अध्याय छठा - श्लोक ४१ से ६०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


फ़िर अस्त्रके जलको लेकर अस्त्रायफ़ट इसको पढकर फ़िर पूजन करै, सुन्दर रुपवाली सुवर्णकीसी जिसकी कान्ति संम्पूर्न आभूषणोंसे सुशोभित समस्त उत्तम लक्षणोंसे युक्त प्रसन्नहुई और कुछ हँसतासा है मुख जिसका ॥४१॥

ऐसी उन शिलाका ध्यान करे और उसी शिलाके मंत्रको उच्चारण करके वारम्वार नमस्कार करै ॥४२॥

फ़िर वेद और शास्त्रोंकें मन्त्रसे नंदानामकी शिलाका आवाहन करे और उसका वस्त्र गन्ध आदिसे पूजन करे ॥४३॥

अष्ठगन्ध आदिकी धूपको देकर मन्त्रका जाननेवाला सामान्य मुद्रा ( बध्दांजलि ) से दधि मांस आदि सहित नैवेद्यका ॥४४॥

अर्पण करे नन्दानामकी शिलाको नमस्कार है तू यहां आकर प्राप्त हो २ ऐसा कहकर शुध्दमनसे पूजन करे हे नन्दे ! तू मनुष्योंको सदैव आनन्दकी देनेवाली है तेरा इस जगह स्थापन करताहूं ॥४५॥

तू इस प्रासादम जबतक चन्द्रमा और तारागण हैं तबतक स्थिर रहिये और जिससे तू मनुष्योंको सदैव आयु वांछित फ़ल और लक्ष्मीको देती है ॥४६॥

इससे तू इस प्रासादकी रक्षा यत्नसे सदैव रख इनही मन्त्रोंसे फ़िर आग्नेयीदिशामें उसका स्थापन करे ॥४७॥

फ़िर उसी प्रकार नाममंत्र ( भद्रायै नम: ) से भद्रा शिलाका पूजन करै और हे भद्रे ! हे कश्यपकी पुत्रि ! तू लोकोंको सदा भद्र ( कल्याण ) कर ॥४८॥

हे देवि ! तू लोकोंको अवस्था कामना और सिध्दिकी देनेवाली है इस प्रकार मन्त्रको पढकर नैऋतदिशामें स्थापन करै और उसके अनन्तर तिसी प्रकार जया शिलाका ॥४९॥

नाममंत्र और पूर्व कहेहुए मन्त्रोंसे नैवेद्य आदिका अर्पण और पूजन करके हे जये ! तू सदा कल्याणरुप है तुझे स्थापन करताहू सदा स्थिर रहिये ॥५०॥

अपने स्वामीको सदैव शीघ्र जयके देनेवाली हो इस मन्त्रको पढकर उस जया नामकी शिलाको सब अर्थोंकी सिध्दिके लिये वायव्यदिशामें स्थापन करै ॥५१॥

पूर्वकी समान पूजन करके हे पूर्णे ! तू महाविद्यारुप है, संपूर्ण कामनाओंको देनेवाला तेरा स्वरुप है ॥५२॥

इस प्रासादमें सब कार्यको संपूर्णकर इस मन्त्रसे ईशानमें स्थापन करै फ़िर उसके पीछे घरके स्वामीके शुभकी इच्छा करनेवाला पुरुष शिला और इष्टिकाओंके स्तुतिवाक्योंको पढे और बछडा सुवर्ण सहित गौको आचार्यके लिये दे ॥५३॥५४॥

अपनी शक्तिके अनुसार ऋत्विज और शिष्टजनोंको दक्षिणा दे और ज्योतिषी और स्थपतिका विशेषकर पूजन करै ॥५५॥

ब्राम्हणोंको यथाशक्ति भोजन करावै, दीन और अन्धोंको अन्न आदि देकर प्रसन्न करै इस प्रकार वास्तुबलिको करके षोडशभागको लेकर ॥५६॥

उसके मध्यमें चार भागके उसमें गर्भकोकरै और ॥१२॥ साढेबारह भाग उसके चारोंतरफ़ कल्पना करै ॥५७॥

और स्थानके चौथाई भागके प्रमाणसे भित्तियोंको ऊंचाईका प्रमाण रक्खे और भित्तियोंकी ऊंचाईसे दुगुना प्रमाण कितनी शिखरोंकी ऊंचाई रक्खे ॥५८॥

और शिरके आठवें भागसे प्रदक्षिणा बनवानी और चारों दिशाओंमें जो निर्गमके स्थान हैं उनमें वह प्रदक्षिणा जाननी ॥५९॥

भागके दो गर्भ सूत्र मण्डपके विस्तारमें होते हैं उनका आय विभागके अंशोंसे भद्रसे युक्त और अत्यन्त शोभन होता है, गर्भके मानको पांचमें भागसे बुध्दिमान मनुष्य विभाग करके ॥६०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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