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मनोपूरक रहस्य

कालीतंत्र - मनोपूरक रहस्य

तंत्रशास्त्रातील अतिउच्च तंत्र म्हणून काली तंत्राला अतिशय महत्व आहे.


मनोपूरक रहस्य

देव्युवाच
नीलकंठ महादेव रहस्यं कृपया वदः ।
यदि नो कथ्यते देव विमुंचामि तदा तनुम् ॥

भावार्थः देवी बोलीं, हे नीलकंठ महादेव ! अब आप मुझे मनोपूरक रहस्य के बारे में बताइए । यदि आप नाहीं बताएंगे तो मैं इस देह का परित्याग कर दूंगी ।

ईश्वसेवाच
श्रृणु पार्वति कृष्णांगी खंजनाक्षि सुलोचने ।
गोपनीयं रहस्यं हि सर्वकाम फलप्रदम् ॥

भावार्थः महादेव बोले, हे कृष्णांगी ! खंजन पक्षी के समान नेत्रोंवाली ! मैं तुम्हें अति गुप्त व सर्वमनोरथ पूर्ण करनेवाले इस रहस्य को बताता हूं ।

तिस्त्रः कोट्‌यस्तर्द्धेन शरीरे नाडिका मताः ।
तासु मध्ये दश प्रोक्तास्तासु तिस्त्रो व्यवस्थिताः ॥

भावार्थः मनुष्य की देह में साढे तीन करोड नाडियाम अवस्थित हैं । उनमें से द्स नाडियां मुख्य हैं और उन दस नाडियों में भी तीन ही नाडियां मुख्य हैं ।

प्राधाना मेरुदंडाग्रे चंद्रसूर्याग्निरूपिणी ।
मज्जयित्वा सुषुम्नायामहं योगी सुरेश्वरी ।
षट्‌चक्रे परमेशानि भावयेद् योनिरूपिणीम् ॥

भावार्थः मेरुदंड (रीढ की हड्‌डी) के मूल में चंद्र नाडी (इडा), सूर्य नाडी (पिंगला) व अग्निरूप नाडी (सुषुम्ना) अवस्थित हैं । हे देवेश्वरी ! मैंने सुषुम्ना (अग्निरूप नाडी) में स्नान किया है इसलिए योगी हूं । हे देवी ! देह में छह चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध व आज्ञा) अवस्थित हैं । उनमें योनिस्वरूपा देवी भगवती का ध्यान करना चाहिए ।

प्रथमं परमेशानि आधारयुगपत्रकम् ।
वादिसान्त्यैश्चतुर्वणै द्यूतहेमसमप्रभं ।
तडित् कोटिप्रभाकरं स्थानं परमदुर्लभम् ॥

भावार्थः मूलाधार चक्र के चार दलों में क्रमशः व, श, ष, स वर्ण अंकित हैं । यह कमल स्वर्ण के समान दीप्तिमान है । इसकी आभा करोडों विद्युत के सदृश है । यह स्थान दुर्लभातिदुर्लभ है ।

तत्कर्णिकायां देवेशि त्रिकोणमतिसुंदरम् ।
इच्छाज्ञानं क्रियारूपं ब्रह्मविष्णु शिवात्मकम् ॥
मध्ये स्वयंभुलिंगं च कुंडली वेष्टितं सदा ।
त्रिकोणाख्यं तु देवेशि लंकारं चिंतयेत्तथा ॥

भावार्थः हे देवेशी ! उस कमल की कर्णिका में एक रमणीय त्रिकोण अंकित है । वह त्रिकोण इच्छा-ज्ञान-क्रिया अथवा ब्रह्मा, विष्णु व शिव का प्रतीक है । त्रिकोण के मध्य में स्वयंभूलिंग से कुंडली सदैव लिपटी रहती है । त्रिकोण के मध्य में लं बीजमंत्र का ध्यान करना चाहिए ।

ब्रह्माणं तत्र संचिन्त्य कामदेवं च चिन्तयेत् ।
बीजं तत्रैव निश्चिचंत्यं पानावादानमेव च ॥
पदे च गमनं पायौ विसर्गं नसि कामिनी ।
घ्राणं संचिन्त्य देवेशि महेशी प्राणवल्लभे ॥

भावार्थः इसी तरह ब्रह्मा की कल्पना कर कामदेव का ध्यान करना चाहिए । साथ ही बीजमंत्र का भी चिंतन करना चाहिए । हे प्राणवल्लभे ! हे कामिनी ! पैरों से गमन, पायु (गुदा) से विसर्जन व नासिका से गंध की भावना करनी चाहिए ।

डाकिनीं परमाराध्यां शक्तिं च भावये ततः ।
एतानि गिरिजे मातः पृथ्वीं नीत्वा गणेश्वरी ॥

भावार्थः हे पार्वती ! इसके बाद डाकिनी की कल्पना कर पूर्वानुसार चिंतन, गमन, विसर्जन, गंध आदि को पृथ्वी तत्त्व में ले जाना चाहिए ।

तन्मध्ये लिंगरूपं हि कुंडली वेष्टितं प्रिये ।
तत्र कुंडलिनीं नीत्यां परमानंदरूपिणीम् ॥
तत्र ध्यानं प्रकुर्वीत सिद्धिकामो वरानने ।
कोटिचंद्र प्रभाकारां परब्रह्म स्वरूपिणीम् ॥
चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च वराभयकरस्तथा ।
तथा च पुस्तकं वीणां धारिणीं सिंहवाहिनीम् ।
गच्छंति स्वाशनं भीमां नानारूपधरां पराम् ॥

भावार्थः हे प्राणप्रिये ! त्रिकोण के मध्य स्थित मूलाधार में लिंग अवस्थित रहता है । इसी स्थान पर परमानंदरूप नित्या कुंडलिनी अवस्थित है । इसी स्थान पर कामनाओं की सिद्धि के लिए साधक को करोडों चंद्रमाओं के समान प्रभासित परब्रह्मस्वरूपा कुंडलिनी का स्मरण करना चाहिए । वह कुंडलिनी चतुर्भुजा, त्रिनेत्री, वर-अभय प्रदान करनेवाली, सिंह पर आरूढ, वाणी व पुस्तक धारण करनेवाली है । अनेक रूप धारण करनेवाली भीमदर्शना देवी मनोहारी आसन पर आरूढ रहती हैं ।

पूर्वोक्तां पृथिवीं धन्यां गंधे नीत्वा महेश्वरी ।
आकृष्य प्रणवेनैव जीवात्मानं नगेंद्रजे ॥

भावार्थः हे पर्वतपुत्री ! पहले कहे गए पृथ्वी तत्त्व को उसके विषय गंध में विलीन कर प्रणव का जाप करते हुए जीवात्मा का आवाहन करना चाहिए ।

कुंडलिन्या सह प्रेमे गंधमादाय साधकः ।
सोऽहमिति मनुना देवी स्वाधिष्ठाने प्रवेशयेत् ॥
तत्पद्‌मं लिंगमूलस्थं सिंदूराभं च षड्‌दलम् ।
स्फुरद्‌विद्रुमसंकाशैर्वादिलांतैः सुशोभितम् ॥

भावार्थः हे पार्वती ! कुंडलिनी देवी के साथ ही गंध ग्रहण करके सो‍ऽहं मंत्र का जाप करते हुए स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश करना चाहिए । यह चक्र लिंगमूल में पद्‌म (कमल) रूप में अवस्थित रहता है । इसके छह दल (पंखुडियां) हैं, जो सिंदूर वर्ण के समान प्रभासित हैं । कांतिमय मूंगे के समान यह शोभित है । इसके वर्ण हैं-वं भं मं यं रं लं ।

तत्कर्णिकायां वरुणं तत्रापि भावयेद् हरिम् ।
युवानां राकिनीं शक्तिं चिंतयित्वा वरानने ॥

भावार्थः इस चक्र में स्थित कमल की कर्णिका में वरुण देवता का निवास है । यहां विष्णु का ध्यान करना चाहिए । हे सुमुखी ! यहीं पर राकिनी शक्ति का भी ध्यान करना चाहिए ।

रसनेंद्रिय पुष्पस्थं जलं च कामलालसे ।
एतानि गंधं च शिवे रसे नीत्वा विनोदिनीम् ॥
जीवात्मानं कुंडलिनीं रसं च मणिपूरके ।
नीत्वा परमयोगेन तत्पद्मं दिग्‌दलं प्रिये ॥

भावार्थः स्वाधिष्ठान चक्र में यह रसनेंद्रिय जल व उपस्थ रूप में निवास करती है । इनको तथा पूर्वाकर्षित गंध को रस में संयोजित कर मणिपूर चक्र की ओर गमन करना चाहिए । इस चक्र में दूसरे चक्र के रस व कुंडलिनी रूप जीवात्मा को ले जाना चाहिए । हे प्रिये ! मणिपूर कमल चक्र में कुल दस दल हैं ।

नीलवर्णं तडिद्रूपं डादिफान्तैश्च मंडितम् ।
तत्कर्णिकायां सुश्रोणि वहि‌न संचिन्त्य साधकः ॥
तत्र रुद्रः स्वयं कर्त्ता संहारे सकलस्य च ।
लाकिनी शक्ति संयुक्तं भावयेत्तं मनोहरे ॥
तत्र चक्षुरिंद्रियं च कृत्वा तेजोमयं यजेत् ।
एतं रसं च सुभगे रूपे नीत्वा महाभगे ॥

भावार्थः हे देवी ! यह कमल नीले रंग का है । इसकी प्रभा विद्युत के समान है । यहं उ से फ तक के वर्ण अंकित हैं । इस कमल की कर्णिका में साधक को अग्निबीज (रं) का ध्यान करना चाहिए । इस स्थान पर रुद्र अपनी शक्ति लाकिनी के साथ सवस्थित रहते हैं । यहीं पर नेत्र का विषय तेज सुशोभित है । हे महाभागे ! अब स्वाधिष्ठान के रस को रूपादि में संयोजित कर अनाहत चक्र में ले जाना चाहिए ।

जीवात्मानं कुंडलिनी रूपं च अनाहते नयेत् ।
बंधूकपुष्पसंकाशं तत्पद्मं द्वादशारकम् ॥
कादिठांतैः स्फुरद्वर्णैः शोभितां हरवल्लभाम् ।
तत्कर्णिकायां वायुंश्चाजीवस्थान निवासिनम् ॥
तत्र योनेर्मंडलं च वाणलिंग विराजितम् ।
काकिनी शक्तिसंयुक्तं तत्र वायोस्त्वगिंद्रियम् ॥

भावार्थः इस अनाहत चक्र में कुंडलिनी रूप जीवात्मा का निवास है । इस चक्र का वर्ण बंधूक पुष्प के समान है और इसमें बारह दल हैं । अनाहत चक्र में क से ठ तक के वर्ण हैं । कर्णिका में वायु तत्त्व अवस्थित है । यहां बाणलिंग एक योनिमंडल में विराजमान है । इस स्थान पर काकिनी शक्ति व त्वक् इंद्रिय व उसका विषय वायु तत्त्व है ।

एतं रूपं च संयोज्य स्वर्गे रमण कामिनी ।
जीवकुंडलिनीं स्पर्शं विशुद्धौ स्थापयेत्ततः ॥
धूम्रवर्णं कंठपद्मं षोडश स्वर मंडितम् ।
तत्कर्णिकायामाकाशं शिंव च काकिनीयुतम् ॥

भावार्थः हे स्वर्गरमणाकांक्षी ! अब विशुद्धाख्य कमल को पूर्व में कही गई त्वक् इंद्रीय के विषय स्पर्श से मिलाकर कुंडलिनी रूप जीवात्मा की प्रतिष्ठापना करनी चाहिए । यह कमल धूम्रवर्णी व १६ अक्षरों से शोभायमान है । इसकी कर्णिका में आकाश तत्त्व है, जहां काकिनी शक्ति के साथ शिव विराजमान हैं ।

वाचं श्रोतं च आकाशे संस्थाप्य नगनंदिनी ।
एतानि स्पर्शं शब्दे च नीत्वा शांकरि मत्प्रिये ॥
जीवं कुंडलिनीं शब्दं चाज्ञापत्रे निधापयेत् ।
नेत्रपद्मं शुक्लवर्णं द्विदलं ह क्ष भूषितम् ॥
तत्कर्णिकायां त्रिकोणंचेद् वाणलिंगश्च संगतम् ।
मनश्चात्र सदाभाति डाकिनौ शक्ति लांछितं ॥
बुद्धि प्रकृत्यहंकारालक्षितं तेजसा परम् ।
जीवात्मानं कुंडलिनीं मनश्चापि महेश्वरी ॥

भावार्थः हे पर्वतपुत्री ! इस स्थान पर वाक् व श्रोत्र इंद्रियों की प्रतिष्ठापना कर शब्द के साथ स्पर्श का समन्वय करना चाहिए । फिर कुंडलिनी रूप जीवात्मा व शब्द को आज्ञाचक्र में ले जाना चाहिए । आज्ञा चक्र में जो कमल है वह नेत्र पद्‌म कहलाता है । वह शुक्लवर्णी है और वहां ह और क्ष वर्ण स्थित हैं । उस कमल की कर्णिका में बाणलिंग से युक्त त्रिकोण है । उस त्रिकोण में मन अपनी डाकिनी शक्ति के साथ सदा विराजता है । साधक को यहां बुद्धि, प्रकृति, अहंकार को लक्ष्य बनाकर वहां तेज रूप मन को और जीवात्मा रूप कुंडलिनी को केंद्रित करना चाहिए ।

सहस्रारे महापद्‌मे मनश्चापि नियोजयेत् ।
सहस्रारं नित्यपद्मं शुक्लवर्णमधोमुखम् ॥
अकारादि क्षकारांतैः सफुरद्वर्णर्विराजितम् ।
तत्कर्णिकायां देवेशी अंतरात्मा ततो गुरुः ॥
सूर्यस्य मंडलं चैव चंद्रमंडलमेव च ।
ततो वायुर्महानादो ब्रह्मरंध्रं ततः स्मृतम् ॥

भावार्थः हे पार्वती ! आज्ञा चक्र से ऊपर शुक्लवर्णी सहस्रार चक्र है । उस चक्र का मुख नीचे की ओर है । उस चक्र में मन को केंद्रित करना चाहिए । वह अ से क्ष वर्ण तक प्रकाश से व्याप्त है । हे देवी ! उसकी कर्णिका में अंतरात्मा व गुरु का आसन स्थित है । उस चक्र से ऊपर की ओर सूर्य-चंद्र का मंडल है । उससे भै ऊपर महानादवाला वायु है । उस वायु से ऊपर ब्रह्मरंध्र स्थित है ।

तस्मिन् रंध्रे विसर्गं च नित्यानंदं निरंजनम् ।
तदूर्ध्वे शंखिनी देवी सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥
तस्याधः स्ताच्च देवेशी चंद्रमंडल मध्यगम् ।
त्रिकोणं तत्र संचिन्त्य कैलासमत्र भावयेत् ॥

भावार्थः हे देवी ! इस ब्रह्मरंध्र में सदा आनंदमय निरंजन विसर्ग है । कुछ लोगों का अभिमत है कि ब्रह्मरंध्र के ऊपरी भाग में ही यह विसर्ग मंडल स्थित है तथा उसके भी ऊपर शंखिनी नामक देवी विराजती है । यही देवी सृष्टि, स्थिति व प्रलय करनेवाली शक्ति है । हे देवी ! इसके निचले भाग में चंद्र मंडल के बीच जो त्रिकोण है, उसका ध्यान करते हुए उसके भीतर ही कैलाश की कल्पना करनी चाहिए ।

इह स्थाने महादेवी स्थिरचित्तो विधाय च ।
जीवजीवी गतव्याधिर्नपुनर्जन्मसंभवः ॥
अत्र नित्योदिंता वृद्धि क्षयहीना अमाकला ।
तन्मध्ये कुटिला निर्वाणाख्या सप्तदशी कला ॥
निर्वाणाख्यांतर्गता बहिरूपा निरोधिका ।
नादोऽव्यक्तस्तदुपरि कोट्‌यादित्समप्रभा ॥

भावार्थः हे पार्वती! ऊपर कहे गए स्थान में मन को एकाग्र कर साधक भय, व्याधि आदि से मुक्त हो जाता है । उसका जीव-जीवी भाव का व्यवहार समाप्त होकर वह पुनरागमन से मुक्त हो जाता है अर्थात मोक्ष मिल जाता है । हे देवी ! वृद्धि-क्षय क्रम से रहित अमाकला यहां सदैव उद्दीप्त रहती है । यहीं पर कुटिल निर्वाण नामक कला का भी स्थान है । निर्वाण नामक सप्तदश कला में ही बाह्म रूप निरोधकारिणी एक और कला है । यहां पर अव्यक्त नाद निरंतर निनादित होता रहता है । उसके ऊपरी भाग पर करोडों सूर्यों के समान प्रकाश विद्यमान है ।

निर्वाणशक्तिः परमा सर्वेषां योनिरूपिणी ।
अस्यां शक्तौ शिवं ज्ञेयं निर्विकारं निरंजनम् ॥
अत्रैव कुंडलीशक्तिर्मुद्राकारा सुरेश्वरी ।
पुनस्तेन प्रकारेण गच्छन्त्याधारपंकजे॥

भावार्थः यह प्रकाश जहां है वहीं योनिरूपिणी निर्वाण (मोक्षदात्री) शक्ति है । इसी योनि में विकार रहित, शिव विराजते हैं । हे देवस्तामिनी ! इस स्थान पर योनिमुद्रा के आकार की कुंडलिनी शक्ति का निवास है । यह कुंडलिनी फिर से मूलाधार में गमन कर जाती है ।

कथिता योनिमुद्रेयं मया ते परमेश्वरी ।
विना येन न सिद्धेन निहरेत् परमात्मना ॥

भावार्थः हे देवी ! मैंने योनिमुद्रा तुम्हें बता दी है । इसकी सिद्धि के बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती ।

तत् दिव्यामृतधाराभिः लाक्षाभाभिर्महेश्वरी ।
तर्पयेद् देवतां योगी योगेनानेन साधकः ॥
कुंडलीशक्तिर्सिद्धिः स्याद्वर्णकोटिशतैरपि ।
तस्मात् त्वयापि गिरिजे गोपनीयं प्रयत्नतः ॥

भावार्थः हे महेश्वरी ! लाक्षारस की धारा सम जो अमृतधारा है उसमें साधकगण अपने इष्टदेव का सदैव तर्पण किया करते हैं । हे देवी ! कुंडलिनी की सिद्धि सैकडों-करोडों वर्णों से होती है । अतः इसे गुप्त ही रखना चाहिए ।

मन्त्ररूपां कुंडलिनीं ध्यात्वा षट्‌चक्रमंडले ।
कंदमध्यात् सुमधुरं कूजंती सततोत्थितम् ॥
गच्छंति ब्रह्मरंध्रेण प्रविशंतीं स्वकेतनम् ।
मूलाधारे च तां देवीं संस्थाप्य वीरवंदिते ॥

भावार्थः छह चक्र के मंडलों में मंत्र रूप कुंडलिनी का ध्यान करने से कंद के बीच से निरंतर मधुर स्वर करते हुए कुंडलिनी जाग्रत होती है । हे वीरवंदिते ! मूलाधार से उठकर ब्रह्मरंध्र तक पहुंचकर कुंडलिनी सहस्रार में स्थित हो जाती है । उस कुंडलिनी को पुनः वहां से मूलाधार में स्थापित करना चाहिए ।

चित्रिणी ग्रथिता माला जपं ब्रह्मांडसुंदरी ।
रहस्यं परमं दिव्यं मंत्रचैतन्यमीरितम् ॥

भावार्थः हे ब्रह्मांडसुंदरी ! चित्रिणी (कालानिपुण व बनाव-श्रृंगारप्रिय स्त्री) द्वारा निर्मित माला से जाप करने पर मंत्र सिद्ध होता है । साधकों का यह दिव्यातिदिव्य रहस्य है ।

मुद्राचैतन्योर्ज्ञानं वर्णानां ज्ञानमेव च।
मंत्रार्थं कथितं देवी तव स्नेहात् प्रिये ॥
अस्य ज्ञानं विना भद्रे सिद्धिर्न स्यात् सुलोचने ।
इति ते कथितं देवी योनिक्रीडानमुत्तमम् ॥

भावार्थः हे प्रिये ! तुम्हारे प्रति प्रेमभाव होने के कारण ही मैंने तुम्हें मुद्रा, मंत्र, चैतन्य, वर्ण का ज्ञान व मंत्र का अर्थ आदि कहा है । इस ज्ञान के न होने से सिद्धि नहीं मिलती ।

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Last Updated : December 28, 2013

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