हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|रामदासकृत हिन्दी मनके श्लोक|बहुजिनसी| ॥ समास आठवां - अंतरदेवनिरूपणनाम ॥ बहुजिनसी ॥ समास पहला - बहुदेवस्थाननिरूपणनाम ॥ ॥ समास दूसरा - सर्वज्ञसंगनिरूपणनाम ॥ ॥ समास तीसरा - निस्पृहसिकवणनिरूपणनाम ॥ ॥ समास चौथा - देहदुर्लभनिरूपणनाम ॥ ॥ समास पांचवां - करंटेपरीक्षानिरूपणनाम ॥ ॥ समास छठवां - उत्तमपुरुषनिरूपणनाम ॥ ॥ समास सातवां - जनस्वभावनिरूपणनाम ॥ ॥ समास आठवां - अंतरदेवनिरूपणनाम ॥ ॥ समास नववां - निद्रानिरूपणनाम ॥ ॥ समास दसवां - श्रोताअवलक्षणनिरूपणनाम ॥ बहुजिनसी - ॥ समास आठवां - अंतरदेवनिरूपणनाम ॥ ‘स्वधर्म’ याने मानवधर्म! जिस धर्म के कारण रिश्तों पहचान होकर मनुष्य आचरन करना सीखे । Tags : hindimanache shlokramdasमनाचे श्लोकरामदासहिन्दी ॥ समास आठवां - अंतरदेवनिरूपणनाम ॥ Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ ब्रह्म निराकार निश्चल । आत्मा सविकार चंचल । उसे कहते सकल । देव ऐसे ॥१॥देव का ठिकाना ही मिलेना । एक देव नेमस्त समझेना । बहुत देवों में अनुमान हो सकेना । एक देव का ॥२॥ इस कारण विचार करें । विचार से देव खोजें। बहुत देवों की उलझन में। पड़ें ही नहीं ॥३॥ देव क्षेत्र में देखा । वैसा ही धातु का बनाया । पृथ्वी में चली प्रथा । इस प्रकार ॥४॥ नाना प्रतिमादेवों का मूल । वो ये क्षेत्रदेव ही केवल । नाना क्षेत्र भूमंडल । में खोजकर देखें ॥५॥ क्षेत्रदेव पाषाण का । विचार देखें अगर उसका । तंतु जुडा मूल का । अवतार से ॥६॥ अवतारी देव खत्म हुये । देह धर वर्तन कर गये । उनसे भी बडे अनुमानित किये । ब्रह्मा विष्णु महेश ॥७॥ इन तीन देवों पर जिसकी सत्ता । उस अंतरात्मा को जब देखा जाता । कर्ता भोक्ता तत्त्वतः । प्रत्यक्ष है ॥८॥ युगोयुगो से तीनों लोक । एक ही चलाये अनेक । यह निश्चय का विवेक । वेदशास्त्रों में देखें ॥९॥ आत्मा चलाता शरीर । वही देव उत्तरोत्तर । ज्ञातारूप से शरीर । विवेक से चलाता ॥१०॥ इस अंतरदेव को चूकते । दौड़कर तीर्थ पर जाते । प्राणी बेचारे कष्ट उठाते । देव ना जानकर ॥११॥ फिर विचार करते अंतःकरण में । जहां वहां पत्थर पानी ये । व्यर्थ ही दरदर भटकने से । क्या होगा ॥१२॥ ऐसा विचार जिसे समझा । उसने सत्संग धरा । सत्संग से देव मिला । बहुत जनों को ॥१३॥ विवेक के काम ये ऐसे । विवेकी जानते नियम से । अविवेकी भूले भ्रम से । उन्हें यह समझेना ॥१४॥अंतरवेधी अंतरंग जाने । बाहरमुद्रा कुछ भी ना जाने । इसकारण विवेकी सयाने । अंतरंग खोजते ॥१५॥विवेक बिन जो भाव । वह भाव ही अभाव । मूर्खस्य प्रतिमा देवः । ऐसा वचन ॥१६॥ देखते समझते अंत तक गया । वही विवेकी भला । तत्त्व छोड़ कर पाया । निरंजन को ॥१७॥ अरे जो आकार में आता । वह सारा ही नष्ट होता । इस कोलाहल से अलग जो होता । वह परब्रह्म जानिये ॥१८॥ चंचल देव निश्चल ब्रह्म । परब्रह्म में नहीं भ्रम । प्रत्यय ज्ञान से निर्भम । होते हैं ॥१९॥ प्रचीत बिना जो जो किया । वह सारा व्यर्थ गया । प्राणी कष्ट पाकर मर गया । कर्म कैची में ॥२०॥ कर्म से अलग ना होये । तो फिर ईश्वर को क्यों भजे । विवेकी सहज ही जानते । मूर्ख ना जाने ॥२१॥कुछ अनुमान से किया विचार । जगदंतर में है ईश्वर । सगुण का कर निर्धार । निर्गुण प्राप्त कीजे ॥२२॥सगुण देखते मूल तक गया । सहज ही निर्गुण को पाया । संग त्याग से मुक्त हुआ । वस्तुरूप ॥२३॥परमेश्वर से अनुसंधान । लगाने से होता पावन । मुख्य ज्ञान से ही विज्ञान । प्राप्त होता ॥२४॥ विवेक के विवरण ये ऐसे । देखें सुचित अंतःकरण से । नित्यानित्यविवेकश्रवण से । जगदुद्धार ॥२५॥इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे अंतरदेवनिरूपणनाम समास आठवां ॥८॥ N/A References : N/A Last Updated : December 09, 2023 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP