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अध्याय ३७

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ३७

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


मार्कण्डेयजी बोले - महात्मा भगवान् अच्युतके बहुतसे अवतार हैं, सुतरां उनका विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं किया जा सकता; इसलिये मैं उन्हें संक्षेपसे ही कहता हूँ । यह प्रसिद्ध है कि पूर्वकालमें जगतकी सृष्टि करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तम ' अनन्त ' नामक शेषनागके शरीरकी शय्यापर योगनिद्राका आश्रय लेकर सोये हुए थे । नृप ! कुछ कालके बाद उन गहरी नींदमें सोये हुए देवदेव शार्ङ्गधन्वा विष्णुके कानोंसे पसीनेकी दो बूँदे निकलकर जलमें गिरीं । उन दोनों बूँदोंसे मधु और कैटभ नामके दो दैत्य उत्पन्न हुए, जो महाबली, महान् शक्तिशाली, महापराक्रमी और महाकाय थे । नृपश्रेष्ठ ! इसी समय उन सोये हुए भगवानकी नाभिके बीचमें महान् कमल प्रकट हुआ और उससे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥१ - ५॥

राजन् ! भगवान् विष्णुने ब्रह्माजीसे कहा - ' महामते ! तुम प्रजाजनोंकी सृष्टि करो ।' यह सुन उन कमलोद्भव ब्रह्मजीने ' तथास्तु ' कहकर भगवान् जगन्नाथकी आज्ञा स्वीकार कर ली तथा वेदों और शास्त्रोंकी सहायतासे वे ज्यों ही सृष्टि - रचनाके लिये उद्यत हुए, त्यों ही उनके पास वे दोनों दैत्य - मधु और कैटभ आये । आते ही वे बलाभिमानी घोर दानव क्षणभरमें ब्रह्माजीके वेद और शास्त्र - ज्ञानको लेकर चले गये । राजन् ! तब ब्रह्माजी एक ही क्षणमें ज्ञानशून्य हो दुःखी हो गये और सोचने लगे '' हाय ! अब मैं कैसे प्रजाकी सृष्टि करो ।' परंतु अब तो मैं सृष्टिविज्ञानसे रहित हो गया, अतः किस प्रकार सृष्टिरचना करुँगा ? अहो ! मुझपर यह बहुत बड़ा कष्ट आ पहुँचा ।'' लोकपितामह ब्रह्माजी इस प्रकार चिन्ता करते - करते शोकसे कातर हो गये । वे प्रयत्नपूर्वक वेदशस्त्रोंका स्मरण करने लगे, तथापि उन्हें उनकी स्मृति नहीं हुई । तब वे मन - ही - मन अत्यन्त दुःखी हो, एकाग्रचित्तसे भगवान् पुरुषोत्तमकी शास्त्रानुकूल विधिसे स्तुति करने लगे ॥६ - १२॥

ब्रह्माजी बोले - जो वेद, शास्त्र, विज्ञान और कर्मोंकी निधि हैं, उन ॐकार - प्रतिपाद्य परमेश्वरको मेरा बार - बार नमस्कार है । समस्त विद्याओंको धारण करनेवाले वाणीपति भगवानको प्रणाम है । अचिन्त्य एवं सर्वज्ञ परमेश्वरको नित्य बारंबार नमस्कार है । महाबाहो अधोक्षज ! आप निराकार एवं यज्ञस्वरुप हैं । आ साममूर्ति एवं सदा सर्वरुपधारी हैं । अच्युत ! आप सर्वज्ञानमय हैं; आप सबके हदयमें ज्ञानरुपमें विराजमान हैं । देवदेव ! आप मुझे सब प्रकारका ज्ञान दीजिये; आपको बारंबार नमस्कार है ॥१३ - १६॥

मार्कण्डेयजी बोले - ब्रह्माजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवेश्वर विष्णुने उनस्से कहा - ' मै तुम्हें उत्तम ज्ञान प्रदान करुँगा ।' राजन् ! भगवान् विष्णु यों कहकर तब सोचने लगे - ' कौन इसका विज्ञान हर ले गया और किस रुपसे उसने उसे धारण कर रखा है ? ' भूपाल ! अन्तमें यह जानकर कि यह सब मधु और कैटभकी करतूत है, भगवान् जनार्दनने अनेकों योजन लंबा - चौड़ा पूर्णज्ञानमय मत्स्यरुप धारण किया । फीर मत्स्यरुपधारी हरिने तुरंत ही जलमें प्रविष्ट होकर उसे क्षुब्ध कर डाला और भीतर - ही - भीतर पाताललोकमें पहुँचकर मधु तथा कैटभको देखा । तब मुनियोंद्वारा स्तवन किये जानेपर भगवान् मधुसूदनने मधु और कैटभ - दोनोंको मोहितकर वह वेदशास्त्रमय ज्ञान ले लिया और उसे ले आकर ब्रह्माजीको दे दिया । राजन् ! तत्पश्चात् वे भगवान् उस मत्स्यरुपको त्यागकर जगतके हितके लिये पुनः योगनिद्रामें स्थित हो गये ॥१७ - २२॥

तदनन्तर मोह निवृत्त होनेपर [ वेद - शास्त्रको न देख ] मधु तथा कैटभ - दोनों ही बहुत कुपित हुए और वहाँसे आकर उन्होंने अविनाशी भगवान् विष्णुको सोते देखा । तब वे परस्पर कहने लगे - ' यह वही धूर्त पुरुष है, जिसने हम दोनोंको मायासे मोहित करके वेदशास्त्रोंको ले आकर ब्रह्माको दे दिया और अब यहाँ साधुकी भाँति सो रहा है । ' राजन् ! यों कहकर उन महाघोर दानव मधु और कैटभने वहाँ सोये हुए भगवान् केशवको तत्काल जगाया और कहा - ' महामते ! हम दोनों यहाँ तुम्हारे साथ युद्ध करने आये हैं; तुम हमें संग्रामकी भिक्षा दो और अभी उठकर हमसे युद्ध करो ' ॥२३ - २६॥

नृपवर ! उनके इस प्रकार कहनेपर देवदेव भगवानने ' बहुत अच्छा ' कहकर अपने शार्ङ्ग धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी । उस समय भगवान् माधवने लीलापूर्वक धनुषकी टंकार और शङ्खनादसे आकाश, दिशाओं और अवान्तरदिशाओं ( कोणों ) - को भर दिया ॥२७ - २८॥

राजन् ! फिर उन महापराक्रमी महाभयानक मधु और कैटभने भी उस समय अपनी प्रत्यञ्चको टंकार दी और वे भगवान् विष्णुके साथ युद्ध करने लगे । जगत्पत्ति भगवान् विष्णु भी लीलास्से ही उनके साथ युद्ध करने लगे । इस प्रकार परस्पर अस्त्र - शास्त्रका प्रहार करते हुए उन दोनों पक्षोंमें समानरुपसे युद्ध हुआ । भगवान् विष्णुने अपने शार्ङ्ग धनुषद्वारा छोड़े हुए सर्पके समान तीखे बाणोंसे उन दैत्योंके समस्त अस्त्र - शस्त्र तिलकी भाँति टुकड़े - टुकड़े कर डाले । वे दोनों उन्मत्त दानव - मधु और कैटभ चिरकालतक भगवानके साथ लड़कर अन्तमें उनके शार्ङ्ग धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा मारे गये । राजन् ! तब श्रीविष्णुभगवानने उन दोनों दैत्योंके मेदेसे इस पृथ्वीका निर्माण किया । इसीसे इस वसुंधराका नाम ' मेदिनी ' हुआ ॥२९ - ३३॥

भूपाल ! इस प्रकार भगवान् विष्णुकी कृपासे वेदोंको प्राप्तकर प्रजापति ब्रह्माजीने वेदोक्त विधिसे प्रजाकी सृष्टि की । नृप ! जो भगवानकी इस अवतार - कथाका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह [ शरीर - त्यागके बाद ] चन्द्रलोकमें निवास करके [ पुनः इस लोकमें ] वेदवेत्ता ब्राह्मण होता है । भूमिपाल ! जो भगवान् विष्णु लोकहितके लिये पर्वतके समान भीमकाय मत्स्यरुप धारणकर जनलोकनिवासियोंद्वारा स्तुत हुए थे, उनका ही तुम सदा स्मरण करो ॥३४ - ३६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' मत्स्यावतार ' नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३७॥

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Last Updated : September 18, 2009

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