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अध्याय १०

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय १०

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! इस प्रकार तपस्याद्वारा अपनी जीतकर प्रशंसित व्रतवाले महाबुद्धिमान् मार्कण्डेयजी पिताके घर गये । वहाँ भृगुजीके विशेष आग्रहसे धर्मपूर्वक विवाह करके उन्होंने विधिके अनुसार ' वेदशिरा ' नामक एक पुत्र उत्पन्न किया । तत्पश्चात् निरामय ( निर्विकार ) देवेश्वर भगवान् नारायणका यज्ञोंद्वारा यजन करते हुए उन्होंने श्राद्धसे पितरोंका और अन्नदानसे अतिथियोंका पूजन किया । इसके बाद पुनः प्रयागमें जाकर वहाँके श्रेष्ठतम तीर्थ त्रिवेणीमें स्नान करके महातेजस्वी मार्कण्डेयजी अक्षयवटके नीचे तप करने लगे । जिनके कृपाप्रसादसे उन्होंने पूर्वकालमें मृत्युपर विजय प्राप्त की थी, उन्हीं देवाधिदेवके दर्शनकी इच्छासे उन्होंने उत्कृष्ट तपस्या आरम्भ की । दीर्घकालतक केवल वायु पीकर तपस्याद्वारा अपने शरीरको सुखाते हुए वे महातेजस्वी महाबुद्धिमान् मार्कण्डेयजी एक दिन गन्ध - पुष्प आदि शुभ उपकरणोंसे भगवान् वेणीमाधवकी आराधना करके उनके सम्मुख स्वस्थचित्तसे खड़े हो गये और हदयमें उन्हीं शङ्ख - चक्र - गदाधारी गरुडध्वज भगवान् विष्णुका ध्यान करते हुए उनकी स्तुति करने लग ए ॥१ - ७॥

मार्कण्डेयजी बोले - जो भगवान् श्रेष्ठ नर, नृसिंह और नरनाथ ( मनुष्योंके स्वामी ) हैं, जिनकी भुजाएँ लम्बी हैं, नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान विशाल हैं तथा चरणारविन्द असंख्य भूपतियोंद्वारा पूजित हैं, उन पुरातन पुरुष भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ । जो संसारके पालक हैं, क्षीरसमुद्र जिनका निवास - स्थान है, जो हाथमें शार्ङ्गधनुष धारण किये रहते हैं, मुनिवृन्द जिनकी वन्दना करते हैं, जो लक्ष्मीके पति हैं और लक्ष्मीको निन्तर अपने हदयमें धारण करते हैं, उन सर्वसमर्थ, सर्वेश्वर, अनन्त तेजोमय भगवान् गोविन्दको मैं प्रणम करता हूँ । जो अजन्मा, सबके वरणीय, जन - समुदायके दुःखोंका नाश करनेवाले, गुरु, पुराण - पुरुषोत्तम एवं सबके स्वामी हैं, सहस्रों सूर्योंके समान जिनकी कान्ति है तथा जो अच्युतस्वरुप हैं, उन आदिमाधव भगवान् विष्णुको मैं भक्तिभावसे प्रणाम करता हूँ । जो पुण्यात्मा भक्तोंके ही समक्ष सगुण - साकार रुपसे प्रकट होते हैं, सबकी परमगति हैं, भूमि, लोक और प्रजाओंके पति हैं, ' पर ' अर्थात् कारणोंके भी परम कारण हैं तथा तीनों लोकोंके कर्मोंके साक्षी हैं, उन भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ । जो अनादि विधाता भगवान् पूर्वकालमें क्षीरसमुद्रके भीतर ' अनन्त ' नामक शेषनागके शरीररुपी शय्यापर सोये थे, क्षीरसिन्धुकी तरङ्गोंके जलकणोंसे अभिषिक्त होनेवाले उन लक्ष्मीनिवास भगवान् केशवको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने नरसिंहस्वरुप धारण किया है, जो महान् देवता हैं, मुर दैत्यके शत्रु हैं, मधु तथा कैटभ नामक दैत्योंका अन्त करनेवाले हैं और समस्त लोकोंकी पीड़ा दूर करनेवाले एवं हिरण्यगर्भ हैं, उन भगवान् विष्णुको मैं सदा नमस्कार करता हूँ । जो अनन्त, अव्यक्त, इन्द्रियातीत, सर्वव्यापी और अपने विभिन्न रुपोंमें स्वयं ही प्रतिष्ठित हैं तथा योगेश्वररगण जिनके चरणोंमें सदा ही मस्तक झुकाते हैं, उन भगवान् जनार्दनको मैं भक्तिपूर्वक निरन्तर प्रणाम करता हूँ । जो आनन्दमय, एक ( अद्वितीय ), रजोगुणसे रहित, ज्ञानस्वरुप, वृन्दा ( लक्ष्मी ) - के धाम और योगियोंद्वारा पूजित हैं; जो अणुसे भी अत्यन्त अणु और वृद्धि तथा क्षयसे शून्य हैं, उन भक्तप्रिय भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ ॥८ - १५॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - वत्स ! इस प्रकार स्तुति समाप्त होनेपर उस तीर्थमें तपस्या करनेवाले उन महाभाग मार्कण्डेयजीसे आकाशवाणीने कहा - ' ब्रह्मन ! क्यों क्लेश उठा रहे हो, तुम्हें जो भगवान् माधवका दर्शन नहीं हो रहा है, वह तभीतक जबतक तुम समस्त तीर्थोमें स्नान नहीं कर लेते ' उसके यों कहनेपर महामति मार्कण्डेयजीने समस्त तीर्थोंमें स्नान किया ( परंतु जब फिर भी दर्शन नहीं हुआ, तब उन्होंने आकाशवाणीको लक्ष्य करके कहा - ) ' जो कार्य करनेसे समस्त तीर्थोमें स्नान करना सफल होता है, अथवा समस्त तीर्थोमें स्नानका फल मिल जाता है, वह कार्य मुझे प्रसन्न होकर आप बतलाइये । आप जो भी हों , आपको नमस्कार हैं ' ॥१६ - १८॥

आकाशवाणीने कहा - विप्रेन्द्र ! सुव्रत ! इस स्तोत्रसे प्रभुवर नारायणका स्तवन करो; और किसी उपायसे तुम्हें समस्त तीर्थोंका फल नहीं प्राप्त होगा ॥१९॥

मार्कण्डेयजी बोले - भगवन् ! जिसका जप करनेसे तीर्थस्रानका सम्पूर्ण फल प्राप्त हो जाता है, वह तीर्थफलदायक स्तोत्र कौन - सा है ? उसे ही मुझे बताइये ॥२०॥

आकाशवाणीने कहा - देवदेव ! माधव ! केशव ! आपकी जय हो, जय हो ! आपके नेत्र प्रफुल्ल कमलदले समान शोभा पाते हैं । गोविन्द ! गोपते ! आपकी जय हो, जय हो । पद्मनाभ ! वैकुण्ठ ! वामन ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । पद्मस्वरुप हषीकेश ! आपकी जय हो ! दामोदर ! अच्युत ! आपकी जय हो । लक्ष्मीपते ! अनन्त ! आपकी जय हो । लोकगुरो ! आपकी जय हो, जय हो ! शङ्ख और गदा धारण करनेवाले तथा पृथ्वीको उठानेवाले भगवान् वाराह ! आपकी जय हो, जय हो । यज्ञेश्वर ! पृथ्वीका धारण तथा पोषण करनेवाले वाराह ! आपकी जय हो, जय हो ! योग और धर्मके प्रवर्तक ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । उत्तम ब्राह्मणोंकी वन्दना करने - उन्हें सम्मान देनेवाले देवता ! आपकी जय हो और नारदजीको सिद्धि देनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो । पुण्यवानोंके आश्रय, वैदिक वाणीके चरम तात्पर्यभूत एवं वेदोक्त कर्मोंके परम आश्रय नारायण ! आपकी जय हो, जय हो । चतुर्भुज ! आपकी जय हो । दैत्योको भय देनेवाले श्रीजयदेव ! आपकी जय हो, जय हो । सर्वज्ञ ! सर्वात्मन् आपकी जय हो ! सनातदेव ! कल्याणकारी भगवान् ! आपकी जय हो, जय हो । महादेव ! विष्णो ! अधोक्षज ! देवेश्वर ! आप मुझपर प्रसन्न होइये और आज मुझे अपने स्वरुपका प्रत्यक्ष दर्शन कराइये ॥२१ - २८॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - शुकदेव ! आकाशवाणीके कथनानुसार जब बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीने इस प्रकार भगवन्नामोंका कीर्तन किया, तब पीताम्बरधारी भगवान् जनार्दन वहाँ प्रकट हो गये । वे सनातन भगवान् विष्णु हाथोंमें शङ्ख चक्र और गदा लिये, समस्त आभूषणोंसे भूषित हो अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे । भृगुवंशको आनन्दित करनेवाले मार्कण्डेयजीने भगवानको, जिनका दर्शन चिरकालसे प्रार्थित था, सहसा सामने प्रकट हुआ देख, भक्तिविवश हो, भूमिपर मस्तक रखकर प्रणाम किया । भूमिपर गिर - गिरकर बारंबार साष्टांग प्रणाम करके खड़े हो, महामना मार्कण्डेय दोनों हाथ जोड़ सामने उपस्थित हुए भगवानकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥२९ - ३२॥

मार्कण्डेयजी बोले - महामना ! महाकाय ! महामते ! महादेव ! महायशस्वी ! देवाधिदेव ! आपको नमस्कार हैं । ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा तथा रुद्र निरन्तर आपके युगलचरणारविन्दोंकी अर्चना करते हैं । आपके हाथमें शोभाशाली कमल सुशोभित होता है; आपने दैत्योंके शरीरींको मसल डाला है, आपको नमस्कार है । आप ' अनन्त ' नामसे विख्यात शेषनागके शरीरकी शय्याको अपने सम्पूर्ण अङ्ग समर्पित और सनत्कुमार आदि योगीजन अपने नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर सुस्थिर करके नित्यनिरन्तर जिस मोक्षतत्त्वका चिन्तन करते हैं, वह आप ही हैं । गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष, किंनर और किम्पुरुष प्रतिदिन आपके ही दिव्य सुयशका गान करते रहते हैं । नृसिंह ! नारायण ! पद्मनाभ ! गोविन्द ! गिरिराज गोवर्धनकी कन्दरामें क्रीड़ा - विश्रामादिके लिये निवास करनेवाले ! योगीश्वर ! देवेश्वर ! महामायाधर ! विद्याधर ! यशोधर ! कीर्तिधर ! सत्त्वादि तीनों गुणोंके आश्रय ! त्रितत्त्वधारी तथा गार्हपत्यादि तीनों अग्नियोंको धारण करनेवाले देव ! आपको प्रणाम है । आप ऋक, साम और यजुष - इन तीनों वेदोंके परम प्रतिपाद्य, त्रिनिकेत ( तीनों लोकोंके आश्रय ), त्रिसुपर्ण, मन्त्ररुप और त्रिदण्डधारी हैं, ऐसे आपको प्रणाम है । स्निग्ध मेघकी आभाके सदृश सुन्दर श्यामकान्तिसे सुशोभित, पीताम्बरधारी, किरीट, वलय, केयूर और हारोंमें जटित मणिरत्नोंकी किरणोंसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले नारायणदेव ! आपको नमस्कार है । सुवर्ण और मणियोंसे बने हुए कुण्डलोंद्वारा अलंकृत कपोलोंवाले मधुसूदन ! विश्वमूर्ते ! आपको प्रणाम है । लोकनाथ ! यज्ञेश्वर ! यज्ञप्रिय ! तेजोमय ! भक्तिप्रिय वासुदेव ! पापहारिन् ! आराध्यदेव पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है ॥३३ - ४०॥

श्रीव्यासजी बोले - इस प्रकार स्तवन सुनकर देवदेव भगवान् जनार्दनने प्रसन्नचित्त होकर मार्कण्डेयजीसे कहा ॥४१॥

श्रीभगवान् बोले - वत्स ! मैं तुम्हारे महान् तप और फिर स्तोत्रपाठसे तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । महाबुद्धें ! इस समय तुम्हारा सारा पाप नष्ट हो चुका है । विप्रेन्द्र ! मैं तुम्हारे सम्मुख वर देनेके लिये उपस्थित हूँ; वर माँगो । ब्रह्मन् ! जिसने तप नहीं किया है, ऐसा कोई भी मनुष्य अनायास ही मेरा दर्शन नहीं पा सकता ॥४२ - ४३॥

मार्कण्डेयजी बोले - देवेश्वर ! इस समय आपके दर्शनसे ही मैं कृतार्थ हो गया । जगत्पते ! अब तो मुझे एकमात्र अपनी अविचल भक्ति ही दिजिये । माधव ! श्रीपते ! हषीकेश ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे चिरकालिक आयु दीजिये मैं चिरकालतक आपकी आराधना कर सकूँ ॥४४ - ४५॥

श्रीभगवान् बोले - मृत्युको तो तुम पहले ही जीत चुके हो, अब चिरकालिक आयु भी तुम्हें प्राप्त हुई । साथ ही, मेरी मुक्तिदायिनी अविचल वैष्णवी भक्ति भी तुम्हें प्राप्त हो । महाभाग ! यह तीर्थ आजसे तुम्हारे ही नामसे विख्यात होगा; अब पुनः तुम क्षीरसमुद्रमें योगानिद्राका आश्रय लेकर सोये हुए मेरा दर्शन पाओंगे ॥४६ - ४७॥

श्रीव्यासजी बोले - यों कहकर कमललोचन भगवान् विष्णु वहीं अदृश्य हो गये । धर्मात्मा, साधुशिरोमणि, तपोधन मार्कण्डेयजी भी शुद्धस्वरुप देवदेवेश्वर मधुसुदनका ध्यान, पूजन, जप और नमस्कार करते हुए वहीं रहकर मुनियोंको पवित्र वेदशास्त्र, अखिल पुराण, विविध प्रकारकी गाथाएँ, पावन इतिहास और पितृतत्त्व भी सुनाने लगे । तदनन्तर किसी समय भगवान् पुरुषोत्तमके कहे हुए वचनको स्मरण कर, वे शास्त्रवेताओंमें श्रेष्ठ उग्रतेजस्वी मुनि उन सुरेश्वर भगवान् श्रीहरिका दर्शन करनेके लिये घूमते हुए समुद्रकी ओर चले । हदयमें भगवानकी भक्ती धारण किये चिरकालतक परिश्रमपूर्वक चलते - चलते क्षीरसागरमें पहुँचकर उन भृगुके पौत्रने नागराजके शरीररुपी पर्यङ्कपर निद्रामग्र हुए सुरेश्वर भगवान् विष्णुका दर्शन किया ॥४८ - ५२॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' मार्कण्डेयके चरित्र ' वर्णनके प्रसंगमें दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१०॥

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Last Updated : July 25, 2009

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