अध्याय छठा - श्लोक ८१ से १००

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


इस प्रकार ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठके भेदसे लिंगमान वा रुपभेदसे तीन प्रकारके शिखरको बनवावै ॥८१॥

ये शिखर सामान्यसे कहे, अब शिखरोंके नामोंको तुम सुनो मेरु मन्दर कैलास कुम्भ सिंह और मृग ॥८२॥

विमानछन्दक और चतुरस्त्र ( चौकोर ) अष्टास्त्र ( अठकोना ) और षोडशास्त्र ( सोलह कोना ) वर्तुल ( गोल ) सर्वभद्रक ॥८३॥

सिंहनन्दन और नन्दिवर्ध्दन सिंह वृष सुवर्ण पद्मक और समुद्रक ॥८४॥

ये नामसे कहे हैं. हे द्विजो ! इनके विभागको तुम सुनो- शतश्रृंग हों और चार जिसके द्वारहों भूमिकाके सोलह भागसे ऊंचा हो ॥८५॥

नानाप्रकारकी जिसकी विचित्र शिखर हों उसको मेरुप्रासाद कहते हैं. जो बारह चौकका हो वा जिसकी बारह शिखर हों उसको मन्दर कहत हैं. जिसमें नौ ९ भूमि हो उसे कैलास कहते हैं ॥८६॥

अनेक शिखरोंसे जिसका विस्तार हो उसे विमानच्छन्दक कहते हैं और उसकी भूमि ( चौक ) आठ होती है. जिसकी सात भूमि हों वह नन्दिवर्ध्दन होता है ॥८७॥ बीस जिसकी कोन समान हों वह नन्दन कहा है. जिसकी सोलह १६ कोनहों और जो नानारुपसे युक्त हो ॥८८॥

अनेक जिसकी शिखरहों उसको सर्वतोभद्र कहते हैं. और वह चंद्रशालासे युक्त होता है उसकी भूमि पांच होती हैं ॥८९॥

तिसी प्रकार शुककी ( तोताकी ) नासिकाके समान जो कोनोंसे युक्तहो और वृषकी ऊँचाईके तुल्य हो मण्डितहो चित्रोंसे वर्जितहो वह वलभीच्छन्दक कहाता है ॥९०॥ सिंहके समान जो दीखै वह सिंह और गजके समान जो दीखै वह गज कहाता है. कुम्भके समान जिसका आकारहो वह कुंभ कहाता है उसकी ऊँचाई भूमिके नवम भागकी होती है ॥९१॥

अंगुलीके पुटके समान जिसकी स्थितिहो पांच अण्डकोशसे जो भूषित हो और चारों तरफ़से जिसकी सोलह कोन हों उसको सामुद्रिक कहते हैं ॥९२॥

जिसके दोनों पाश्र्वभागोंमें चन्द्रशालाके समान मुख हों और ऊंचाहो दो जिसकी भूमिहों जो उतनाही ऊंचा हो और दोही जिसकी भूमि हों वह पद्मक कहा है ॥९३॥ जिसकी सोलह अस्त्र और विचित्र शिखर होती हैं वह मन्दिर शुभदायी होता है. जो चन्द्रशालासे विशेषकर भूषित हो वह मृगराजनामसे प्रसिध्द है ॥९४॥

जिसकी विशाल पूर्वको ग्रीवाहो भूमिके छठेभागकी ऊंचाई हो वह मृगराज कहाता है. अनेक जिसमें चन्द्रशाला हों वह गजप्रासाद कहाता है ॥९५॥

पर्य्यक गृहराज वा नामसे जिसे गरुड कहते हैं जिसकी सातभूमिके भागकी ऊंचाई हो और जिसमें तीन चन्द्रशाला हो ॥९६॥

जिसके चारो तरफ़ बाह्यदेशमें छियासी गज वा हाथ भुमिहो वहभे३ए एक प्रकारका गरुडमंदिर कहा है. जिसकी ऊचाह भूमिके दशभागको होती है ॥९७॥

जिसकी सोलह अस्त्रहों और दो भूमि जिसमें अधिक हों वह पद्मक कहाता है. पद्मकके तुल्य जिसका प्रमाण हो वह श्रीतुष्ट कहाता है, पांच जिसके अण्डहों, तीन जिसकी भूमि हों, गर्भमें जिसके चार हाथ हों ॥९८॥

वह वृष नामसे होता है. वह प्रासाद सब कामनाओंको देता है, सप्तक और पंचकनामसे जो प्रासाद हमने कहे है वे सिंह नामके प्रासादके समान जानने. जो अन्य प्रासाद अन्य प्रमाणसे ॥९९॥

चन्द्रशालाओंके युक्त कहे हैं, वे सब आग्ग्रीवके युक्त होते हैं ईंटोंके वा काष्ठके वा पर्थरके होते हैं. तोरणोंसहित होते हैं मेरु नामका मन्दिर ५० हाथका और मन्दर ४५ पैंतालीस ॥१००॥

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Last Updated : January 20, 2012

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