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पुरुष सूक्तम्

पूजा विधे - पुरुष सूक्तम्

जो मनुष्य प्राणी श्रद्धा भक्तिसे जीवनके अंतपर्यंत प्रतिदिन स्नान , पूजा , संध्या , देवपूजन आदि नित्यकर्म करता है वह निःसंदेह स्वर्गलोक प्राप्त करता है ।


पुरुष - सूक्तम्

ऋषि - नारायण , देवता - पुरुष छन्द - १ - १५ अनुष्टुप् १६ त्रिष्टुप् सहस्त्रशीर्षा पुरुष : सहस्त्राक्ष : सहस्त्रपात्
स भूमि सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१॥

परमपुरुष परमात्मा के हजारों सिर , हजारों आँखें , हजारों पैर आदि हैं । वह पृथ्वी को सभी ओर से व्याप्त करके और दस अंगुल अधिक होकर भी स्थित है ।

पुरुषऽ एवेद् सर्व्वंयद्‌भूतं यच्च भाव्यम् ।

उतामृतत्त्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥

जो कुछ भी हो चुका है , अभी है और होने वाला है वह सब कुछ पुरुष ही है जो अमरत्व का अधीश्वर है और अन्न से बढता है ।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुष : ।

पादोस्य व्विश्वाभूतानि त्र्त्रिपादस्यामृतन्दिवि ॥३॥

इतना तो इसका ऐश्वर्य है और पुरुष इससे भी बढकर है । विश्व के समस्त प्राणी इसके चतुर्थांश में स्थित हैं जबकि अमृतमय इसके अंशत्रय द्युलोक में सुरक्षित हैं ।

त्र्त्रिपादूर्ध्व ऽउदैत्पुरुष : पोदोस्येहाभवत्त्पुन : ।

ततो व्विश्वङ व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि ॥४॥

अपने तीन अंशों से यह पुरुष ऊपर उठ गया और इसका एकांश यहीं रह गया । उसी से इसने विश्व के खाने वाले और न खाने वाले समस्त भूतवर्ग को सब ओर से व्याप्त कर लिया ।

ततो व्विराडजायत व्विराजोऽअधिपूरुष : ।

स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर : ॥५॥

उसी से विराट् उत्पन्न हुआ और विराट् का अधिष्ठाता भी वही बन गया । पुन : वह पीछे से और आगे से पृथ्वी का अतिक्रमण कर गया ।

तस्माद्यज्ञात्त्सर्वहुत : सम्भृतम्पृषदाज्ज्यम् ।

पशूँस्ताँश्चके व्यायव्यानारण्याग्राम्याश्च ये ॥६॥

जिसमें सब कुछ हवन किया गया है उस यज्ञ पुरुष से उसी ने दही घी आदि उत्पन्न किये और वायु में , वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये ।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऽऋच : सामानि जज्ञिरे ।

छन्दा सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥७॥

उसी सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद के एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए । उसी से यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और सभी छन्द भी उत्पन्न हुए ।

तस्मादश्वाऽअजायन्त ये के चोभयादत : ।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताऽअजावय : ॥८॥

उसी से घोडे उत्पन्न हुए उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेंडें , बकरियाँ उत्पन्न हुईं । दोनों ओर दाँतों वाले और पशु भी उत्पन्न हुए ।

तं य्यज्ञम्बर्हिषि प्प्रौक्षन्पुरुषञ्जातमग्रत : ।

तेन देवाऽअयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥९॥

देवताओं साध्यों और ऋषियों ने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञ पुरुष को कुशा पर अभिसिक्त किया और उसी से उसका यजन किया ।

यत्त्पुरुषं ब्यदधु : कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुखङ्किमस्यासीत्त्किम्बाहू किमूरू पादाऽ उच्च्येते ॥१०॥

पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएं की गईं ? उसका मुख क्या था ? उसके बाहु क्या थे । उसके जंघे क्या थे ? और पैर क्या कहे जाते हैं ?

ब्ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य : कृत : ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्य : पद्‌भ्या शूद्रोऽअजायत ॥११॥

उसका मुख ब्राह्मण था । उसकी भुजाएं क्षत्रिय बनाई गईं । जो वैश्य हैं वह उसके जङ्घे थे । पैरों से शूद्र पैदा हुआ ।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो : सूर्य्योऽअजायत ।

श्रोत्र्त्राद्वायुश्च प्प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥१२॥

मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ । चक्षु से सूर्य उत्पन्न हुआ । श्रोत से वायु और प्राण तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुआ ।

नाब्भ्याऽ आसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौ : समवर्त्तत ।

पद्‌भ्याम्भूमिर्दिश : श्रोत्रात्तथा लोकाँ २ऽऽ अकल्पयन् ॥१३॥

नाभि से अन्तरिक्ष हुआ । सिर से द्युलोक हुआ । पैरों से भूमि और कान से दिशाएं हुईं । उन्होंने इस प्रकार लोकों की रचना की ।

यत्त्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्न्वत ।

व्वसन्तोस्यासीदाज्यङ ग्रीष्मऽ इध्म : शरद्धवि : ॥१४॥

जिस पुरुष रूप हविष्य से देवों ने यज्ञ का विस्तार किया , वसन्त उसका घी था , ग्रीष्म काठ एवं शरद् हवि थी ।

सप्तास्यासन्परिधयस्त्रि : सप्तसमिध : कृता : ।

देवा यद्यज्ञन्तन्वानाऽअबध्नन्पुरुषम्पशुम् ॥१५॥

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार करते हुए पुरुष रूप पशु को बाँधा उसकी सात परिधियाँ थीं एवं इक्कीस समिधाएं की गई थीं ।

यज्ञेन यज्ञमयजन्न्त देवास्तानि धर्म्माणि प्प्रथमान्न्यासन् ।

ते ह नाकम्महिमान : सचन्त यत्र पूर्वे साध्या : सन्ति देवा : ॥१६॥

देवों ने यज्ञ द्वारा यज्ञ का पूजन किया । वही सर्वोपरि धर्म हुए । वे देव महिमान्वित होकर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं जहाँ पूर्व के साध्यों एवं देवों का निवास है ।

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Last Updated : May 24, 2018

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