नवविधाभक्तिनाम - ॥ समास दसवां - मुक्तिचतुष्टये नाम ॥

‘हरिकथा’ ब्रह्मांड को भेदकर पार ले जाने की क्षमता इसमें है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
मूलतः ब्रह्म निराकार। वहां स्फूर्तिरूप अहंकार । उन पंचभूतों का विचार । ज्ञानदशक में है कहा ॥१॥
वह अहंकार वायुस्वरूप । उस पर तेज का स्वरूप । उस तेज के आधार से आप । आवरणोदक भर गया ॥२॥
उस आवरणोदक के आधार पर । धरा धरे फणिवर । ऊपर छप्पन कोटि विस्तार । वसुंधरा का ॥३॥
इसे घेरे हैं सप्त सागर । मध्य में मेरु अति श्रेष्ठतर । अष्ट दिग्पाल का परिवार । अंतर पर है वेष्टित किये ॥४॥
वह सुवर्ण का महा मेरु । पृथ्वी को आधार उसका । चौरासी सहस्र विस्तार । चौड़ाई उसकी ॥५॥
ऊंचाई देखें तो असीमित । भूमि में सोलह सहस्र । उसके आसपास आधार घेरा । लोकालोक पर्वतों का ॥६॥ ‍
उसके इस पार हिमाचल । जहां गले पांडव सकल । धर्म और तमालनील । आगे गये ॥७॥
जहां जाने का मार्ग नहीं । रास्ते में पसरे महाअही । शीतल सुख से हुये सुखासीन वे भी । भासते पर्वतरूप ॥८॥
उसके इस पार अंत में जान । बद्रिकाश्रम बद्रिनारायण । जहां महातपस्वी निर्वाण । देह त्यागार्थ जाते ॥९॥
उसके इस पार बद्रिकेदार । छोटे बडे लौटते देखकर । ऐसा यह संपूर्ण विस्तार । मेरुपर्वत का ॥१०॥
उस मेरुपर्वत के पठार पर । तीन श्रृंग विषमहार । परिवार सहित रहते जिन पर । ब्रह्मा विष्णु महेश ॥११॥
ब्रह्मशृंग वह पर्वत का । विष्णुशृंग वह मरगज का । शिवशृंग वह स्फटिक का । जिसका नाम कैलाश ॥१२॥
वैकुंठ नाम विष्णुशृंग का । सत्यलोक नाम ब्रह्मशृंग का । अमरावती इंद्र का । स्थान निचला ॥१३॥
वहां गणगंधर्व लोकपाल । तैंतीस कोटि देव सकल । चौदह लोक सुवर्णाचल । अंतर पर है वेष्टित ॥१४॥
कामधेनुओं की झुंड वहां पर । कल्पतरु के बन अपार । अमृत के सरोवर । छलकतें जहां वहां ॥ १५॥
वहां असंख्य चिंतामणि । हीरे पारस की खाणी । वहां सुवर्णमयी धरणी । जगमगाती हुई ॥१६॥
फैलता परम रमणीय तेज सर्वत्र । नवरत्नों के पाषाण पत्थर । वहां हर्ष की बेला निरंतर । आनंदमय ॥ १७॥
वहां अमृत के भोजन । दिव्य गंध दिव्य सुमन । अष्टनायिका गंधर्व गायन । निरंतर ॥१८॥
वहां तारुण्य घटे ना । रोग व्याधि भी रहे ना । वृद्धाप्य और मृत्यु आये ना । कदापि ॥१९॥
वहां एक से एक सुंदर । वहां एक से एक चतुर । धीर उदार और शूर । मर्यादातीत ॥२०॥
वहां दिव्यदेह ज्योतिरूप । विद्युल्लता समान स्वरूप । वहां यश कीर्ति प्रताप । असीमित ॥२१॥
ऐसा यह स्वर्गभवन । सकल देवों का निवासस्थान । उस स्थल की महिमान । कहे उतनी थोडी ॥२२॥
यहां जिस देव का करें भजन । वहां उस देव लोक में मिले स्थान । सलोकता मुक्ति के लक्षण । जानो ऐसे ॥ २३॥
लोक में रहे वह सलोकता । समीप रहे वह समीपता । स्वरूप ही हो वह सरूपता । तीसरी मुक्ति ॥ २४॥
देवस्वरूप हुआ देह से । श्रीवत्स कौस्तुभ लक्ष्मी नहीं इससे । स्वरूपता के लक्षण ऐसे । होते हैं देखो ॥२५॥
सुकृत रहने तक भोगते । सुकृत खत्म होते ही ढकेल देते । स्वयं देव तो रहते । ज्यों के त्यों ॥२६॥
इसलिये तीनों मुक्ति नाशवंत । सायुज्यमुक्ति वह शाश्वत । वह भी करूं निरूपित सचेत । होकर सुनो अब ॥२७॥
कल्पांत में होगा ब्रह्मांड नष्ट । क्षिति जलेगी पर्वत सहित । तब नष्ट होंगे देव समस्त । मुक्ति कैसी वहां ॥ २८॥
तब निर्गुण परमात्मा निश्चल । निर्गुण भक्ति वह भी अचल । सायुज्यमुक्ति वह केवल । जानो ऐसी ॥२९॥
निर्गुण से अगर हो अनन्यता । उससे होती सायुज्यता । सायुज्यता याने स्वरूपता । निर्गुणभक्ति ॥३०॥
सगुण भक्ति वह चंचल । निर्गुण भक्ति वह निश्चल । ये सब समझे प्रांजल । सद्गुरु करने पर ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे मुक्तिचतुष्टये नाम समास दसवां ॥ १०॥

N/A

References : N/A
Last Updated : November 30, 2023

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP