ठाकुर प्रसाद - अष्टम स्कन्ध

ठाकुर प्रसाद म्हणजे समाजाला केलेला उपदेश.


हरि तुम हरो जन की भीर ।
द्रोपदी की लाज राखी तुम बढायो चीर ॥
भक्त कारन रूप नरहरि धर्यो अप शरीर ।
हिरनकश्यपमार लीन्हों धर्यो नाहिन धीर ॥
बूडते गजराज राख्यो किया बाहर नीर ।
दासि मीरा लाल गिरधर दु:ख जहाँ तहँ पार ॥

पुण्यस्य फलं इच्छन्ति, पुण्यं न कुर्वन्ति मानवा: ।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।

संसार ही सरोवर है ।
जीव ही गजेन्द्र है ।
काल मगर है ।

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता: ।

माद्दक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय ।

साधु पुरुष कैसे होते हैं, वह तुलसीदासजी से सुनिए :---
संत ह्रदय नवनीत समान । कहा कबिन्ह पर कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता । परदु:ख द्रवह संत सुपुनीता ॥
परहित सरिस धर्म नर्हि भाई ।
परपीडा सम नहिं अधमाई ॥

रसवर्ज रसोऽप्यस्य पर द्दष्टवा निवर्तते ।

गीता में कहा गया हैं :---
दैवी हयेषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यंते मायामेतां तरन्ति ते ॥

यत्र योगौहयोगिनाम् ।

जित देखौं तित श्याममयी है ।
श्याम कुंज वन जमुना श्यामा, श्यामा गगन घन घटा छई है ॥
सब रंगन में श्याम भरयो है, लोग कहत यह बात नई है ।
नीलकंठ को कंठ श्याम है, मनो श्यामता फैल गई है ॥

न स्पृशेत् दारवीमपि ।

नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुंडले ।
नूपुरेत्वऽभिजानामि नित्यं पादाभिवंदनात् ॥

बलवानिन्द्रियगामो विद्वासंमपि कर्षति ।

भर्तृहरि ने भी तो कहा है :---
विश्वामित्रोपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजललितं दृष्टैव मोहं गता: ।
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा: तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेत् विन्ध्यस्तरेत् सागरम् ।

श्रीकृष्ण को दुर्बलता पसंद नहीं है । नरसिंह मेहता ने कहा है :---
हरिनो मारग छे शुरानो, नहीं कायरनुं काम जाने ।
हरि का मार्ग शूरवीरों का है, कयरों का नहीं ।
श्रुति भी कहती हैं :---
नायमात्मा बलहीनेन लभ्य: ।

कौपीनवंत: खलु भाग्यवन्त: ।

सुर नर मुनि सस्बकी यह रीती ।
स्वारथ लागि करहि सब प्रीतो  ।

गोपियाँ भी तो कहती हैं :---
शिरसि धेहि न: श्रीकरग्रहम् ।

गोभि :---
इन्द्रियै: भक्तिरसं पिबति सा गोपी ।

त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये ।

मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ।

अत: भगवान कहते हैं :---
ब्रम्हान यमनुगृहणामि तद्विशो विद्यानाम्यहम् ।
यन्मद: पुरुष: स्तब्धो लोकं माम चावमन्यते ॥

ईश्वर: सर्वभूतानां ह्रददेशेऽर्जुन तिष्ठति ।

श्रीराम - स्तुति
श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन हरण भवभय दारुणं नवकंज - लोचन, कंज -मुख, कर कंज, पद कंजारुणं ।
कंदर्प प्रगणित अमित छवि, नवनील - नीरज सुंदर, पट पीत मानहुतडित रुचि शुचि, न्ॐइ जनक सुतावंरं ।
भज दीनबंधु, दिनेश, दानव दैत्य वंश निकंदनं, रघुनंद अनन्द कंद कोशलचंद्र दशरथ नन्दनं ।
शिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदार अंग विभूषणं, प्राजानुभुज शर - चापधर, संग्रामजित खरदूषणं ।
इति वदति तुलसीदास शंकर शेश मुनि मनरंजनं, मम ह्रदय कंज विनास कुरु, कामादि खल दल गंजनं ।

सियावर रामचंद्र की जय :----

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Last Updated : November 11, 2016

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