश ! इस प्रकार वायु -रूपधारी दानव तृणावर्तका तो आपने संहार कर डाला ; परंतु वायुसे उत्पन्न हुए मेरे रोगोंको क्यों नहीं नष्ट कर देते ? मैं अपने सम्पूर्ण रोगोंकी शान्तिके लिये आपसे बार -बार प्रार्थना करता हूँ । मैं इसके अतिरिक्त और कर ही क्या सकता हूँ ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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