श्रीदेव्युवाच
भगवन्देवदेवेश सर्वाऽऽम्नायप्रपूजितः ।
सर्वं मे कथितं देव कवचं न प्रकाशितम् ॥१॥
प्रासादाख्यस्य मन्त्रस्य कवचं मे प्रकाशय ।
सर्वरक्षाकरं देवं यदि स्नेहोऽस्ति सम्प्रति ॥२॥
श्री देवी जी ने कहा- हे भगवन्! हे देवदेवेश !
सर्वाम्नायप्रपूजित ! हे देव। आपने सब कुछ वर्णन किया ; किन्तु सभी की रक्षा करने वाले
कवच को नहीं प्रकाशित किया। यदि आपकी मेरे प्रति स्नेह है तो सर्वरक्षाकर
प्रासादाख्य मन्त्र के कवच का वर्णन कीजिये ॥१-२ ॥
अथ सर्वरक्षाकरं कवचं
श्रीभगवानुवाच
प्रासादमन्त्रकवचस्य वामदेव ऋषिः , पंक्तिश्छन्दः , सदाशिवो देवता , साधकाभीष्टसिद्धये विनियोगः
प्रकीर्तितः ।
श्रीविष्णु भगवान् ने कहा- इस प्रासाद मन्त्र- कवच के
वामदेव ऋषि , पंक्ति छन्द एवं सदाशिव देवता है। साधक की अभीष्ट सिद्धि
हेतु इसका विनियोग किया जाता है।
शिरो मे सर्वदा पातु प्रासादाख्यः सदाशिवः ।
षडक्षरस्वरूपो मे वदनं च महेश्वरः ॥३॥
प्रासादाख्य सदाशिव मेरे शिरोभाग की रक्षा करें , षडक्षरस्वरूप भगवान् महेश्वर
मेरे मुख की रक्षा करें।
पाञ्चाक्षरात्मा भगवान् भुजौ मे परिरक्षतु ।
मृत्युञ्जयस्त्रिबीजात्मा आयू रक्षतु मे सदा ॥४॥
पंचाक्षरात्मा भगवान् शिव मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करें।
त्रिबीजात्मा मृत्युञ्जय सदा मेरी आयु की रक्षा करें।
वटमूलसमासीनो दक्षिणामूर्तिरव्ययः ।
सदा मां सर्वतः पातु षट्त्रिंशद्वर्णरूपधृक् ॥५॥
वटवृक्ष के मूल में स्थित अव्यय दक्षिणामूर्ति छत्तीस
वर्णरूप धारण करने वाले सदाशिव समस्त स्थानों में मेरी रक्षा करें।
द्वाविंशार्णात्मको रुद्रः कुक्षौ मे परिरक्षतु ।
त्रिवर्णात्मा नीलकण्ठः कण्ठं रक्षतु सर्वदा ॥६॥
द्वाविंश वर्णात्मक रुद्रदेव मेरी दोनों कुक्षियों की रक्षा
करें। त्रिवर्णात्मक नीलकण्ठ सदा मेरे कण्ठ की रक्षा करें।
चिन्तामणिर्बीजरूपे सर्वनारीश्वरो हरः ।
सदा रक्षतु मे गुह्यं सर्वसम्पत्प्रदायकः ॥७॥
एकाक्षरस्वरूपात्मा कूटरूपी महेश्वरः ।
मार्तण्ड भैरवो नित्यं पादौ मे परिरक्षतु ॥८॥
चिन्तामणि समस्त नाड़ियों की एवं बीजस्वरूप ईश्वर हर सदा
मेरे गुह्यदेश की रक्षा करें। सर्वसम्पत्प्रदाता एकाक्षर स्वरूपात्मा कूटरूपी
महेश्वर मार्तण्डभैरव नित्य मेरे पैरों की रक्षा करें।
ओमित्याख्यो महाबीजस्वरूपस्त्रिपुरान्तकः ।
सदा मां रणभूमौ तु रक्षतु त्रिदशाधिपः ॥९॥
ॐ इस नाम से पुकारे जाने वाले महाबीजस्वरूप त्रिपुरान्तक
त्रिदशाधिप सदा संग्रामभूमि में मेरी रक्षा करें।
ऊर्वमूर्द्धानमीशानो मम रक्षतु सर्वदा ।
दक्षिणस्यां तत्पुरुषो अव्यान्मे गिरिनायकः ॥१० ॥
अघोराख्यो महादेवः पूर्वस्यां परिरक्षतु ।
वामदेव: पश्चिमस्यां सदा मे परिरक्षतु ।
उत्तरस्यां सदा पातु सद्योजातः स्वरूपधृक् ॥११ । ॥
ईशान ऊर्ध्व भाग में सदा मेरी रक्षा करें। गिरिनायक
तत्पुरुष दक्षिण दिशा में और अघोर नामक महादेव पूर्व दिशा में सदा मेरी रक्षा
करें। वामदेव पश्चिम दिशा में सदा मेरी रक्षा करें तथा सद्योजात स्वरूपधारी उत्तर
दिशा में मेरी रक्षा करें ।
सर्व रक्षाकरं कवच महात्म्यम्
इत्थ रक्षाकरं देवि! कवचं देवदुर्लभम् ।
प्रातः काले पठेद्यस्तु सोऽभीष्टफलमाप्नुयात् ॥१२॥
हे देवि! यह रक्षाकर कवच देवताओं को भी दुर्लभ है। प्रातः
काल जो साधक इसका पाठ करता है उसको अभीष्ट फल प्राप्त होता है।
पूजाकाले पठेद्यस्तु साधकों दक्षिणे भुजे ।
देवा मनुष्या गन्धर्वा वश्यास्तस्य न संशयः ॥१३॥
जो साधक पूजाकाल में इसे दक्षिण भुजा में धारण कर इसका पाठ
करता है ; देव , गन्धर्व एवं मनुष्य भी उसके वश में रहते हैं। इसमें कोई
संशय नहीं है।
कवचं यस्तु शिरसि धारयेद्यदि मानवः ।
करस्थास्तस्य देवेशि अणिमाद्यष्टसिद्धयः ॥१४ ॥
हे देवि ! जो मनुष्य इस कवच को शिर में धारण करते हैं , उनके हाथ में अणिमादि
अष्टसिद्धियाँ रहती हैं।
स्वर्णपत्रे त्विमां विद्यां शुक्लपट्टेन वेष्टिताम् ।
राजतोदरसंविष्टां कृत्वा च धारयेत्सुधीः ॥१५॥
संप्राप्य महतीं लक्ष्मीमन्त्रं च शिवरूपधृक् ।
इस कवच को स्वर्णपत्र से वेष्टित कर (ताबीज बनाकर ) श्वेत
वस्त्र से वेष्टित करे अथवा चांदी के ताबीज में बन्द कर सफेद रेशम के सूत्र में
पिरोकर भुजा या कण्ठ में धारण करे तो लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तथा शिवसायुज्य
प्राप्त होता है।
यस्मै कस्मै न दातव्यं न प्रकाश्यं कदाचन ॥१६॥
शिष्याय भक्तियुक्ताय साधकाय प्रकाशयेत् ।
अन्यथा सिद्धिहानिः स्यात् सत्यमेतन्मनोरमे ॥१७ ॥
तव स्नेहान्महादेवि ! कथितं कवचं शुभम् ।
न देयं कस्यचिद्भद्रे यदीच्छेदात्मनो हितम् ॥१८॥
इसे हर किसी को नहीं प्रदान करना चाहिये और न ही सबके सामने
प्रकाशित करना चाहिये। जो शिष्य श्रद्धा एवं भक्ति रखता हो उसके ही समक्ष इसे
प्रकाशित करना चाहिये , अन्यथा सिद्धि की हानि होती है। हे मनोरमे! यह कवच तुम्हारे
स्नेहवश ही मैंने कहा है । हे देवि ! अपने हित हेतु यह कवच सर्वसाधारण को नहीं
देना चाहिये।
योऽर्चयेद् गन्धपुष्पाद्यैः कवचं मन्मुखोदितम् ।
तेनार्चिता महादेवि! सर्वे देवा न संशयः ॥१९॥
जो साधक मेरे मुख से निकले इस कवच का गन्ध-पुष्पादि से पूजन
करता है , वह समस्त देवताओं का पूजन कर लेता है।
इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे देवीश्वर- संवादे
सर्वरक्षाकरं कवचम् पञ्चदशः पटलः ॥१५ ॥