अध्याय छठा - श्लोक १२१ से १३६

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


रत्नआदि सहित भूमिको ह्रदयके ऊपर स्थापन करे तिसकेही उस उस गर्भकोवज्रलेपसे नीरंध्र करे अर्थात छिद्र रहित करदे फ़िर लीपकर शांतिपाठके जलसे छिडके और फ़िर उल्लेखन करै अर्थात ऊंचे नीचेको एकरस करदे ॥१२१॥

फ़िर तेज नामकी शक्ति जो कलिताके आसनरुप हो उसका ज्योतिषियोंके बताये हुए श्रेष्ठ मुहूर्तके श्रेष्ठलग्नमें स्थापन करै ॥१२२॥

इसके अनन्तर मंडपोंका लक्षण कहता हूँ, प्रासादके अनुसार उत्तम मंडपोंको कहता हूं ॥१२३॥

श्रेष्ठ मध्यम कनिष्ठ भेदसे अनेकप्रकारके मंडप बनवावे उनको मैं नाम लेलेकर कहताहूं-हे द्विजोंमें श्रेष्ठो ! तुम सुनो ॥१२४॥

पुष्पक, पुष्पभद्र, सुवृत्त, अमृतनंदन, कौशल्य, बुध्दिसंकीर्ण, गजभद्र, और जयावह ॥१२५॥

श्रीवृक्ष, विजय, वास्तुक, अर्णश्रुतधर, जयभद्र, विलास, सश्र्लिष्ट, शत्रुमर्दन ॥१२६॥

भाग्यपंच, नंदन भानव, मानभद्र, सुग्रीव, हर्षण, कर्णिकार, पदाधिक ॥१२७॥

सिंह, यामभद्र और शत्रुघ्न ये सत्ताईस मंडप शास्त्रकारोंने कहे हैं अब हे ब्राह्मणो ! इनक लक्षणोंको श्रवण करो ॥१२८॥

जिसमें चौसष्ठ ६४ स्तंभ हों उसको पुष्पक कहते है, जिसमें बासष्ठ ६२ स्तम्भ हों उसे पुष्पभद्र और जिसमें साठ ६० स्तम्भ हो उसे वृत्त कहते हैम ॥१२९॥

जिसमें अठावन ५८ स्तम्भ हों उसको अमृतनंदन कहते हैं. जिसमें बावन स्तम्भ हों उसे कौशल्य कहते हैं, चौबन्न ५४ स्तम्भवालेको ॥१३०॥

बुध्दिसंकीर्णं कहते हैं. उसमें दो स्तम्भ न्यूनसे हों तो राजभद्रक कहते हैं. तिरपन ५३ स्तम्भवालेको जयावह, इक्यावन ५१ स्तंभवालेको श्रीवत्स कहते हैं ॥१३१॥ बत्तीस ३२ स्तंभका मण्डप हर्षण जानना. बीस २० स्तंभका कर्णिकार होता है अठ्ठाईस २८ स्तम्भ जिसमें हों वह पदाधिक होता है. सोलह स्तम्भ जिसमें हों वह सिंह होता है ॥१३२॥ उससे दो न्यूनके स्तम्भको याम और शत्रुघ्न कहते हैं. किसी ग्रंथमें बारह १२ स्तम्भोंसे युक्त यामभद्र कहा है ॥१३३॥

पये पूर्वोक्त मण्डप लक्षणोंसे युक्त यथायोग्य कहे त्रिकोण वृत्तके मध्यमें अष्टकोण षोडशकोण ॥१३४॥

वा चतुष्कोण मण्डपका स्थान बनावे. राज्य विजय अवस्थाकी वृध्दि ॥१३५॥

पुत्रलाभ लक्ष्मी स्त्री पुत्र आदिकोंका पोषण क्रमसे पूर्वोक्त मण्डपोंमें होता है. इस प्रकारका मण्डप शुभदायी होता है और अन्यथा भयका दाता होता है ॥१३६॥

इति पं० मिहि० विवृ० वास्तुशास्त्रे षष्ठोऽध्याय: ॥६॥

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Last Updated : January 20, 2012

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