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अध्याय ४१

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ४१

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


सहस्त्रानीकने कहा - सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता महाप्राज्ञ मार्कण्डेयजी ! आप भगवान् नृसिंहके प्रादुर्भावकी कथा यथोचित्तरुपसे कहें । अनघ ! भक्तवर प्रह्लादजीका चरित्र मुझे विस्तारपूर्वक सुनायें । महायोगिन् ! महामुने ! हम लोग धन्य हैं; क्योंकि आपकी कृपासे हमें भगवान् विष्णुकी कथारुप दुर्लभ सुधाका पान करनेका अवसर मिला है ॥१ - २ १/२॥

श्रीमार्कण्डेयजी बोले - पूर्वकालमें एक समय वह महाकाय हिरण्यकशिपु जब तपस्या करनेके लिये वनमें जानेको उद्यत हुआ, उस समय समस्त दिशाओंमें दाह और भूकम्प होने लगा । यह देखकर उसके हितकारी बन्धुओं, मित्रों और भृत्योंने उसे मना किया - ' राजन् ! इस समय बुरे शकुन हो रहे हैं । इनका फल अच्छा नहीं है । सौम्य ! आप त्रिभुवनके एकच्छत्र स्वामी हैं, समस्त देवताओंपर आपने विजय प्राप्त की है, आपको किसीसे भय भी नहीं है; फिर किसलिये तप करना चाहते हैं ? हम सभी लोग जब अपनी बुद्धिसे विचारते हैं, तब कोई भी प्रयोजन नहीं दिखायी देता [ जिसके लिये आपको तप करनेकी आवश्यकता हो ]; क्योंकि जिसकी कामना अपूर्ण होती है, वही तपस्या करता है ' ॥३ - ६ १/२॥

अपने बन्धुजनोंके इस प्रकार मना करनेपर भी वह दुर्मद एवं मदमत्त दैत्य अपने दो - तीन मित्रोंको साथ लेकर ( तपके लिये ) कैलास - शिखरको चला ही गया । महीपाल ! वहाँ जाकर जब वह परम दुष्कर तपस्या करने लगा, तब पद्मयोनि ब्रह्माजीको उसके कारण बड़ी चिन्ता हो गयी । वे सोचने लगे - ' अहो ! अब क्या करुँ ? वह दैत्य कैसे तपसे निवृत्त हो ?' भूपाल ! इस चिन्तासे ब्रह्माजी जब व्याकुल हो रहे थे, उसी समय उनके अङ्गसे उत्पन्न मुनिवर नारदजीने उन्हें प्रणाम करके कहा - ॥७ - १०॥

नारदजी बोले - पिताजी ! आप तो भगवान् नारायणके आश्रित हैं, फिर आप क्यों खेद कर रहे हैं ? जिनके हदयमें भगवान् गोविन्द विराजमान हैं, उन्हें इस प्रकार सोच नहीं करना चाहिये । तपस्यामें प्रवृत्त हुए उस दैत्य हिरण्यकशिपुको मैं उससे निवृत्त करुँगा । जगदीश्वर भगवान् नारायण मुझे इसके लिये सुबुद्धि देंगे ॥११ -१२॥

मार्कण्डेयजी बोले - अपने पितासे इस प्रकार कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उन्हें प्रणाम किया और मन - ही - मन भगवान् वासुदेवका स्मरण करते हुए वे पर्वतमुनिके साथ वहाँसे चल दिये । वे दोनों मुनि कलविङ्क पक्षीका रुप धारणकर उस उत्तम कैलास पर्वतपर आये, जहाँ दैत्यश्रेष्ठ हिरण्यकशिपु अपने दो - तीन मित्रोंके साथ रहता था । वहाँ स्नान करके नारदमुनि वृक्षकी शाखापर बैठ गये और उस दैत्यके सुनते - सुनते गम्भीर वाणीमें भगवन्नामका उच्चारण करने लगे । उदारबुद्धि नारद लगातार तीन बार ' ॐ नमो नारायणाय ' - इस मन्त्रका उच्च स्वरसे उच्चारण कर मौन हो गये । भूपाल ! कलविङ्कके द्वारा किये गये उस आदरयुक्त नामकीर्तनको सुनकर हिरण्यकशिपुने कुपित हो धनुष उठाया और उसपर बाणका संधान करके ज्यों ही उन दोनों पक्षियोंके प्रति छोड़ने लगा, त्यों ही नारद और पर्वतमुनि उड़कर अन्यत्र चले गये । महीपते ! तब हिरण्यकशिपु भी क्रोधसे भर गया और उसी समय वह उस आश्रमको त्यागकर अपने नगरको चला आया ॥१३ - १९॥

वहाँ उसी समय उसकी कयाधू नामकी सुन्दरी पत्नी दैवयोगसे रजस्वला होकर ऋतु - स्नाता हुई थी । रात्रिमें एकान्तवासके समय कयाधूने दैत्यराजसे पूछा - ' स्वामिन् ! आप जिस समय तप करनेके लिये घरसे वनको गये थे, उस समय तो आपने यह कहा था कि ' मेरी यह तपस्या दस हजार वर्षोंतक चलेगी ।' फिर महाराज ! आपने अभी क्यों उस व्रतको त्याग दिया ? स्वामिन् ! दैत्यराज ! मैं प्रेमपूर्वक आपसे यह प्रश्न करती हूँ, कृपया मुझे सच - सच बताइये ' ॥२० - २२ १/२॥

हिरण्यकशिपु बोला - सुन्दरि ! सुनो, मैं वह बात तुम्हें सच - सच सुनाता हूँ, जिसके कारण मेरे व्रतका भङ्ग हुआ है । वह बात मेरे क्रोधको अत्यन्त बढ़ानेवाली और देवताओंको आनन्द देनेवाली थी । देवि ! कैलासशिखरपर जो महान् आनन्द - कानन है, उसमें दो पक्षी ' ॐ नमो नारायणाय ' - इस शुभवाणीका उच्चारण करते हुए आ गये । शुभे ! उन्होंने [ मुझे सुना - सुनाकर ] दो बार, तीन बार उक्त वचनको दुहराया । वरानने ! पक्षियोंके उस शब्दको सुनकर मेरे मनमें बड़ा क्रोध हुआ और भामिनि ! उन्हें मारनेके लिये धनुषपर बाण चढ़ाकर ज्यों ही मैंने छोड़ना चाहा, त्यों ही वे दोनों पक्षी भयभीत हो उड़कर अन्यत्र चले गये । तब मैं भी भावीकी प्रबलतासे अपना व्रत त्यागकर यहाँ चला आया ॥२३ - २७॥

मार्कण्डेयजी कहते हैं - [ हिरण्यकशिपु अपनी पत्नीके साथ ] जब इस प्रकार बातें कर रहा था, उसी समय उसका वीर्य स्खलित हुआ; पत्नीका ऋतुकाल तो प्राप्त था ही, तत्काल गर्भ स्थापित हो गया । माताके उदरमें बढ़ते हुए उस गर्भसे बुद्धिमान् नारदजीके उपदेशके कारण विष्णुभक्त पुत्र उत्पन्न हुआ । भूप ! इस प्रसङ्गको आगे कहूँगा; इस समय जो प्रसङ्ग चल रहा है, उसे श्रद्धापूर्वक सुनो । हिरण्यकशिपुका वह भक्त पुत्र प्रह्लाद जन्मस्से ही वैष्णव हुआ । जैसे पापपूर्ण कलियुगमें संसार बन्धनसे मुक्त करनेवाली भगवान श्रीहरिकी भक्ति बढ़ती रहती हैं, उसी प्रकार उस मलिन कर्म करनेवाले असुरवंशमें भी प्रह्लाद निर्मल भावसे रहकर दिनोंदिन बढ़ने लगा । वह बालक त्रिलोकीनाथ भगवान् विष्णुके चरणोंमें बढ़ती हुई भक्तिके साथ ही स्वयं भी बढ़ता हुआ शोभा पा रहा था । शरीर छोटा होनेपर भी उस बालकका हदय महान् था; वह विष्णुभक्तिक प्रसार करता हुआ उसी तरह शोभा पाता था, जैसे चौथा युग ( कलियुग ) [ महत्त्वमें सब युगोंसे छोटा होकर भी ] भगवद्भजनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको देनेवाला तथा यशका विस्तार करनेवाला होता है । प्रह्लाद अन्य बालकोंके साथ खेलते, पहेली बुझाते और खिलौने आदिसे मनोरज्जन करते समय तथा बातचीतके प्रसङ्गमें भी सदा भगवन् विष्णुकी ही चर्चा करता था; क्योंकि उसका स्वभाव भगवन्मय हो गया था । इस प्रकार शैशव - कालमें भी विचित्र कार्य करनेवाला वह प्रह्लाद भगवत्स्मरणरुपी अमृतका पान करता हुआ दिन - दिन बढ़ने लगा ॥२८ - ३४॥

एक दिन बहुत - सी स्त्रियोंके बीचमें बैठे हुए दुष्ट दैत्यराज हिरण्यकशिपुने गुरुजीके घरसे आये हुए कमलसे मुखवाले अपने बालक पुत्र प्रह्लादको देखा; उसकी आँखे बड़ी - बड़ी और सुन्दर थीं तथा वह हाथमें पट्टी लिये हुए था । उसकी पट्टी बड़ी सुन्दर थी, उसके सिरेपर चक्रका चिह्न बना हुआ था और पट्टीपर आदरपूर्वक श्रीकृष्णका नाम लिखा गया था । उसे देख हिरण्यकशिपुको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने पुत्रको पास बुलाकर उसे प्यार करते हुए कहा - ' बेटा ! तुम्हारी बुद्धिमती माता मुझसे तुम्हारी बड़ी प्रशंसा किया करती है । अतः तुमने गुरुजीके घर जो कुछ सीखा है, वह मुझसे कहो । पहले सोच लो, जो तुम्हें बहुत आनन्ददायी प्रतीत होता और भलीभाँति याद हो, वही पाठ सुनाओ ' ॥३५ - ३८॥

यह सुनकर जन्मसे ही विष्णुकी भक्ति करनेवाले प्रह्लादने प्रसन्नतापूर्वक पितासे कहा - ' त्रिभुवनके वन्दनीय भगवान् गोविन्दको प्रणाम करके मैं अपना पढ़ा हुआ पाठ आपको सुनाता हूँ ।' अपने पुत्रके मुखसे इस प्रकार शत्रुकी स्तुति सुनकर स्त्रियोंसे धिरा हुआ वह दुष्ट दैत्य यद्यपि बहुत क्रुद्ध हुआ, तथापि प्रह्लादसे उस क्रोधको छिपानेके लिये वह प्रसन्न पुरुषकी भाँति जोर - जोरसे हँसने लगा । फीर पुत्रको गलेसे लगाकर बोला -'' बच्चा ! मेरा हितकर वचन सुनो - बेटा ! जो लोग ' राम, कृष्ण, गोविन्द्र, विष्णो, माधव, श्रीपते ! ' इस प्रकार कहा करते हैं, वे सभी मेरे शत्रु हैं; ऐसे लोग मेरे द्वारा शासित दण्डित हुए हैं । तुमने यह हरिनामकीर्तन इस अवस्थामें कहाँ सुन लिया ?'' ॥३९ - ४२॥

पिताकी बात सुनकर बुद्धिमान प्रह्लाद निर्भय होकर बोला - आर्य ! आपको कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये । जो मनुष्य सम्पूर्ण ऐश्वर्योंको देनेवाले तथा धर्म आदिकी वृद्धि करनेवाले ' कृष्ण ' इस मन्त्रका उच्चारण करता है, वह अभय पदको प्राप्त कर लेता है । भगवान् कृष्णकी निन्दासे होनेवाले पापका कहीं अन्त नहीं है; अतः अब आप अपनी शुद्धिके लिये भक्तिपूर्वक ' राम, माधव और कृष्ण ' इत्यादि नाम लेते हुए भगवानका स्मरण करें । जो बात मैं आपसे कह रहा हूँ, वह सबसे बढ़कर हितसाधक है, इसीलिये मेरे गुरुजन होनेपर भी आपसे मैं निवेदन करता हूँ कि आप समस्त पापोंका क्षय करनेवाले सर्वेश्वर भगवान् विष्णुकी शरणमें जायँ ॥४३ - ४६॥

प्रह्लादके यों कहनेपर देवशत्रु हिरण्यकशिपु अपने क्रोधको रोक न सका, उसने रोषको प्रकट करके पुत्रको फटकारते हुए कहा - ' हाय ! हाय ! किसने इस बालकको अत्यन्त मध्यम कोटिकी अवस्थाको पहुँचा दिया ? रे दुष्ट पुत्र ! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है ! तूने क्यों मेरा महान् अपराध किया ? ओ दुराचारी नीच पुरुष ! अरे पापिष्ठ ! तू यहाँसे चला जा, चला जा ।' यों कहकर उसने अपने चारों ओर निहारकर फिर कहा - ' नृशंस पराक्रमी क्रूर दैत्य जायँ और इसके गुरुको बाँधकर यहाँ ले आयें ॥४७ - ४८ १/२॥

यह सुन दैत्योंने प्रह्लादके गुरुको वहाँ लाकर उपस्थित कर दिया । बुद्धिमान् गुरुने उस दुष्ट दैत्यराजसे विनयपूर्वक कहा - देवान्तक ! थोड़ा विचार तो कीजिये । आपने समस्त त्रिभुवनको अनायास ही अनेकों बार पराजित किया है, खेल - खेलमें ही सबको जीता है, रोषसे कभी काम नहीं लिया । फिर मुझ - जैसे तुच्छ प्राणीपर क्रोध करनेसे क्या लाभ होगा ? ॥४९ - ५०॥

ब्राह्मणके इस शान्त वचनको सुनकर दैत्यराज बोला - ' अरे पापी ! तूने मेरे बालक पुत्रको विष्णुका स्तोत्र पढ़ा दिया है ।' गुरुसे यों कहकर राजा हिरण्यकशिपुने अपने निर्दोष पुत्रके प्रति सान्त्वनापूर्वक कहा - '' बेटा ! तू मेरा आत्मज है, तुझमें यह जड - बुद्धि कैसे आ सकती है ? यह तो इन ब्राह्मणोंकी ही करतूत है । मूर्ख बालक ! आजसे तू सदा विष्णुकिए पक्षमें रहनेवाले धूर्त ब्राह्मणोंका साथ छोड़ दे, ब्राह्मणमात्रका सङ्ग त्याग दे; ब्राह्मणोंकी संगति अच्छी नहीं होती; क्योंकि इन ब्राह्मणोंने ही तेरे उस तेजको छिपा दिया, जो हमारे कुलके लिये सर्वथा उचित था । जिस पुरुषको जिसकी संगति मिल जाती है, उसमें उसीके गुण आने लगते हैं - ठीक उसी तरह, जैसे मणि कीचड़में पड़ी हो तो उसमें उसके दुर्गन्ध आदि दोष आ जाते हैं । अतः बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि वह अपने कुलकी समृद्धिके लिये आत्मीय जनोंका ही आश्रय ले । बुद्धिहीन बालक ! मेरे पुत्रके लिये तो उचित कर्तव्य यह है कि वह विष्णुके पक्षमें रहनेवाले लोगोंका नाश करे; परंतु तू इस उचित कार्यको त्यागकर इसके विपरीत स्वयं ही विष्णुका भजन कर रहा है ! बता तो सही, क्या यों करते हुए तुझे लज्जा नहीं आती ? अरे ! मुझ सम्पूर्ण जगतके सम्राटका पुत्र होकर तू दूसरेको अपना स्वामी बनाना चाहता है ? बेटा ! मैं तुझे संसारका तत्त्व बताता हूँ, सुन; यहाँ कोई भी अपना स्वामी नहीं है । जो शूरवीर है, वही लक्ष्मीका उपभोग करता है तथा वही प्रभु है, वही महेश्वर है ॥५१ - ५७॥

'' वही सबका अध्यक्ष देवता है, जैसा कि तीनों लोकोंपर विजय पानेवाला मैं हूँ । इसलिये तू अपनी यह जडता त्याग दे और अपने कुलके लिये उचित वीरताका आश्रय ले । तेरी यह कायरता देखकर दूसरे लोग भी तुझे मारेंगे और कहेंगे कि ' अरे ! यह असुर होकर भी देवताओंकी उसी प्रकार स्तुति करता है, जैसे बिल्ली चूहेकी स्तुति करे और मोर अपने द्वेषपात्र सर्पोंकी प्रार्थना करे । ऐसा करना अवश्य ही अनिष्टका सूचक है । मूर्ख प्राणी महान् ऐश्वर्य पाकर भी [ अपने खोटे कर्मोंके द्वारा ] नीचे गिर जाते हैं, जैसे मेरा पुत्र प्रह्लाद, जो स्वयं स्तुतिके योग्य था, आज नीच जनोंकी भाँति उन लोगोंकी स्तुति कर रहा है, जो स्वयं हमारी स्तुति करनेवाली हैं । रे मूर्ख ! तू मेरा ऐश्वर्य देखकर भी मेरे सामने ही हरिका नाम ले रहा है ? वह हरि इस सम्मानके योग्य नहीं है, उसकी स्तुति विडम्बनामात्र है '' ॥५८ - ६१ १/२॥

भूप ! अपने पुत्रसे इस प्रकार कहकर वह इतना कुपित हुआ कि उसका स्वरुप भयानक हो गया; फिर प्रह्लादके गुरुको टेढ़ी नजरसे देखकर उन्हें अपने रोषसे कँपाता हुआ बोला - ' मूर्ख ब्राह्मण ! यहाँसे चला जा, चला जा । अबकी बार मेरे पुत्रको अच्छी शिक्षा देना ।' दुष्ट राजाकी सेवा करनेवाला वह ब्राह्मण ' बड़ी कृपा हुई ' यों कहता हुआ घर चला गया और विष्णुका भजन त्यागकर दैत्यराज ( हिरण्यकशिपु ) - का अनुसरण करने लगा । सच है, लोभी मनुष्य अपना पेट पालनेके लिये क्या नहीं कर सकते ? ॥६२ - ६४॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' नरसिंहावतार ' नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४१॥

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Last Updated : September 22, 2009

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