हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|श्रीनरसिंहपुराण|
अध्याय ४७

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ४७

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीमार्कण्डेयजी बोले - राजन् ! अब मैं भगवान् विष्णुके उस शुभ अवतारका वर्णन करुँगा, जिसके द्वारा देवताओंके लिये कण्टकस्वरुप रावण अपने गणोंसहित मारा गया । तुम [ ध्यान देकर ] सुनो ॥१॥

ब्रह्माजीके मानस पुत्र जो महामुनि पुलस्त्यजी हैं, उनके ' विश्रवा ' पुत्र हुआ । विश्रवाका पुत्र राक्षस रावण हुआ । समस्त लोकोंको रुलानेवाला महावीर रावण विश्रवासे ही उत्पन्न हुआ था । वह महान् तपसे युक्त होकर समस्त लोकोंपर धावा करने लगा । राजन् ! उसने इन्द्रसहित समस्त देवताओं, गन्धर्वों और किंनरोंको जीत लिया तथा यक्षों और दानवोंको भी अपने वशीभूत कर लिया । नृपश्रेष्ठ ! उस दुरात्माने देवता आदिकी सुन्दरी स्त्रियाँ और नाना प्रकारके रत्न भी हर लिये । बलाभिमानी रावणने युद्धमें कुबेरको जीतकर उनकी पुरी लङ्का और पुष्पक विमानपर भी अधिकार जमा लिया ॥२ - ६॥

उस लङ्कापुरीमें दशमुख रावण राक्षसोंका राजा हुआ । उसके अनेक पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपरिमित बलसे सम्पन्न थे । राजन् ! लङ्कामें जो कई करोड़ महाबली और पराक्रमी राक्षस निवास करते थे, वे सभी रावणका सहारा लेकर देवता, पितर, मनुष्य, विद्याधर और यक्षोंका दिन - रात संहार किया करते थे । नराधिप ! समस्त चराचर जगत् उसके भयसे भीत और अत्यन्त दुःखी हो गया था ॥७ - १०॥

नरेश ! इसी समय जिनका पुरुषार्थ प्रतिहत हो गया था, वे इन्द्रसहित समस्त देवता, महर्षि, सिद्ध, विद्याधर, गन्धर्व, किंनर, गुह्यक, सर्प, यक्ष तथा जो अन्य स्वर्गवासी थे, वे ब्रह्मा और शङ्करजीको आगे करके क्षीरसागरके उत्तम तटपर गये । वहाँ उस समय देवतालोग भगवानकी आराधना करके हाथ जोड़कर खड़े हो गये । फिर ब्रह्माजीने गन्ध - पुष्प आदि सुन्दर उपचारोंद्वारा भगवान् वासुदेव विष्णुकी आराधना की और हाथ जोड़, प्रणाम करके वे उनकी स्तुति करने लगे ॥११ - १४॥

ब्रह्माजी बोले - जो क्षीरसागरमें निवास करते हैं, सर्पकी शय्यापर सोते हैं, जिनके दिव्य चरण भगवती श्रीलक्ष्मीजीके कर - कमलोंद्वारा सहलाये जाते हैं, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार है । योग ही जिनकी निद्रा है, योगके द्वारा अन्तःकरणमें जिनका ध्यान किया जाता है और जो गरुडजीके ऊपर आसीन होते हैं, उन आप भगवान् गोवन्दको नमस्कार है । क्षीरसागरकी लहरें जिनके शरीरका स्पर्श करती हैं, जो ' शार्ङ्ग ' नामक धनुष धारण करते हैं, जिनके चरण कमलके समान हैं तथा जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार है । जिनके सुन्दर चरण भक्तोंद्वारा पूजित हैं, जिन्हें योग प्रिय है तथा जिनके अङ्ग और नेत्र सुन्दर हैं, उन भगवान् लक्ष्मीपतिको बारंबार नमस्कार है । जिनके केश, नेत्र, ललाट, मुख और कान बहुत ही सुन्दर हैं, उन चक्रपाणि भगवान् श्रीधरको प्रणाम है । जिनके वक्षः स्थल और नाभि मनोहर हैं, उन भगवान् पद्मनाभको नमस्कार है । जिनकी भौंहें सुन्दर, शरीर मनोहर और दाँत उज्ज्वल हैं, उन भगवान् शार्ङ्गधन्वाको प्रणाम है । रुचिर पिंडलियोंवाले दिव्यरुपधारी भगवान् केशवको नमस्कार है । जो सुन्दर नखोंवाले, परमशान्त और सद्विद्याओंके आश्रय हैं, उन भगवान् गदाधरको नमस्कार है । धर्मप्रिय भगवान् वामनको बारंबार प्रणाम है । असुर और राक्षसोंके हन्ता उग्र ( नृसिंह ) - रुपधारी भगवानको नमस्कार है । देवताओंकी पीड़ा हरनेके लिये भयंकर कर्म करनेवाले तथा रावणके संहारक आप भगवान् जगन्नाथको प्रणाम है ॥१५ - २३॥

मार्कण्डेयजी कहते हैं - ब्रह्माजीके द्वारा इस प्रकार स्तुति की जानेपर भगवान् हषीकेश प्रसन्न हो गये और अपना स्वरुप प्रत्यक्ष दिखाकर वे भगवान् ब्रह्माजीसे बोले - ' पितामह ! तुम देवताओंके साथ किसलिये यहाँ आये हो ? ब्रह्मन् ! जो कार्य आ पड़ा हो और जिसके लिये तुमने मेरी स्तुति की है, वह बताओ ।' समस्त लोकोंकी उत्पन्न करनेवाले भगवान् विष्णुके द्वारा इस प्रकार प्रश्न किये जानेपर सम्पूर्ण देवगणोंके साथ विराजमान ब्रह्माजीने उन जनार्दनसे कहा ॥२४ - २६॥

ब्रह्माजी बोले - विभो ! दुरात्मा रावणने समस्त जगतमें भीषण संहार मचा रखा है । उस राक्षसने इन्द्रसहित देवताओंको कई बार परास्त किया है । रावणके पार्श्ववर्ती राक्षसोंने असंख्य मनुष्योंको खा लिया और उनके यज्ञोंको दूषित कर दिया है । स्वयं रावणने सैकड़ों - हजारों देवकन्याओंका अपहरण किया है । कमलनयन ! चूँकि आपको छोड़कर दूसरे देवता रावणका वध करनेमें समर्थ नही हैं, अतः आप ही उसका वध करें ॥२७ - २९॥

ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर भगवान् विष्णु उनसे यों बोले - ' ब्रह्मन ! मैं तुम लोगोंके हितके लिये जो बात कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो । पृथ्वीपर सूर्यवंशमें उत्पन्न श्रीमान् दशरथ नामसे प्रसिद्ध जो पराक्रमी राजा है, मैं उन्हींका पुत्र होऊँगा । सत्तम ! रावणका वध करनेके लिये मैं अंशतः चार स्वरुपोंमें प्रकट होऊँगा । विश्वस्त्रष्टा ब्रह्माजी ! आप सभी देवताओंको आदेश दें कि वे अपने - अपने अंशसे वानररुपमें अवतीर्ण हों । इस प्रकार करनेसे ही रावणका संहार होगा ।' देवदेव भगवानके यों कहनेपर लोक - पितामह ब्रह्माजी तथा अन्य देवता उनको प्रणाम करके मेरुशिखरपर चले गये और पृथ्वीतलपर अपने - अपने अंशसे वानररुपमें अवतीर्ण हुए ॥३० - ३४॥

तदनन्तर पुत्रहीन राजा दशरथने वेदके पारगामी मुनियोंद्वारा पुत्रकी प्राप्ति करानेवाले ' पुत्रेष्टि ' नामक यज्ञका अनुष्ठान कराया । तब भगवानकी प्रेरणासे अग्निदेव सुवर्णपात्रमें रखी हुई होमकी खीर हाथमें लिये कुण्डसे प्रकट हुए । मुनियोंने वह खीर ले ली और मन्त्र पढ़ते हुए उसके दो सुन्दर पिण्ड बनाये । उन्हें मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर उन दोनों पिण्डोंको कौसल्या तथा कैकेयीके हाथमें दे दिया । महामते ! पिण्ड - भोजनके समय उन दोनों रानियोंने दोनों पिण्डोंमेंसे थोड़ा - थोड़ा निकालकर सौभाग्यवती सुमित्राको दे दिया । फिर उन तीनों रानियोंने विधिपूर्वक उन क्षीरपिण्डोंका भोजन किया । उन देवनिर्मित पिण्डोंका भक्षण करनेके कारण उन सभी रानियोंने उत्तम गर्भ धारण किये ॥३५ - ३९॥

पृथ्वीनाथ ! इस प्रकार भगवान् विष्णु लोकहितके लिये ही राजा दशरथसे उनकी तीनों रानियोंके गर्भसे अपने चार अंशोंद्वारा वे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्य्न नामक चार रुप धारण करके प्रकट हुए । मुनियोंद्वारा जातकर्मादि संस्कर हो जानेपर वे मन्त्रयुक्त पिण्डके अनुसार दो - दो एक साथ रहते हुए सामान्य बालकोंकी भाँति विचरने लगे । इनमें राम और लक्ष्मण सदा एक साथ रहते थे । नरपाल ! जातकर्मादि संस्कारोंमे सम्पन्न हो, वे दोनों महान् शक्तिशाली भाई पिताकी प्रसन्नता बढ़ाते हुए बढ़ने लगे । उनके शुभ लक्षण अश्रुतपूर्व एवं वर्णनातीत थे । अथवा वे वेद और व्याकरणादि शास्त्रोंमें पारंगत होनेके शुभलक्षणसे सुशोभित थे । राजन् ! कैकेयीनन्दन भरत अपने अनुज शत्रुघ्नके साथ प्रायः घरपर ही रहते थे । नृपोत्तम ! उन्होंने वेदशास्त्र और अस्त्रविद्या भी सीख ली थी ॥४० - ४४॥

इन्हीं दिनों महातपस्वी विश्वामित्रजीने यज्ञविधिसे भगवान् मधुसूदनका यजन आरम्भ किया । परंतु पहले उस यज्ञमें बहुत बार राक्षसोद्वारा विघ्न डाला गया था, नृपश्रेष्ठ ! इसलिये इस बार विश्वामित्रजी यज्ञकी रक्षाके लिये राम तथा लक्ष्मणको ले जानेके निमित्त उनके पिताके सुन्दर महलमें आये । महाबुद्धिमान् दशरथजी उन्हें देखकर उठ खड़े हुए और अर्घ्य - पाद्यादि उपचारोंद्वारा उन्होंने विधिवत् उनकी पूजा की । इस प्रकार उनके द्वारा सम्मानित हो, मुनिने अन्य राजाओंके निकट विराजमान राजा दशरथसे कहा - ' राजसिंह महाराज दशरथ ! सुनो - मैं जिस कार्यके लिये आया हूँ, वह तुम्हारे सामने निवेदन करता हूँ । मेरे यज्ञको दुर्धर्ष राक्षसोंने अनेक बार नष्ट किया है; अतः उसकी रक्षाके लिये तुम राम और लक्ष्मणको मुझे दे दो ' ॥४५ - ५०॥

नरेश्वर ! विश्वामित्रजीकी बात सुननेपर राजा दशरथके मुखपर विषाद छा गया । वे उनसे बोले - ' भगवन् ! मेरे ये दोनों पुत्र अभी बालक हैं । इनसे आपका कौनसा कार्य सिद्ध होगा ? मैं स्वयं आपके साथ चलकर यथाशक्ति यज्ञकी रक्षा करुँगा ।' राजाकी बात सुनकर मुनि उनसे बोले - ' नरपाल ! राम भी उन सब राक्षसोंका नाश कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है । सच तो यह है कि रामके द्वारा ही वे राक्षस मारे जा सकते हैं, तुम्हारे द्वारा नहीं; अतः राजन् ! तुम्हें रामको ही मुझे दे देना चाहिये और किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ' ॥५१ - ५४॥

बुद्धिमान् विश्वामित्रमुनिके द्वारा यों कहे जानेपर राजा क्षणभरके लिये चुप हो गये और फिर उन मुनीश्वरसे बोले - ' मुनिश्रेष्ठ ! मैं जो कह रहा हूँ, उसे आप प्रसन्नतापूर्वक सुनें । मैं कमललोचन रामको लक्ष्मणके सहित आपको दे तो दूँगा, परंतु ब्रह्मन् ! इनकी माता इन्हें देखे बिना मर जायगी । इसलिये मुने ! मेरा ऐसा विचार है कि मैं स्वयं ही चतुरङ्गिणी सेनाके साथ चलकर सब राक्षसोंका वध करुँ ' ॥५५ - ५७ १/२॥

विश्रामित्रजी यह सुनकर उन अमित - तेजस्वी राजासे पुनः बोले - ' नृपश्रेष्ठ ! रामचन्द्र अबोध नहीं हैं; वे सर्वज्ञ, समदर्शी और परम समर्थ हैं । इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे ये दोनों पुत्र राम और लक्ष्मण साक्षात् नारायण एवं शेषनाग हैं । नराधिप ! दुष्टोंको दण्ड देने और सत्पुरुषोंकी रक्षा करनेके लिये ही ये दोनो आपके घरमें अवतीर्ण हुए हैं, इसमें संदेह नहीं है । राजन् ! इनकी माता तथा आपको इस विषयमें थोड़ी - सी भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । महाराज ! ये मेरे पास धरोहरके तौरपर रहेंगे । यज्ञ पूर्ण हो जानेपर मैं इन दोनोंको आपके हाथमें दे दूँगा ' ॥५८ - ६१॥

बुद्धिमान् विश्वामित्रजीके यों कहनेपर दशरथजी मन - ही - मन उनके शापसे डरते हुए बोले - ' अच्छा, इन्हें ले जाइये ।' राजन् ! पिताके द्वारा बड़ी कठिनाईसे छोड़े गये श्रीराम और लक्ष्मणको साथ ले विश्वामित्र मुनि तब अपने सिद्धाश्रमकी ओर प्रस्थित हुए । उन्हें जाते देख उस समय राजा दशरथ कुछ दूर पीछे - पीछे गये और तब मुनिसे इस प्रकार बोले - ' साधुश्रेष्ठ ! ब्रह्मन् ! मैं पहले दीर्घकालतक पुत्रहीन रहा; मुनियोंकी कृपासे अनेक सकाम यज्ञकर्मोंका अनुष्ठान करके अब पुत्रवान् हो सका हूँ । अतः मुने ! मैं मनसे भी इन पुत्रोंका अधिक कालतक वियोग नहीं सह सकूँगा, यह बात आप ही जानते हैं; अतः इन्हें ले जाकर फिर यथासम्भव शीघ्र मेरे पास पहुँचा दीजियेगा ' ॥६२ - ६६॥

उनके यों कहनेपर विश्वामित्रजीने पुनः राजासे कहा - ' अपना यज्ञ समाप्त हो जानेपर मैं पुनः श्रीराम और लक्ष्मण - को यहाँ ले आऊँगा तथा अपने वचनको सत्य करते हुए इन्हें वापस कर दूँगा, आप चिन्ता न करें ' ॥६७ १/२॥

विश्वामित्रजीके इस प्रकार आश्वासन देनेपर राजाने उनके शापकी आशङ्कासे भयभीत हो, इच्छा न रहते हुए भी, श्रीराम और लक्ष्मणको उनके साथ भेज दिया । विश्वामित्रजी उन दोनों भाइयोंको साथ ले धीरे - धीरे अयोध्यासे बाहर निकले ॥६८ - ६९॥

राजेन्द्र ! सरयूके तटपर पहुँचकर महामति विश्वामित्रजीने चलते - चलते ही श्रीराम और लक्ष्मणको प्रेमवश पहले ' बला ' और ' अतिबला ' नामकी दो विद्याएँ प्रदान कीं, जो क्षुधा और पिपासाको दूर करनेवाली हैं । मुनिने उन विद्याओंको मन्त्र और संग्रह ( उपसंहार ) पूर्वक सिखाया । फिर उसी समय उन्हें सम्पूर्ण अस्त्र - समुदायकी शिक्षा देकर वे साधुश्रेष्ठ मुनि श्रीराम और लक्ष्मणको अनेक आत्मज्ञानी मुनीश्वरोंके दिव्य आश्रम दिखाते और पवित्र तीर्थस्थानोंमें निवास करते हुए गङ्गा नदीको पारकर शोणभद्रके पश्चिम तटपर जा पहुँचे ॥७० - ७३॥

मार्गमें मुनियों, धर्मात्मामों और सिद्धोंका दर्शन करते हुए तथा ऋषियोंसे वर प्राप्तकर, राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्रजीके द्वारा उस ताड़कावनमें ले जाये गये, जो यमराजके दूसरे मुखके समान भयंकर था । नृपश्रेष्ठ ! वहाँ पहुँचकर महातपस्वी विश्वामित्रने अनायास ही महान् कर्म करनेवाले रामसे कहा - ' महाबाहो राम ! इस महान् वनमें रावणकी आज्ञासे ' ताड़का ' नामकी एक राक्षसी रहती है । उसने बहुत - से मनुष्यों, मुनिपुत्रों और मृगोंको मारकर अपना आहार बना लिया है; अतः सत्तम ! तुम उसका वध करो ' ॥७४ - ७७ १/२॥

मुनिवर विश्वामित्रके इस प्रकार कहनेपर रामने उनसे कहा - ' महामुने ! आज मैं स्त्रीका वध कैसे करुँ ? क्योंकि बुद्धिमान् लोग स्त्रीवधमें महान् पाप बतलाते हैं ।' श्रीरामकी यह बात सुनकर विश्वामित्रने उनसे कहा - ' राम ! उस ताड़काको मारनेसे सभी मनुष्य सदाके लिये निर्भय हो जायँगे, इसलिये उसका वध करना तो पुण्यदायक है ' ॥७८ - ८० १/२॥

मुनिवर विश्वामित्र इस प्रकार कह ही रहे थे कि वह महाघोर राक्षसी ताड़का मुँह फैलाये वहाँ आ पहुँची । तब मुनिकी प्रेरणासे रामने उसकी ओर देखा । वह मुँह बाये आ रही थी । उसकी छड़ी - सरीखी एक बाँह ऊपरकी ओर उठी थी । कटिप्रदेशमें मेखला ( करधनी ) - की जगह लिपटी हुई मनुष्यकी अँतड़ी लटक रही थी । इस रुपमें आती हुई मनुष्यकी उस निशाचरीको देखकर श्रीरामने स्त्रीवधके प्रति होनेवाली घृणा और बाणको एक साथ ही छोड़ दिया । राजन् ! उन्होंने धनुषपर बाण रखकर उसे बड़े वेगसे छोड़ा । उस बाणने ताड़काकी छातीके दो टुकड़े कर दिये । फिर तो वह धरतीपर गिरी और मर गयी ॥८१ - ८४॥

इस प्रकार ताड़काका वध करवाकर मुनि श्रीराम और लक्ष्मण दोनोंको अपने उस दिव्य सिद्धाश्रमपर ले आये, जो बहुत - से मुनियोंद्वारा सेवित था । वह आश्रम विन्ध्य पर्वतकी मध्यवर्तिनी उपत्यकामें विद्यमान था । वहाँ नाना प्रकारके वृक्ष और लतासमूह फैले हुए थे और भाँति - भाँतिके पुष्प उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । वह आश्रम अनेकानेक झरनोंके जलसे सुशोभित तथा शाक एवं मूल - फलादिसे सम्पन्न था । वहाँ उन दोनों राजकुमारोंको विशेषरुपसे शिक्षा देकर मुनिने उनको यज्ञकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया । तदनन्तर महान् तपस्वी विश्वामित्रने यज्ञ आरम्भ किया ॥८५ - ८७ १/२॥

महात्मा विश्वामित्र ज्यों - ही यज्ञकी दीक्षामें प्रविष्ट हुए, उस यज्ञका कार्य चालू हो गया । उसमें ऋत्विजगण अपना - अपना कार्य करने लगे । तब रावणके द्वारा नियुक्त मारीच, सुबाहु तथा अन्य बहुत - से राक्षसगण यज्ञ नष्ट करनेके लिये वहाँ आये । उन सबको वहाँ आया जान कमलनयन श्रीरामने बाण मारकर ' सुबाहु ' नामक राक्षसको तो धराशायी कर दिया । वह अपने शरीरसे रक्तकी वर्षासी करने लगा । इसके बाद ' भल्ल ' नामक बाणका प्रहार करके श्रीरामने मारीचको उसी तरह समुद्रके तटपर फेंक दिया, जैसे वायु पत्तेको उड़ाकर दूर फेंक दे । तदनन्तर श्रीराम और लक्ष्मण दोनोंने मिलकर शेष सभी राक्षसोंका वध कर डाला ॥८८ - ९२॥

इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा यज्ञकी रक्षा होती रहनेसे महायशस्वी विश्वामित्रने उस यज्ञको विधिवत् पूर्ण करके ऋत्विजोंका दक्षिणादिसे पूजन किया । शत्रुदमन ! उस यज्ञके सदस्योंका भी यथोचित समादर करके विश्वामित्रजीने श्रीराम और लक्ष्मणकी भी भक्तिपूर्वक पूजा एवं प्रशंसा की । सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ महाराज ! तदनन्तर उस यज्ञमें मिले हुए भागोंसे सन्तुष्ट देवताओंने भगवान् रामके मस्तकपर पुष्पोंकी वर्षा की ॥९३ - ९५॥

इस प्रकार भाई लक्ष्मणके साथ विनयशील श्रीरामचन्द्रजी राक्षसोंसे प्राप्त भयका निवारण करके, विश्वामित्रका यज्ञ पूर्ण कराकर, नाना प्रकारकी पावन कथाएँ सुनते हुए मुनिके द्वारा उस स्थानपर लाये गये, जहाँ शिला बनी हुई अहल्या थी । राजेन्द्र ! पूर्वकालमें इन्द्रके साथ व्यभिचार करनेसे अपने पति गौतमका शाप प्राप्तकर अहल्या पत्थर हो गयी थी । उस समय रामका दर्शन पाते ही वह शापसे मुक्त हो पुनः अपने पति गौतमके पास चली गयी ॥९६ - ९८॥

तदनन्दर विश्वामित्रजीने वहाँ क्षणभर विचार किया कि मुझे कमललोचन रामचन्द्रजीक विवाह करके इन्हें अयोध्या ले चलना चाहिये । यह सोचकर अनेक शिष्योंसे धिरे हुए महातपस्वी विश्वामित्रजी श्रीराम और लक्ष्मणकी साथ ले मिथिलाकी ओर चल दिये ॥९९ - १००॥

इनके जानेसे पूर्व ही वहाँ सीतासे विवाह करनेकी इच्छावाले अनेक महान् पराक्रमी राजकुमार नाना देशोंसे जनकके यहाँ पधारे थे । उन सबको आया देख राजा जनकने उनका यथोचित सत्कार किया तथा जो सीताके स्वयंवरके लिये ही प्रकट हुआ था, उस महान् माहेश्वर धनुषका चन्दन और पुष्प आदिसे पूजन करके उसे रमणीय शोभासे सम्पन्न सुविस्तृत रङ्गमञ्चपर लाकर रखवाया ॥१०१ - १०३॥

तब राजा जनकने वहाँ पधारे हुए उन समस्त राजाओंके प्रति उच्च स्वरसे कहा - ' राजकुमारो ! जिसके खींचनेसे यह धनुष टूट जायगा, यह सर्वाङ्गसुन्दरी सीता उसीकी धर्मपत्नी हो सकती है ।' महात्मा जनकके द्वारा ऐसी बात सुनायी जानेपर वे नरेशगण क्रमशः उस धनुषको लेलेकर चढ़ानेका प्रयत्न करने लगे; परंतु बारी - बारीसे उस धनुषद्वारा ही झटके खाकर काँपते हुए वे दूर गिर जाते थे । राजन् ! इससे उन सभी भूपालोंको वहाँ बड़ी लज्जा हुई । नरेश्वर ! उन सबके निराश हो जानेपर वीर राजा जनक उस शिव - धनुषको यथास्थान रखवाकर श्रीरामके आगमनकी प्रतीक्षामें वहाँ ही ठहरे रहे । इतनेमें विश्वामित्रजी मिथिलानरेशके राजभवनमें आ पहुँचे ॥१०४ - १०८॥

जनकने श्रीराम, लक्ष्मण तथा शिष्योंसे युक्त विश्वामित्रजीको अपने भवनमें आया देख उस समय उनकी विधिवत् पूजा की । फिर ब्राह्मणका अनुसरण करनेवाले तथा लावण्य आदि गुणोंसे लक्षित रघुवंशनाथ बुद्धिमान् श्रीराम एवं शील - सदाचारादि गुणोंसे युक्त महामति लक्ष्मणका भी यथायोग्य पूजन करके जनकजी मन - ही - मन बहुत प्रसन्न हुए । तत्पश्चात् सोनेके सिंहासनपर सुखपूर्वक बैठकर छोटे - बड़े शिष्योंसे घिरे हुए मुनिवर विश्वामित्रसे वे बोले - ' भगवान् ! अब मुझे क्या करना चाहिये '॥१०९ - ११२॥

मार्कण्डेयजी कहते हैं - राजा जनककी यह बात सुनकर मुनिने उनसे कहा - ' महाराज ! ये राजा राम साक्षात् भगवान् विष्णु हैं । ( तीनों ) लोकोंकी रक्षाके लिये ये दशरथके पुत्ररुपसे प्रकट हुए हैं; अतः देवकन्याके समान सुशोभित होनेवाली सीताका ब्याह तुम इन्होंके धनुष तोड़नेकी शर्त रखी है; अतः अब उस शिवधनुषको लाकर यहाँ उसकी अर्चना करो ' ॥११३ - ११५॥

तब ' बहुत अच्छा ' कहकर राजाने अनेक भूपालोंका मान भङ्ग करनेवाले उस अद्भुत शिवधनुषको पूर्ववत् वहाँ रखवाया । तत्पश्चात् कमललोचन दशरथनन्दन राम विश्वामित्रजीके आज्ञा देनेपर राजाओंके बीचसे उठे और ब्राह्मणों तथा देवताओंको प्रणाम करके उन्होंने वह धनुष उठा लिया । फिर उन महाबाहुने धनुषकी डोरी चढ़ाकर उसकी टंकार की । रामके द्वारा बलपूर्वक खींचे जानेसे वह महान् धनुष सहसा टूट गया । तब सीताजी सुन्दर माला लेकर आयीं और उन सम्पूर्ण क्षत्रियोंके निकट भगवान रामके गलेमें वह माला डालकर उन्होंने उनका विधिपूर्वक पतिरुपसे वरण किया । इससे वहाँ आये हुए सभी महाबली क्षत्रिय कुपित हो गये और श्रीरामचन्द्रजीपर सब ओरसे आक्रमण एवं गर्जना करते हुए उनपर बाण बरसाने लगे । उन्हें यों करते देख श्रीरामने भी वेगपूर्वक हाथमें धनुष ले प्रत्यञ्चाकी टंकारसे उन सभी नरेशोंको कम्पित कर दिया और अपने अस्त्रोंसे उन सबके बाण तथा रथ काट डाले । इतना ही नहीं, श्रीरामने लीलापूर्वक ही उनके धनुष तथा पताकाएँ भी काट डाली । तदनन्तर मिथिलानरेश भी अपनी सारी सेना तैयार करके उस संग्राममें जामाता श्रीरामकी रक्षा करते हुए उनके पृष्ठपोषक हो गये । इधर, महावीर लक्ष्मणने भी युद्धमें उन राजाओंको मार भगाया तथा उनके हाथी, घोड़े और बहुत - से रथ अपने अधिकारमें कर लिये । अपने वाहन छोड़कर भागे जाते हुए उन राजाओंको मार डालनेके लिये लक्ष्मण उनके पीछे दौड़े । तब उन्हें मिथिलानरेश जनक और विश्वामित्रने मना कर दिया ॥११६ - १२६॥

राजाओंकी सेनापर विजय पाये हुए महावीर श्रीरामको लक्ष्मणसहित साथ ले राजा जनकने अपने सुन्दर भवनमें प्रवेश किया । उसी समय उन्होंने राजा दशरथके पास एक दूत भेजा । दूतके मुखसे सारी बातें सुनकर राजाको सब वृतान्त ज्ञात हुआ । तब श्रीमान् राजा दशरथ अपनी रानियों और पुत्रोंको साथ ले, हाथी, घोड़े और रथ आदि वाहनोंसे सम्पन्न हो, सेनाके साथ तुरन्त ही मिथिलामें पधारे । राजन् ! जनकने भी राजा दशरथका भलीभाँति सत्कार किया । फिर विधिपूर्वक जिसके पाणिग्रहणकी शर्त पूरी की जा चुकी थी, उस अपनी कन्या सीताको रामके हाथमें दे दिया । तत्पश्चात् अपनी अन्य तीन कन्याओंको भी, जो परमसुन्दरी और आभूषणोंसे अलङ्कृत थीं, लक्ष्मण आदि तीन भाइयोंके साथ विधिपूर्वक ब्याह दिया ॥१२७ - १३१॥

इस प्रकार विवाह कर लेनेके पश्चात् कमललोचन श्रीराम अपने भ्राताओं, माताओं और बलवान् पिताके साथ कुछ दिनोंतक नाना प्रकारके भोजनादिसे सत्कृत हो मिथिलापुरीमें रहे । फिर महाराज दशरथको अपने पुत्रोंके साथ अयोध्या जानेके लिये उत्कण्ठित देख राजा जनकने सीताके लिये बहुत - सा धन और दिव्य रत्न देकर श्रीरामके लिये अत्यन्त सुन्दर वस्त्र, क्रियाकुशल हाथी, घोड़े और दास दिये एवं दासीके रुपमें बहुत - सी सुन्दरी स्त्रियाँ भी अर्पित कीं । उन बलवान् भूपालने बहुत - से रत्नमय आभूषणोंद्वारा विभूषित सुन्दरी साध्वी पुत्री सीताको रथपर चढ़ाकर वेदध्वनि तथा अन्य माङ्लिक शब्दोंके साथ विदा किया । अपनी दिव्य कन्या सीताको विदा कर राजा जनक दशरथजी तथा विश्वामित्र [ एवं वसिष्ठ ] मुनिको प्रणाम करके लौट आये । तब जनककी अत सौभाग्यशालिनी रानियाँ भी अपनी कन्याओंको यह शिक्षा देकर कि ' शुभे ! तुम पतिकी भक्ति तथा सास - ससुरकी सेवा करना ' उन्हें उनकी सासुओंको सौंप, नगरमें लौट आयीं ॥१३२ - १३७ १/२॥

कहते हैं, तदनन्तर यह सुनकर कि ' राम अपनी प्रबल सेनाके साथ अयोध्यापुरीको लौट रहे हैं ', परशुरामने उनका मार्ग रोक लिया । उन्हें देखकर सभी राजपुरुषोंका हदय कातर हो गया । नरेश्वर ! परशुरामके भयसे राजा दशरथ भी अपनी स्त्री तथा परिवारके साथ दुःखी और शोकमग्न हो गये । तब उत्कृष्ट तपस्वी ब्रह्मचारी महामुनि वसिष्ठजी दुःखी राजा दशरथ तथा अन्य सब लोगोंसे बोले ॥१३८ - १४१॥

वसिष्ठजीने कहा - तुम लोगोंको यहाँ श्रीरामके लिये तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । पिता, माता, भाई अथवा अन्य भृत्यजन थोड़ा - सा भी खेद न करें । नरपाल ! ये श्रीरामचन्द्रजी साक्षात् भगवान् विष्णु हैं । समस्त जगतकी रक्षाके लिये ही इन्होंने तुम्हारे घरमें अवतार लिया है, इसमें संदेह नहीं है । जिनके नाममात्रका कीर्तन करनेसे संसाररुपी भय निवृत हो जाता है, वे परमेश्वर ही जहाँ साक्षात् मूर्तिमान् होकर विराजमान हैं, वहाँ भय आदिकी चर्चा भी कैसे की जा सकती है, प्रभो ! जहाँ श्रीरामचन्द्रजीकी कथामात्रका भी कीर्तन होता है, वहाँ मनुष्योंके लिये संक्रामक बीमारी और अकालमृत्युका भय नहीं होता ॥१४२ - १४५ १/२॥

वसिष्ठजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि भृगुवंशी परशुरामजीने सामने खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीसे कहा - '' राम ! तुम अपना यह ' राम ' नाम त्याग दो, अथवा मेरे साथ युद्ध करो ।'' उनके यों कहनेपर रघुकुलनन्दन श्रीरामने मार्गमें खड़े हुए उन परशुरामजीसे कहा - '' मैं ' राम ' नाम कैसे छोड़ सकता हूँ ? तुम्हारे साथ युद्ध ही करुँगा, सँभल जाओ ।'' उनसे इस प्रकार कहकर कमललोचन श्रीराम अलग खड़े हो गये और उन वीरवरने उस समय वीर परशुरामके सामने ही धनुषकी प्रत्यज्चाकी टंकार की । तब परशुरामजीके शरीरसे वैष्णव तेज निकलकर सब प्राणीयोंके देखते - देखते श्रीरामके मुखमें समा गया । उस समय भृगुवंशी परशुरामने श्रीरामकी ओर देख प्रसन्नमुख होकर कहा - '' महाबाहु श्रीराम ! आप ही ' राम ' हैं, अब इस विषयमें मुझे संदेह नहीं है । प्रभो ! आज मैंने आपको पहचाना; आप साक्षात् विष्णु ही इस रुपमें अवतीर्ण हुए हैं । वीर ! अब आप अपने इच्छानुसार जाइये, देवताओंका कार्य सिद्ध कीजिये । श्रीराम ! अब आप स्वेच्छानुसार चले जाइये; मैं भी तपोवनको जाता हूँ '' ॥१४६ - १५२ १/२॥

यों कहकर परशुरामजी उन दशरथ आदिके द्वारा मुनिभावसे पूजित हुए और तपस्याके लिये मनमें निश्चय करके महेन्द्राचलको चले गये । तब समस्त बरातियों तथा महाराज दशरथको महान् हर्ष प्राप्त हुआ और वे ( वहाँसे चलकर ) श्रीरामचन्द्रजीके साथ अयोध्यापुरीके निकट पहुँचे । उधर सम्पूर्ण पुरवासी मङ्गलमयी अयोध्या नगरीको सब ओर दुन्दुभि आदि गाजे - बाजेके साथ उनकी अगवानीके लिये निकले । नगरके बाहर आकर वे रणमें अजेय श्रीरामजीको पत्नीसहित नगरमें प्रवेश करते हुए देखकर आनन्दमग्न हो गये और उन्हींके साथ अयोध्यामें प्रविष्ट हुए ॥१५३ - १५६ १/२॥

तत्पश्चात् मुनिवर विश्वामित्रने श्रीराम और लक्ष्मण - दोनों भाइयोंको अपने निकट आया हुआ देखकर उन्हें उनके पिता दशरथ तथा विशेषरुपसे उनकी माताओंको समर्पित कर दिया । तब राजा दशरथद्वारा पूजित होकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र सहसा लौट जानेके लिये उद्यत हुए । इस प्रकार महामति मुनि विश्वामित्रजीने छोटे भाई लक्ष्मण तथा भार्या सीताके साथ श्रीरामजीको, जो अपने पिताको एकान्त प्रिय थे, समर्पित कर दिया और उनके समक्ष बारम्बार उनका गुणगान करके हँसते हुए वे अपने श्रेष्ठ सिद्धाश्रमको चले गये ॥१५७ - १५९॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' रामावतारविषयक ' सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४७॥

N/A

References : N/A
Last Updated : September 22, 2009

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP