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श्रीसूक्तम्

पूजा विधी - श्रीसूक्तम्

जो मनुष्य प्राणी श्रद्धा भक्तिसे जीवनके अंतपर्यंत प्रतिदिन स्नान , पूजा , संध्या , देवपूजन आदि नित्यकर्म करता है वह निःसंदेह स्वर्गलोक प्राप्त करता है ।


श्रीसूक्तम्

आनन्दकर्दम चिक्लीत जातवेद - ऋषि श्री देवता , १ - ३ अनुष्टुप् ४ प्रस्तारपंक्ति ५ - ६ त्रिष्टुप् और १५ प्रस्तारपंक्ति छन्द

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम् ।

चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥

हे अग्निदेव । सुवर्ण के समान वर्णवाली , हरिणी के से रूपवाली , सोने - चाँदी की मालाओं वाली , चन्द्रमा के से प्रकाशवाली , स्वर्णमयी लक्ष्मीजी का आप मेरे कल्याणार्थ आह्वान करें ।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।

यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥

हे शास्त्रयोने । आप कभी अलग न होने वाली उन लक्ष्मी जी का मेरे हितार्थ आह्वान करें जिनके आने पर मै स्वर्ण , गौ , घोडे एवं बान्धव प्राप्त करूँ ।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।

श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥

आगे घोडों , वाली , मध्य में रथवाली और हाथियों के चिग्घाढ से सबको प्रबुद्ध करने वाली क्रीडा करती हुई लक्ष्मी जी का मैं आह्वान करता हूँ । वे लक्ष्मी देवी मुझे अपनाएं ।

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।

पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥

चिन्मयी , मन्दहास वाली , सुवर्ण जैसे आवरणवाली , दयामयी , ज्योति रूपा , स्वयं तृप्त एवं जनों को तृप्त करती हुई , कमल पर बैठी कमल के वर्णवाली उन लक्ष्मी जी का मैं यहाँ आह्वान करता हूँ ।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदारम् ।

तां पद्मनेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ॥५॥

मैं चन्द्रमा से आह्लादवाली , अत्यधिक कान्ति वाली , लोक में यश के प्रतापवाली , देवताओं से सेविता उन उदार हृदया लक्ष्मी जी की शरण प्राप्त करता हूँ । हे देवि । मैं तुम्हारी शरण ग्रहण करता हूँ ताकि मेरी दरिद्रता का नाश हो ।

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्व : ।

तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मी : ॥६॥

सूर्य से तेजवाली देवि । मंगलकारी बिल्व वृक्ष तुम्हारे तप से उत्पन्न हुआ है उसके फल अपने प्रभाव से मेरे अज्ञान का , विघ्नों का और दैत्य का नाश करें ।

उपैतु मां देवसख : कीर्तिश्च मणिना सहा ।

प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु में ॥७॥

हे महादेव सखा कुबेर ! मुझे मणि के साथ कीर्ति भी प्राप्त हो । मैं इस राष्ट्र में पैदा हुआ हूँ । इसलिए यह मुझे कीर्ति और धन दें ।

क्षुप्तिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।

अभूतिमसमृद्धिञ्च सर्वान्निर्णुद में गृहात् ॥८॥

भूख - प्यास से मलीन हुई , और लक्ष्मी जी की अग्रजा अलक्ष्मी का मैं नाश करता हूँ । अनैश्वर्य और अभाव इन सबको मेरे घर से दूर करो ।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।

ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥

मैं सम्पूर्ण प्राणियों की अधीश्वरी उन लक्ष्मी जी का यहाँ आह्वान करता हूँ जो गन्धमयी टुर्निवारा , नित्य सम्पन्न एवं उपले आदि से भरी - पुरी हैं ।

मनस : काममाकूतिं वाच : सत्यमशीमहि ।

पशूना रूपमन्नस्य मयि श्री : श्रयतां यश : ॥१०॥

हमें मन की कामनाओं का संकल्प , वाणी का सत्य तथा अन्न और पशुओं का स्वत्व प्राप्त हो । यश और श्री मुझ में निवास करें ।

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम ।

श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥

श्री जी कर्दम को पाकर पुत्रवती हैं । हे कर्दम । आप मेरे यहाँ उत्पन्न हों और कमलों की मालावाली माँ श्री जी को मेरे कुल में निवास कराएं ।

आप : सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस में गृहे ।

नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥

हे चिक्लीत । आप मेरे घर में निवास करें । मेरे यहाँ जल से स्नेह युक्त पदार्थों का सृजन हो । और आप अपनी माता श्री जी को मेरे कुल में निवास कराएं ।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम् ।

चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१३॥

हे जातवेद । आप स्नेहमयी , पुष्टिकारिणी , पुष्टिरूपा , पीतवर्णा , कमल मालिनी , आह्लादिनी , सुवर्णमयी लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें ।

आर्द्रां यष्करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।

सूर्यां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१४॥

हे जातवेद । आप स्नेहमयी , यश बढाने वाली , पूजनीया , सुन्दर वर्णवाली , स्वर्ण मालिनी , तेजोमयी और स्वर्णमयी लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें ।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।

यस्यां हिरण्यं प्रभूतिं गावो दास्योऽश्वान्विन्देयं पुरुषानहम् ॥१५॥

हे जातवेद । स्थिर रहने वाली उन लक्ष्मी जी का मेरे लिए आह्वान करें जिनके आने पर मैं सुवर्ण , समृद्धि , गाएं , दासियाँ , घोडे और जन प्राप्त करूँ ।

य : शुचि : प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।

सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम : सततं जपेत् ॥१६॥

जिसे श्री जी की इच्छा हो वह पवित्र और संयत होकर प्रतिदिन घीं से हवन करें और श्रीसुक्त की पन्द्रह ऋचाओं का निरन्तर जप करें ।

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Last Updated : May 24, 2018

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