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अध्याय ७

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ७

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीभरद्वाजजी बोले - सूतजी ! मार्कण्डेयमुनिने मृत्युको कैसे पराजित किया ? यह मुझे बताइये । आपने पहले यह सूचित किया था कि वे मृत्युपर विजयी हुए थे ॥१॥

सूतजी बोले - भरद्वाजजी ! इस महान् पुरातन इतिहासको आप और ये सभी ऋषि सुनें; मैं कह रहा हूँ । अत्यन्त पवित्र कुरुक्षेत्रमें, व्यासपीठपर, एक सुन्दर आश्रममें स्नान तथा जप आदि समाप्त करके व्यासासनपर बैठे हुए और शिष्यभूत मुनियोंसे धिरे हुए मुनिवर महर्षि कृष्णद्वैपायनसे, जो वेद और वेदार्थोंके तत्त्ववेता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ थे, परम धर्मात्मा शुकदेवजीने हाथ जोड़ उन्हें यथोचितरुपसे प्रणाम कर इसी विषयको जाननेके लिये प्रश्न किया था, जिसके लिये कि इन मुनियोंके निकट आप पुण्यतीर्थनिवासी नृसिंहभक्तने मुझसे पूछा है ॥२ - ६॥

श्रीशुकदेवजी बोले - पिताजी ! मार्कण्डेय मुनिने मृत्युपर कैसे विजय पायी ? यह कथा कहिये । इस समय मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ ॥७॥

व्यासजी बोले - महामते पुत्र ! मार्कण्डेय मुनिने जिस प्रकार मृत्युपर विजय पायी, वह तुमसे कहता हूँ, सुनो ! मुझसे कहे जानेवाले इस महान् एवं उत्तम उपाख्यानको ये सभी मुनि और मेरे शिष्यगण भी सुनें । भृगुजीके उनकी पत्नी ख्यातिके गर्भसे ' मृकण्डु ' नामक एक पुत्र हुआ । महात्मा मृकण्डुकी पत्नी सुमित्रा हुई । वह धर्मको जाननेवाली, धर्मपरायणा और पतिकी सेवामें लगी रहनेवाली थी । इसीके गर्भसे मृकण्डुके पुत्र मेधानी मार्कण्डेयजी हुए । ये भृगुके पौत्र महाभाग मार्कण्डेय बचपनमें भी बड़े बुद्धिमान् थे । पिताके द्वारा जातकर्म आदि संस्कार कर देनेपर माँ - बापके लाड़ले बालक मार्कण्डेयजी क्रमशः बढ़ने लगे ॥८ - १२॥

उनके जन्म लेते ही किसी भविष्यवेत्ता ज्योतिषीने यह कहा था कि ' बारहवाँ ' वर्ष पूर्ण होते ही इस बालककी मृत्यु हो जायगी ।' यह सुनकर उनके मातापिता बहुत ही दुःखी हुए । महामते ! उन्हें देख - देखकर उन दोनोंका हदय व्यथित होता रहता था, तथापि उनके पिताने उनके नामकरण आदि सभी संस्कार किये । तत्पश्चात् मेधावी बालक मार्कण्डेय गुरुके घर ले जाये गये । वहाँ उनका उपनयन - संस्कार हुआ । वहाँ वे गुरुकी सेवामें तत्पर रहकर वेदाभ्यास करते हुए ही रहने लगे । वेदशास्त्रोंका यथावत् अध्ययन करके वे पुनः अपने घर लौट आये । घर आनेपर बुद्धिमान् महामुनि मार्कण्डेयने विनयपूर्वक माता - पिताके चरणोंमें शीश झुकाया और तबसे वे घरपर ही रहने लगे ॥१३ - १७॥

शुक्रदेव ! उस समय उन परम बुद्धिमान् महात्मा एवं विद्वान पुत्रको देखकर माता - पिता शोकसे बहुत ही दुःखी हुए । उन्हें दुःखी रहा करती हो ? मैं पूछता हूँ, मुझसे अपने दुःखका कारण बतलाओ ।' अपने पुत्र मार्कण्डेयजीके इस प्रकार पूछनेपर उन महात्माकी माताने, ज्योतिषी जो कुछ कह गया था, वह सब कह सुनाया । यह सुनकर मार्कण्डेयमुनिने माता - पितासे कहा - ' माँ ! तुम और पिताजी तनिक भी दुःख न मानो । मैं तपस्याके द्वारा अपनी मृत्युको दूर हटा दूँगा, इसमें संशय नहीं है । मैं ऐसा तप करुँगा, जिससे चिरजीवी हो सकूँ ॥१८ - २३॥

इस प्रकार कहकर, माता - पिताको आश्वासन देकर, वे अनेक ऋषियोंसे सुसेवित ' वल्लीवट ' नामक वनमें गये । वहाँ पहुँचकर महामति मार्कण्डेयजीने मुनियोंके साथ विराजमान अपने पितामह धर्मात्मा भृगुजीका दर्शन किया । उनके साथ ही अन्य ऋषियोंका भी यथोचित अभिवादन करके धर्मपरायण मार्कण्डेयजी मनोनिग्रहपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर भृगुजीके समक्ष खड़े हो गये । महामति भृगुजीने अपने बालक पौत्र महाभाग मार्कण्डेयको, जिसकी आयु प्रायः बीत चुकी थी, देखकर कहा - ' वत्स ! तुम यहाँ कैसे आये ? अपने माता - पिता और बान्धवजनोंका कुशल कहो तथा यह भी बतलाओ कि यहाँ तुम्हारे आनेका क्या कारण है ?' भृगुजीके इस प्रकार पूछनेपर महाप्राज्ञ मार्कण्डेयजीने उनसे उस समय ज्योतिषीकी कही हुई सारी बात कह सुनायी । पौत्रकी बात सुनकर भृगुजीने पुनः कहा - ' महाबुद्धे ! ऐसी स्थितिमें तुम कौनसा कर्म करना चाहते हो ?' ॥२४ - ३०॥

मार्कण्डेयजी बोले - भगवन् ! मैं इस समय प्राणियोंका अपहरण करनेवाले मृत्युको जीतना चाहता हूँ, इसीलिये आपकी शरणमें आया हूँ । इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये आप मुझे कोई उपाय बतायें ॥३१॥

भृगुजी बोले - पुत्र ! बहुत बड़ी तपस्याके द्वारा भगवान् नारायणकी आराधना किये बिना कौन मृत्युको जीत सकता है ? इसलिये तुम तपस्याद्वारा उन्हींका अर्चन करो । भक्तोंके प्रियतम और देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ उन अनन्त, अजन्मा, अच्युत पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ । वत्स ! पूर्वकालमें नारदमुनि भी महान् तपके द्वारा उन्हीं अनामय भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ । वत्स ! पूर्वकालमें नारदमुनि भी महान् तपके द्वारा उन्हीं अनामय भगवान् नारायणकी शरणमें गये थे । महाभाग ! ब्रह्मपुत्र नारदजी उन्हींकी कृपासे जरा और मृत्युको शीघ्र ही जीतकर दीर्घायु हो सुखपूर्वक रहते हैं । पुत्न ! उन कमललोचन नृसिंहस्वरुप भगवान् जनार्दनके बिना कौन मनुष्य यहाँ मृत्युकी सत्ताका निवारण कर सकता है ? तुम निरन्तर उन्हीं अनन्त, अजन्मा, विजयी, कृष्णवर्ण, लक्ष्मीपति, गोविन्द, गोपति भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ ! वत्स ! यदि तुम सदा उन महान् देवता भगवान् नरसिंहकी पूजा करते रहोगे तो सदाके लिये मृत्युपर विजय प्राप्त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है ॥३२ - ३८॥

व्यासजी बोले - पितामह भृगुके इस प्रकार कहनेपर महान् तेजस्वी मार्कण्डेयजीने उनसे विनयपूर्वक कहा ॥३९॥

मार्कण्डेयजी बोले - तात ! गुरो ! आपने विश्वपति भगवान् विष्णुको आराध्य तो बतलाया, परंतु मैं उन अच्युतकी आराधना कहाँ और किस प्रकार करुँ ? जिससे वे शीघ्र प्रसन्न होकर मेरी मृत्युको दूर कर दें ॥४०॥

भृगुजी बोले - सह्यपर्वतपर जो ' तुङ्गभद्रा ' नामसे विख्यात नदी है, वहाँ ' भद्रवट ' नामक वृक्षके नीचे जगन्नाथ भगवान् केशवकी स्थापना कर क्रमशः गन्ध और पुष्प आदिसे उनकी पूजा करो । इन्द्रियोंको मनमें नियन्त्रित कर, मनको भी पूर्णतः संयममें रखते हुए एकाग्रचित हो, ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ' - इस द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करो और अपने हदयकमलमें शङ्ख, चक्र, गदा ( एवं पद्म ) धारण किये देवेश्वर भगवान् विष्णुका ध्यान किया करो । जो देवाधिदेव शाङ्गधन्वा विष्णुके इस द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करता है, उसके ऊपर वे विश्वात्मा प्रसन्न होते हैं । तुम भी इसका जप करो, जिससे प्रसन्न होकर वे तुम्हारी मृत्यु दूर कर देंगे ॥४१ - ४४॥

व्यासजी कहते हैं - वत्स ! भृगुजीके इस प्रकार कहनेपर उन्हें प्रणाम करके मार्कण्डेयजी सह्यपर्वतकी शाखासे निकली हुई तुङ्गभद्राके उत्तम तटपर विविध प्रकारके वृक्ष और लताओंसे भरे हुए नाना भाँतिके पुष्पोंसे सुशोभित, गुल्म, लता और वेणुओंसे व्याप्त तथा अनेकानेक मुनिजनोसें पूर्ण तपोवनमें गये । वहाँ वे महामुनिने देवेश्वर भगवान् विष्णुकी स्थापना करके क्रमशः गन्धधूप आदिसे उनकी पूजा करने लगे । भगवानकी पूजा करते हुए वहाँ उन्होंने पूजा करने लगे । भगवानकी पूजा करते हुए वहाँ उन्होंने निरालस्यभावसे निराहार रहकर सालभर अत्यन्त दुष्कर तप किया । माताका बतलाया हुआ समय निकट आनेपर उस दिन महामति मार्कण्डेयजीने वहाँ स्नान करके पूर्वोक्त विधिसे विष्णुकी पूजा की और स्वस्तिकासन बाँध इन्द्रियसमूहको मनमें संयत कर विशुद्ध अन्तः करणसे युक्त हो प्राणायाम किया । फिर ॐ कारके उच्चारणसे हदयकमलको विकसित करते हुए उसके मध्यभागमें क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्निमण्डलकी कल्पना करके भगवान् विष्णुका पीठ निश्चित किया और उस स्थानपर पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा धारण करनेवाले सनातन भगवान् श्रीकृष्णकी भावमय पुष्पोंसे पूजा करके उनमें चितको लगा दिया । फिर उन ब्रह्मस्वरुप श्रीहरिका ध्यान करते हुए वे ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ' - इस मन्त्रका जप करने लगे ॥४५ - ५४॥

व्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! इस प्रकार ध्यान करते हुए बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीका मन उन देवाधिदेव जगदीश्वरमें लीन हो गया । तदनन्तर यमराजकी आज्ञासे उन्हें ले जानेके लिये हाथोंमें पाश लिये हुए यमदूत वहाँ आये; परंतु भगवान् विष्णुके दूतोंने उन्हें मार भगाया । शूलोंसे मारे जानेपर वे उस समय विप्रवर मार्कण्डेयको छोड़कर भाग चले और यह कहते गये कि ' हमलोग तो लौटकर चले जा रहे हैं, परंतु अब साक्षात् मृत्युदेव ही यहाँ आयेंगे ' ॥५५ - ५७॥

विष्णुदूत बोले - जहाँ हमारे स्वामी जगदीश्वर शार्ङ्गधन्वा भगवान् विष्णुका नाम जपा जाता हो, वहाँ उनकी क्या बिसात है ? ग्रसनेवालोमें श्रेष्ठ काल, मृत्यु अथवा यमराज कौन होते हैं ? ॥५८॥

व्यासजी कहते हैं - यमदूतोंके लौटनेके बाद साक्षात् मृत्युने ही वहाँ आकर उन्हें यमलोक चलनेको कहा, परंतु श्रीविष्णुदूतोंके डरसे वे महात्मा मार्कण्डेयके आसपास ही घूमते रह गये; उन्हें स्पर्श करनेका साहन न कर सके । इधर विष्णुदूत भी शीघ्र ही लोहेके मूसल उठाकर खड़े हो गये । उन्होंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया था कि ' आज हमलोग विष्णुकी आज्ञासे मृत्युका वध कर डालेंगे ।' तत्पश्चात् महामति मार्कण्डेयजी भगवान् विष्णुमें चित्त लगाये उन देवाधिदेव जनार्दनको प्रणाम करते हुए स्तुति करने लगे । भगवान् विष्णुने ही वह स्तोत्र उन महात्माके कानमें कह दिया । उसी सुभाषित स्तोत्रद्वारा उन्होंने मनोयोगपूर्वक भगवान् लक्ष्मीपतिकी स्तुति की ॥५९ - ६२॥

मार्कण्डेयजी बोले - जो सहस्रों नेत्रोंसे युक्त, इन्द्रियोंके स्वामी, पुरातन पुरुष तथा पद्मनाभ ( अपनी नाभिसे ब्रह्माण्डमय कमलको प्रकट करनेवाले ) हैं, उन श्रीनारायणदेवको मैं प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगा ? मैं अनन्त, अजन्मा, अविकारी, गोविन्द, कमलनयन भगवान् केशवकी शरणमें आ गया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या करेगा ? मैं संसारकी उत्पत्तिके स्थान, सूर्यके समान प्रकाशमान् , इन्द्रियातील वासुदेव ( सर्वव्यापी देवता ) भगवान् दामोदरकी शरणमें आ गया हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ?

जिनका स्वरुप अव्यक्त है, जो विकारोंसे रहित हैं, उन शङ्ख - चक्रधारी भगवान् अधोक्षजकी मैं शरणमें आ गया; मृत्यु मेरा क्या कर लेगा ? मैं वाराह, वामन, विष्णु, नरसिंह, जनार्दन एवं माधवकी शरणमें हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ? मैं पवित्र, पुष्कररुप अथवा पुष्कल ( पूर्ण ) रुप, कल्याणबीज, जगत् - प्रतिपालक एवं लोकनाथ भगवान् पुरुषोत्तमकी शरणमें आ गया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या करेगा ? जो समस्त भूतोंके आत्मा, महात्मा ( परमात्मा ) एवं जगतकी योनि ( उत्पत्तिके स्थान ) होते हुए भी स्वयं अयोनिज हैं, उन भगवान् विश्वरुपकी मैं शरणमें आया हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ? जिनके सहस्त्रों मस्तक हैं, जो व्यक्ताव्यक्त स्वरुप हैं, उन महायोगी सनातन देवकी मैं शरणमें आया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ? ॥६३ - ७०॥

महात्मा मार्कण्डेयके द्वारा उच्चारित हुए उस स्तोत्रको सुनकर विष्णुदूतोंद्वारा पीड़ित हुए मृत्युदेव वहाँसे भाग चले । इस प्रकार बुद्धिमान् मार्कण्डेयने मृत्युपर विजय पायी । सच है, कमललोचन भगवान् नृसिंहके प्रसन्न होनेपर कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता । स्वयं भगवान् विष्णुने ही मार्कण्डेयजीके हितके लिये मृत्युको शान्त करनेवाले इस परम पावन मङ्गलमय मृत्युञ्जय - स्तोत्रका उपदेश दिया था । जो नित्य नियमपूर्वक पवित्रभावसे भक्तियुक्त होकर सायं, प्रातः और मध्याह्न - तीनों समय इस स्तोत्रका पाठ करता है, भगवान् अच्युतमें चित्त लगानेवाले उस पुरुषका अकालमरण नहीं होता । योगी मार्कण्डेयने अपने हदय - कमलमें सूर्यसे भी अधिक प्रकाशमान सनातन पुराण - पुरुष आदिदेव नारायणका चिन्तन करके तत्काल मृत्युपर विजय प्राप्त कर ली ॥७१ - ७५॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' मार्कण्डेयकी मृत्युपर विजय ' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७॥

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Last Updated : July 25, 2009

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