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यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग...

भजन - यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग...

तुलसीदास हिन्दीके महान कवी थे, जिन्होंने रामचरितमानस जैसी महान रचना की ।


यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो ।

ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो ॥१॥

ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके ।

त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निर्मल गुनगुन रघुबरके ॥२॥

ज्यों नासा सुगंध-रस-बस, रसना षटरसरति मानी ।

राम-प्रसाद-माल, जूठनि लगि, त्यों न ललकि ललचानी ॥३॥

चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो ।

त्यों रघुपति-पद-पदुम-परसको तनु पातकी न तरस्यो ॥४॥

ज्यों सब भाँति कुदेव कुठाकर सेये बपु बचन हिये हूँ ।

त्यों न राम, सकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥५॥

चंचल चरन लोभ लगि लोलु द्वार-द्वार जग बागे ।

राम-सीय-आश्रमनि चलत त्यों भये न स्त्रमित अभागे ॥६॥

सकल अंग पद बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है ।

है तुलसीहिं परतीति एक प्रभु मूरति कृपामई है ॥७॥

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Last Updated : December 15, 2007

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