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अध्याय १५

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय १५

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीशुकदेवजी बोले - तात ! मैं इस समय मुनियोंके साथ संसारवृक्षका वर्णन सुनना चाहता हूँ, जिसके द्वारा यह परिवर्तनका सम्पूर्ण चक्र चलता रहता है । तात ! आपने ही पहले इस वृक्षको सूचित किया है; अतः आप ही इसका वर्णन करनेके योग्य हैं । महाभाग ! आपके सिवा दूसरा कोई इस संसारवृक्षका लक्षण नहीं जानता ॥१ - २॥

सूतजी बोले - भरद्वाज ! अपने शिष्योंके बीचमें बैठे हुए पुत्र शुकदेवजीके इस प्रकार पूछनेपर श्रीकृष्णद्वैपायन ( व्यासजी ) - ने उन्हें संसारवृक्षका लक्षण इस प्रकार बताया ॥३॥

श्रीव्यासजी बोले - मेरे सभी शिष्य इस विषयको सुनें; तथा वत्स ! तुम भी सावधान होकर सुनो - मैं संसारवृक्षका वर्णन करता हूँ, जिसने इस सारे दृश्यप्रपञ्चको व्याप्त कर रखा है । यह संसार - वृक्ष अव्यक्त परमात्मारुपी मूलसे प्रकट हुआ हैं । उन्हींसे प्रकट होकर हमारे सामने इस रुपमें खड़ा है । बुद्धि ( महत्तत्व ) उसका तना है, इन्द्रियाँ ही उसके अङ्कुर और कोटर हैं, पञ्चमहाभूत उसकी बड़ी - बड़ी डालियाँ हैं, विशेष पदार्थ ही उसके पत्ते और टहनियाँ है, धर्म - अधर्म फूल हैं, उससे ' सुख ' और ' दुःख ' नामक फल प्रकट होते हैं, प्रवाहरुपसे सदा रहनेवाला यह संसारवृक्ष ब्रह्मकी भाँति सभी भूतोंका आश्रय है । यह अपरब्रह्म और परब्रह्म भी इस संसार - वृक्षका कारण है । पुत्र ! इस प्रकार मैंने तुमसे संसारवृक्षका लक्षण बतलाया है । इस प्रकार मैंने तुमसे संसारवृक्षका लक्षण बतलाया है । इस वृक्षपर चढ़े हुए देहाभिमानी जीव मोहित हो जाते हैं । प्रायः ब्रह्मज्ञानसे विमुख प्राकृत मनुष्य सदा सुख - दुःखसे युक्त होकर होकर इस संसारमें फँसे रहते है, ब्रह्मज्ञानी विद्वान् इस संसारवृक्षको नहीं प्राप्त होते । वे इसका उच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं । महाप्राज्ञ शुकदेव ! जो पापी हैं, वे कर्म - क्रियाका उच्छेद नहीं कर पाते । ज्ञानी पुरुष ज्ञानरुपी उत्तम खङ्गके द्वारा इस वृक्षको छिन्न - भिन्न करके उस अमरपदको प्राप्त करते हैं, जहाँसे जीव पुनः इस संसारमें नहीं आता । शरीर तथा स्त्रीरुपी बन्धनोंसे दृढ़तापूर्वक बँधा हुआ पुरुष भी ज्ञानके द्वारा मुक्त हो जाता है; अतः श्रेष्ठतम पुरुषोंको ज्ञानकी प्राप्ति ही परम अभीष्ट होती है; क्योंकि ज्ञान ही भगवान् नृसिंहको संतोष देता है । ज्ञानहीन पुरुष तो पशु ही है । मनुष्योंके आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि कर्म तो पशुओंके ही समान होते हैं; उनमें केवल ज्ञान ही अधिक होता है । जो ज्ञानहीन हैं, वे पशुओंके ही तुल्य हैं ॥४ - १३॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१५॥

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Last Updated : July 25, 2009

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