अस्य कालभैरवऋषिरनुष्टुप् छन्दः श्मशानकाली देवता सर्वत्र
मोहने विनियोगः ॥१॥
इसके कालभैरवऋषि , अनुष्टुप् छन्दः श्मशानकाली
देवता और सर्वत्र मोहन में इसका विनियोग है ॥१॥
"ऐं ह्रीं ह्रूं ह्र: स्वाहा विवादेपातु मां सदा ।
क्लीं दक्षिणकालिकादेवतायै सभामध्ये जयप्रदा ॥ २ ॥
ह्रीं ह्रीं श्यामाङ्गि शत्रुं मारय मारय क्रीं क्लीं
त्रैलोक्यं वशमानय ह्रीं ह्रीं क्रीं मां रक्ष रक्ष ।
विवादे राजगेहे च द्वात्रिंशत्यक्षरा परा ॥ ३ ॥
ब्रह्मराक्षसवेतालात्सर्वतो रक्ष मां सदा ।
कवचैर्वर्जितं यत्र तत्र मां पातु कालिका ।
सर्वत्र रक्ष मां देवि मम मातृस्वरूपिणी" ॥ ४ ॥
त्रैलोक्यमोहन कवच महात्म्य
इत्येतत्परमं मोहं भवद्भाग्यात्प्रकाशितम् ॥ ५ ॥
हे देवी ! तुम्हारे भाग्य से ही यह परम मोहन प्रकाशित हुआ
है ॥ ५ ॥
सदा यस्तु पठेद्वापि त्रैलोक्यं वशमानयेत् ॥ ६ ॥
जो मनुष्य इसका सदा पाठ करता है , वह तीनों लोक को वशीभूत करने
में समर्थ होता है ॥ ६ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा पूजयेद्वरिकामिनीम् ।
सर्वदा स महाव्याधिपीडितो नात्र संशयः ।
अल्पायुः स भवेद्रोगी कथितं तव नारद ॥ ७ ॥
इस कवच को बिना जाने जो वीर कामिनी की पूजा करता है , वह महाव्याधिग्रस्त होकर पीडित , अल्पायु और रोगी होता है , इसमें संदेह नहीं। हे नारद!
मैंने यह तुमसे कहा ॥ ७ ॥
धारणं कवचस्यास्य भूर्जपत्रे विशेषतः ।
समन्त्रकवचं धृत्वा इच्छासिद्धिः प्रजायते ॥ ८ ॥
विशेषतः भोजपत्र पर लिखकर यह कवच मन्त्रसहित धारण करने- से इष्टसिद्धि
प्राप्त होती है ॥ ८ ॥
शुक्लाष्टम्यां लिखेन्मंत्री धारयेत् स्वर्णपत्रके ।
कवचस्यास्य माहात्म्यं नालं वक्तुं महामुने ॥ ९ ॥
मन्त्रवान् मनुष्य शुक्लाष्टमी में इस कवच को लिख के
स्वर्णपत्र में धरकर इसको धारण करे । हे महामुने ! इस कवच का माहात्म्य अनिर्वचनीय
है ॥ ९ ॥
शिखायां धारयेद्योगी फलार्थी दक्षिणे भुजे ।
इदं कल्पद्रुमो देवि तव स्नेहात्प्रकाशिते ।
गोपनीयं प्रयत्नेन पठनीयं महामुने ॥ १० ॥
योगी मनुष्य शिखा में और फलार्थी मनुष्य इसको दहिनी भुजा
में धारण करै । हे देवि ! यह कल्पवृक्ष की तुल्य कवच तुम्हारे स्नेह में प्रकाशित
किया है इसको परमयत्नपूर्वक गुप्त रखकर सदा पाठ करे ॥ १० ॥
श्रीयोगिनीतन्त्रे त्रैलोक्यमोहन कवचम् तृतीयः पटलः ॥